Monday, March 30, 2015

राजनीतिक कार्टून और बुर्जुआ जनवाद




-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

प्रख्‍यात कार्टूनिस्‍ट राजिन्‍दर पुरी का निधन टी.वी. चैनलों और ज्‍यादातर अख़बारों के लिए कोई ख़बर नहीं था। आर.के.लक्ष्‍मण और राजिन्‍दर पुरी के निधन के साथ ही राजनीतिक कार्टूनों के एक युग का अवसान हो गया। स्‍वातंत्र्योत्‍तर भारत में शंकर के बाद लक्ष्‍मण, अबू अब्राहम, विजयन, पुरी, कुट्टी, काक आदि ने राजनीतिक कार्टूनों की विधा को नयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया था। माधव और उन्‍नी जैसे कई और कार्टूनिस्‍ट भी इसी परम्‍परा की कड़ी हैं। हिन्‍दी और अन्‍य अधिकांश भारतीय भाषाओं के अख़बारों में तो राजनीतिक कार्टून कला का पराभव अस्‍सी के दशक से ही शुरू हो गया था। 
दरअसल व्‍यवस्‍था का आर्थिक संकट जब राजनीतिक और सामाजिक संकट को सघन बना देता है, तो बुर्जुआ जनवाद का स्‍पेस राजनीतिक और सामाजिक -- दोनों ही फलकों पर संकुचित हो जाता है, शासक वर्ग ज्‍यादा से ज्‍यादा असहिष्‍णु हो जाता है, व्‍यवस्‍था में अल्‍पसंख्‍यक विशेषाधिकार प्राप्‍त तबके के रूप में सहयोजित बुद्धिजीवी समुदाय व्‍यवस्‍था  की आलोचना का नैतिक साहस एवं बौद्धिक ऊर्जस्विता खो देता है, और, समाज में विभिन्‍न स्‍तरों पर सक्रिय और हावी अंधी प्रतिगामी शक्तियाँ सामाजिक-सांस्‍कृतिक रूढ़ि‍यों की बुर्जुआ सुधारवादी या सामाजिक जनवादी आलोचना तक को सहन नहीं करतीं। बुर्जुआ प्रिंट मीडिया में राजनीतिक कार्टूनों की प्रासंगिकता नि:शेष हो जाने, और जो कार्टून छपते भी हैं, उनकी धार-कोर भोंड़ी-भोथरी हो जाने का यही बुनियादी कारण है। राजनीतिक कार्टून कला की अवनति का शायद एक और कारण है। आज का राजनीतिक-सामाजिक जीवन अपने आप में क्‍लासिकी बुर्जुआ जनवादी मूल्‍यों-संस्‍थाओं का इतना विद्रूप प्रहसन बनकर रह गया है कि बुर्जुआ जनवादी दृष्टिकोण एवं अवस्थिति से उसपर व्‍यंग्‍य कर पाने की संभावना न्‍यूनातिन्‍यून हो गयी है। यथार्थ अपने आप में बुर्जुआ समाज पर इतिहास के व्‍यंग्‍य का एक मूर्त रूप बन चुका है। बुर्जुआ राजनीति, संस्‍कृति और समाज पर प्रभावी आलोचनात्‍मक व्‍यंग्‍य, या उनकी व्‍यंग्‍यात्‍मक आलोचना आज केवल समाजवादी दृष्टिकोण या सर्वहारा की अवस्थिति से ही सम्‍भव हो सकती है।
पश्चिम में राजनीतिक व्‍यंग्‍य की विधा में गिरावट के बावजूद अभी कुछ दम बाकी है। दुनिया भर से निचोड़े गये अधिशेष के बल पर साम्राज्‍यवादी देशों का शासक वर्ग अपने समाज के मुखर तबके -- मध्‍यवर्गीय बौद्धिक समुदाय को कुछ ज्‍यादा जनवादी अधिकार और आलोचना की कुछ ज्‍यादा छूट देना 'अफोर्ड' कर सकता है। वहाँ बुर्जुआ जनवाद की ज़मीन तेजी से क्षरित-विघटित होते हुए भी भारत जैसे उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों की अपेक्षा अधिक मजबूत है। दूसरी बात, पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रांतियों