--कविता कृष्णपल्लवी
उत्तर-पश्चिमी दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में संघ परिवार बड़े ही सुनियोजित ढंग से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और तनाव को गहरा बनाने के लिए काम कर रहा है। हाल के एक वर्ष के दौरान मज़दूर इलाकों के लगभग सभी पार्कों में संघ की शाखायें लगने लगी हैं और झुग्गी बस्तियों के मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाकर साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने का काम लगातार ज़ारी है। इन हिन्दुत्ववादियों के गिरोहों में छोटे ठेकेदारों, दलालों, दुकानदारों, मकान मालिकों के परिवारों के युवाओं के अतिरिक्त मज़दूर बस्तियों के लम्पट और अपराधी तत्व भी शामिल होते हैं।
इस इलाके के बवाना, नरेला, होलम्बी आदि बस्तियों में यमुना पुश्ता और भीतरी दिल्ली से विस्थापित जिन मज़दूरों को बसाया गया है, उनमें बंगाल (और बिहार के भी) के मुस्लिम मज़दूरों की भारी संख्या है। कुछ बांग्ला देशी प्रवासी भी हैं। हिन्दुत्ववादी प्राय: इसी आबादी को अपना निशाना बनाते हैं। लुम्पेन तत्वों तथा अपराध और नशे के कारोबार का घटाटोप हिन्दू बहुल और मुस्लिम बहुल -- दोनों ही इलाकों में है। इस माहौल का फायदा सस्ती श्रम शक्ति खरीदने वाले ठेकेदारों और कम्पनियों को, हफ़्तावसूली करने वाली पुलिस को और धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्ट गिरोहों को -- तीनों को ही होता है।
पिछले दिनों साम्प्रदायिक तनाव भड़काने का खेल बवाना में खेला गया। भाजपा का आकलन था कि नियंत्रित और सीमित साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का ही दिल्ली चुनावों में लाभ होगा, अत: मामले को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया गया, अन्यथा स्थिति विस्फोटक होने की पूरी सम्भावना थी।
अब ऐसी ही भूमिका मेट्रो विहार, होलम्बी खुर्द के मज़दूर इलाके में भी तैयार की जा रही है। सूखे पत्तों की ढेरी तैयार है, जलती तीली जब चाहें फेंकी जा सकती है।
2001 में दिल्ली के कई इलाकों से उजाड़े गये मज़दूरों को लाकर मेट्रो विहार, होलम्बी खुर्द में बसाया गया। यहाँ के मुस्लिम मज़दूर परिवारों ने उसीसमय प्रशासन से मस्जिद और कब्रिस्तान (निकटतम कब्रिस्तान लगभग 8 कि.मी. दूर है) के लिए जगह की माँग की थी और सितम्बर, 2001 में प्रशासन को सूचित करके खाली पड़ी ज़मीन पर अस्थायी तौर पर एक मस्जिद बना ली थी। 2002 में सामने की खाली ज़मीन पर कुछ लोगों ने एक मन्दिर बना लिया। इसके पीछे संघ कार्यकर्ताओं का मुख्य उकसावा था। सम्भावित विवाद से बचने के लिए मुस्लिम परिवारों ने प्रशासन से कई बार यह माँग की कि मस्जिद और कब्रिस्तान के अतिरिक्त मन्दिर और श्मसान के लिए भी जगह अलॉट कर दी जाये। 14 वर्षों तक लगातार सोलह विभागों को पत्र लिखने और चक्कर लगाने के बाद भी प्रशासन ने कोई कदम नहीं उठाया।
2014 के उत्तरार्द्ध में, मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद, इस इलाके में साम्प्रदायिक ताकतों की ज़मीनी सरगर्मियाँ तेजी से बढ़ी। 10सितम्बर 2014 के अस्थायी मस्जिद और अस्थायी मन्दिर के बीच की खाली जगह पर कुछ असामाजिक तत्वों ने मिट्टी पाटना शुरू कर दिया। आशंकित लोगों द्वारा पुलिस बुलायी जाने के बाद उन्होंने पुलिस को यह आश्वासन दिया कि उनकी मंशा कब्जा करने की नहीं है। बहरहाल, उस जगह का इस्तेमाल ऐसे तत्व नशा और जूए के अड्डे के रूप में करने लगे जो मस्जिद में आने वाले लोगों के लिए एक समस्या थी। फिर 27 दिसम्बर, 2014 को उस खाली पड़ी जगह को बाँस-बल्लियों से उन्हीं तत्वों द्वारा घेर दिया गया। पी.सी.आर. और स्थानीय पुलिस आने के बाद दिखावटी तौर पर उन्हें मना करके चली गयी, लेकिन बाड़ेबन्दी का काम रुका नहीं।
यह एक जीता-जागता उदाहरण है कि किसतरह साम्प्रदायिक तनाव का मुद्दा पैदा करने में प्रशासन साम्प्रदायिक तत्वों का मददगार बनता है। साम्प्रदायिक तनाव के विस्फोटों के समय जो लुम्पन तत्व फासिस्टों के भाड़े के लठैत की भूमिका निभाते हैं, उनकी नर्सरी भी इन्हीं मज़दूर बस्तियों में फल-फूल रही है। अपराध, जूआ, नशा, अवैध शराब और वेश्यावृत्ति के जितने अड्डे बवाना, बादली, शाहाबाद डेयरी, होलम्बी जैसी मज़दूर बस्तियों में चलते है , वे पुलिस की मिलीभगत से चलते हैं। सदाचार और नैतिकता की दुहाई देने वाले संघ परिवार की शाखा लगाने वाले लोग स्थानीय गुण्डों-लम्पटों के हितों पर चोट करने वाला कोई मुद्दा नहीं उठाते, उल्टे ऐसे तत्वों के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध चलाते हैं। वर्तमान विधानसभा चुनावों के समय ऐसे अधिकांश तत्वों को भगवा पट्टी बाँधें, भाजपा की टोपी लगाये भाजपा उम्मीदवार का प्रचार करते देखा जा सकता है।
इस क्षेत्र में 'बिगुल मज़दूर दस्ता' और 'नौजवान भारत सभा' के कार्यकर्ताओं की लुम्पन फासिस्ट तत्वों से अतीत में कई बार टकराव हो चुके हैं। पिछले सप्ताह से साम्प्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध पूरे इलाके में चलाये जा रहे 'इंकलाबी जनएकजुटता अभियान' से नरेला, बवाना, होलम्बी, शाहाबाद डेयरी, बादली आदि मज़दूर इलाकों के हिन्दुत्ववादी फासिस्टों और लम्पट गिरोहों में काफी बौखलाहट है। लेकिन मज़दूर आबादी के व्यापक जनसमर्थन के चलते वे खुले टकराव में नहीं आ रहे हैं। हाँ, अन्दरूनी षड्यंत्रकारी गतिविधियाँ और दुष्प्रचार मुहिम चलाते रहना तो उनकी फितरत है। उससे भला वे क्यों बाज आयेंगे!
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