-- कविता कृष्णपल्लवी
ज़िन्दगी भर व्यक्तित्व का कुचला जाना, चूल्हे -चौकठ की गुलामी, पढ़ी-लिखी होने और आर्थिक स्वावलम्बन के बावजूद मर्द के पैरों तले दबकर व्यक्तित्वहीन दासी बनकर जीना, जाति और धर्म के बाहर प्रेम करने या जीवन साथी चुनने की हिमाकत करने पर जलाकर मार दिया जाना, फाँसी या ज़हर दे दिया जाना, सिर्फ प्रेम करने की आज़ादी पर ही नहीं, पहनने-ओढ़ने, सड़क पर निकलने, पार्कों में घूमने तक पर धर्म, समाज और नैतिकता के ठेकेदारों द्वारा तामील की गयी सजायें झेलना, प्रेम प्रस्ताव ठुकराने पर एसिड से चेहरा जला दिया जाना, घर के बाहर (और भीतर भी) हमेशा बर्बर यौन हिंसा की आशंका में मर-मर कर जीना... -- स्त्री के सामने यदि एक विकल्प यह हो और दूसरा विकल्प हो जन्म लेने से पहले गर्भ में ही मार दिया जाना, तो कहना मुश्किल है कि कौन बेहतर विकल्प होगा। जीवन भर घुट-घुटकर जीने, यानी तिल-तिल मरते रहने से तो शायद गर्भ में ही मार दिया जाना बेहतर है।
'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' वास्तव में एक मर्दवादी चिन्ता से पैदा हुआ अभियान है। यदि बेटियाँ इसतरह कम होती रहीं तो बेटों के लिए बहू कहाँ से आयेगी, कुलदीपक कौन पैदा करेगा, वंश कैसे चलेगा? जो धार्मिक कट्टरपंथी औरतों पर सबसे अधिक बंदिशें लगाते हैं और सबसे अधिक जुल्म ढाते हैं, उन्हीं की राजनीतिक पार्टी 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' अभियान चला रही है, ठीक वैसे ही जैसे वह 'गौ रक्षा आन्दोलन' चलाती है। औरतें इन धर्मध्वजाधारियों के लिए उपयोगी पशु से अधिक और कुछ भी नहीं हैं। इस ''उपयोगी पशु'' की जनसंख्या में कमी से वे चिन्तित हैं। हरियाणा में औरतों की कमी की वजह से जाट किसानों को बंगाल और छत्तीसगढ़ से गरीब घरों की लड़कियाँ ख़रीदकर लानी पड़ रही हैं, ताकि वंश चले। दूसरी ओर खाप पंचायतें जाति बाहर या समान गोत्र में शादी करने पर अपनी लड़कियों का गला रेत देने या सरेआम फाँसी दे देने का फरमान सुनाती हैं।
औरतों के सामने प्रश्न सिर्फ बेटियों को बचाने का नहीं, उनकी मौत से भी बदतर गुलामी की ज़िन्दगी से बचाने का है। औरतों की सामाजिक आज़ादी के आन्दोलन के बिना बेटी बचाने के आन्दोलन को कोई मतलब नहीं है। जबतक औरतें सामाजिक रूप से स्वतंत्रता और बराबरी नहीं हासिल कर लेंगी, तब तक लाख प्रचार के बावजूद भ्रूण हत्याएँ होती रहेंगी। और यदि वे रुक भी जायें या कम भी हो जायें, तो बेबस गुलामी और बर्बर उत्पीड़न भरी ज़िन्दगी मौत से भला किन अर्थों में बेहतर कही जा सकती है!