की इतिहास-विकास-प्रक्रिया के चलते पश्चिम के सामाजिक-सांस्‍कृतिक ताने-बाने में बुर्जुआ जनवादी मूल्‍यों की अन्‍तर्व्‍याप्ति अधिक गहन और गहरी रही है, जो पतन-विघटन की तीव्र प्रक्रिया के बाद भी अभी काफी हद तक बची हुई है। पश्चिमी समाज का बुर्जुआ नागरिक अपने ऊपर हँस सकने, अपनी आलोचना पचा पाने या व्‍यंग्‍य की चोट सह लेने की क्षमता अधिक रखता है। भारतीय समाज का बुर्जुआ जनवाद तो अपने यौवन काल में भी रुग्‍ण-विकलांग ही था। यहाँ के सामाजिक ताने बाने में जनवादी मूल्‍यों की पैठ निहायत उथली रही है। भारतीय बुर्जुआ नागारिक का हास्‍य-व्‍यंग्‍य-बोध पहले से ही कमज़ोर रहा है। आज बुर्जुआ जनवाद के क्षरण-विघटन के साथ, राज्‍यसत्‍ता की निरंकुशता बढ़ने और बुर्जुआ मीडिया के भीतर के जनवादी स्‍पेस घटने तथा उसके द्वारा खुले तौर पर सत्‍ता और पूँजी प्रतिष्‍ठानों के इशारों पर नाचने के अतिरिक्‍त एक सच्‍चाई यह भी है कि पूरा समाज प्रतिक्रिया की अंधी शक्तियों और फासीवादी प्रवृत्तियों की नर्सरी बना हुआ है। किसी पुस्‍तक, किसी चित्र, किसी फिल्‍म या किसी वक्‍तव्‍य से किसी धर्म-विशेष, जाति विशेष या क्षेत्र वि‍शेष के लोगों की भावनाएँ आहत हो जाती हैं। हुसैन के चित्रों से लेकर मुरुगन के उपन्‍यास तक  -- अनगिनत उदाहरण हैं। असहिष्‍णुता और जनवाद-विरोधी प्रवृत्तियों के   इस माहौल में राजनीतिक व्‍यंग्‍य की विधा में गिरावट तो आनी ही थी।
यह एक अच्‍छी बात है कि बुर्जुआ राष्‍ट्रीय और क्षेत्रीय अख़बारों के बरक्‍स सोशल मीडिया का परिदृश्‍य कुछ बेहतर है। सोशल मीडिया पर घटिया और छिछले कार्टूनों के साथ ही कई बार स्‍तरीय और गहरी मार वाले राजनीतिक-बौद्धिक कार्टून भी देखने को मिल जाते हैं। प्राय: इन्‍हें बनाने वाले अल्‍पज्ञात युवा कार्टूनिस्‍ट होते हैं। सोशल मीडिया भी कुल मिलाकर शासक वर्ग के राजनीतिक-वैचारिक-सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व का ही उपकरण है, लेकिन इस नयी तकनोलॉजी आधारित मीडिया क्षेत्र की विशेषता यह है कि शासक वर्ग इसे एकदम मनमाने ढंग से नियंत्रित नहीं कर सकता है और प्रगतिकामी शक्तियाँ भी यहाँ यथाशक्ति स्‍पेस घेरने-कब्जियाने की कोशिश करती रह सकती हैं। सेंसर और अभिव्‍यक्ति-अवरोधन की कोशिशें  यहाँ होती रहती हैं और उनकी काट भी ढूँढ़ी जाती रहती हैं।
बुर्जुआ राज, समाज और संस्‍कृति की राजनीतिक कार्टूनों के माध्‍यम से आलोचना करने की गुंजाइश सोशल मीडिया के अतिरिक्‍त आम जनता की वैकल्पिक मीडिया के रूप में संगठित जनपक्षधर पत्र-पत्रिकाओं में ही आज बची हुई है। शंकर, लक्ष्‍मण, अबू, कुट्टी, विजयन, पुरी, काक आदि के राजनीतिक कार्टूनों के पीछे अलग-अलग रूपों में बुर्जुआ आलोचनात्‍मक यथार्थवादी दृष्टिकोण सक्रिय था। आज इस विधा का नवोन्‍मेष समाजवादी यथार्थवादी आलोचनात्‍मक दृष्टि से ही सम्‍भव है।

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