गर्भ में ही हत्या या नारकीय गुलामी -- इन दो विकल्पों के अतिरिक्त एक तीसरा उन्मोचक विकल्प भी है, और वह है, संगठित होकर सिर से पाँव तक सड़ चुके वर्तमान सामाजिक ढाँचे के खिलाफ बगावत कर देना। मुक्ति के लिए लड़ना अपने आप में एक हद तक मुक्ति हासिल कर लेने जैसा है। मुक्ति के लिए समर्पित युयुत्सु जीवन मुक्त जीवन जैसा ही सुखद अहसास देता है।
स्त्रियों को एकजुट होकर तमाम मध्ययुगीन और आधुनिक बर्बरताओं के विरुद्ध एक प्रचण्ड वेगवाही सामाजिक-सांस्कृतिक तूफान चलाना होगा। उन्हें औरत की गुलामी और पुरुष वर्चस्व के सबसे मजबूत खम्भों -- धार्मिक कट्टरता और जाति-व्यवस्था के विरुद्ध डटकर खड़ा होना होगा, प्रेम और विवाह के मामले में, चुनाव की निजी आज़ादी का डटकर इस्तेमाल करना होगा। पर यह लड़ाई तभी आगे बढ़ सकती है जब यह पुरुष-वर्चस्ववाद तथा धर्म और जाति की राजनीति की बुनियाद -- यानी उस पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के विरुद्ध केन्द्रित हो, जिसने अपने हित साधन के लिए तमाम मध्ययुगीन सामंती बर्बरताओं को अपना लिया है। पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष तभी कारगर हो सकता है, जब वह तमाम शोषित-उत्पीड़ित मेहनतक़शों के क्रांतिकारी संघर्ष के साथ जुड़ जाये। स्त्री-मुक्ति का प्रश्न सामाजिक मुक्ति के व्यापक प्रश्न से जुड़ा हुआ है।
औरतों के सामने प्रश्न सिर्फ बेटियों को बचाने का नहीं, उनकी मौत से भी बदतर गुलामी की ज़िन्दगी से बचाने का है। औरतों की सामाजिक आज़ादी के आन्दोलन के बिना बेटी बचाने के आन्दोलन को कोई मतलब नहीं है। जबतक औरतें सामाजिक रूप से स्वतंत्रता और बराबरी नहीं हासिल कर लेंगी, तब तक लाख प्रचार के बावजूद भ्रूण हत्याएँ होती रहेंगी। और यदि वे रुक भी जायें या कम भी हो जायें, तो बेबस गुलामी और बर्बर उत्पीड़न भरी ज़िन्दगी मौत से भला किन अर्थों में बेहतर कही जा सकती है!
गर्भ में ही हत्या या नारकीय गुलामी -- इन दो विकल्पों के अतिरिक्त एक तीसरा उन्मोचक विकल्प भी है, और वह है, संगठित होकर सिर से पाँव तक सड़ चुके वर्तमान सामाजिक ढाँचे के खिलाफ बगावत कर देना। मुक्ति के लिए लड़ना अपने आप में एक हद तक मुक्ति हासिल कर लेने जैसा है। मुक्ति के लिए समर्पित युयुत्सु जीवन मुक्त जीवन जैसा ही सुखद अहसास देता है।
स्त्रियों को एकजुट होकर तमाम मध्ययुगीन और आधुनिक बर्बरताओं के विरुद्ध एक प्रचण्ड वेगवाही सामाजिक-सांस्कृतिक तूफान चलाना होगा। उन्हें औरत की गुलामी और पुरुष वर्चस्व के सबसे मजबूत खम्भों -- धार्मिक कट्टरता और जाति-व्यवस्था के विरुद्ध डटकर खड़ा होना होगा, प्रेम और विवाह के मामले में, चुनाव की निजी आज़ादी का डटकर इस्तेमाल करना होगा। पर यह लड़ाई तभी आगे बढ़ सकती है जब यह पुरुष-वर्चस्ववाद तथा धर्म और जाति की राजनीति की बुनियाद -- यानी उस पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के विरुद्ध केन्द्रित हो, जिसने अपने हित साधन के लिए तमाम मध्ययुगीन सामंती बर्बरताओं को अपना लिया है। पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष तभी कारगर हो सकता है, जब वह तमाम शोषित-उत्पीड़ित मेहनतक़शों के क्रांतिकारी संघर्ष के साथ जुड़ जाये। स्त्री-मुक्ति का प्रश्न सामाजिक मुक्ति के व्यापक प्रश्न से जुड़ा हुआ है।
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