-- कविता कृष्णपल्लवी
अजी, वो ज़माना गुज़र गया जब कविता-कहानी लिखने वाले दो जून की रोटी नहीं जुगाड़ पाते थे और मुफ़लिसी की ज़िन्दगी बसर करते खुदा को प्यारे हो जाते थे। आज ''साहित्य-वाहित्य करने वालों'' को साहित्यिक पत्रिकाओं से पारिश्रमिक के तौर पर या प्रकाशकों से रॉयल्टी के तौर पर भले ही उतनी ही रकम मिलती हो जितनी दरियागंज में कोई रेहड़ी-खोमचे वाला भी दिनभर में कमा लेता है, लेकिन कुछ सालों के 'स्ट्रगल' और जोड़-जुगाड़ के बाद साहित्य की मण्डी में खोखा-ठेली सजा चुके लोग किसी प्रकाशक या मीडिया घराने की चाकरी करके, प्राध्यापकी करके, फ्रीलांस अनुवादक-सम्पादक जैसा काम करके या सरकारी अफसरी करके दिल्ली-भोपाल जैसी जगहों पर एक अदद अपार्टमेण्ट और सुख-सुविधा के ज़रूरी संरजाम तो जुटा ही लेते हैं। जो कथित वामपंथी हैं, वे इस मामले में पीछे नहीं, बल्कि दो कदम आगे ही हैं। अब जाकर इस शेर का मर्म समझ आता है:
''लोग कहते हैं कि फ़न्ने शाइरी मनहूस है
शेर कहते-कहते मैं डिप्टी कलेक्टर हो गया।''
जैसे ज़िन्दगी में कुछ निश्चिन्तता आती है, गढ़ और मठ बनाने और साहित्यिक उखाड़-पछाड़ की सरगर्मियाँ बढ़ जाती हैं। जब बालों में चाँदी के तार चमकने लगते हैं, तबतक तो ड्राइंग रूम में कई प्रशस्ति पत्र और तमगे सज जाते हैं। केन्द्र और राज्यों की सरकारें और कई पूँजीपति घराने सालाना दर्जनों-दर्जनों लखटकिया पुरस्कार, सम्मान और वजीफे दे रहे हैं। अन्य देशों से सांस्कृतिक सम्बन्ध प्रगाढ़ बनाने के लिए और वैश्विक साहित्य सम्पदा से भारतीय भाषाओं को समृद्ध करने के लिए विदेश यात्रा करने वाले लेखकों के अवदानों को इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज किया जायेगा। सरकार और पूँजीपतियों के बाद इधर एन.जी.ओ. वालों को भी साहित्यकारों और साहित्य की अहमियत समझ में आ गयी है। इन तमाम ऐतिहासिक महत्व की सरगर्मियों के बीच साहित्य के अधिकांश विद्या-वारिधियों और शिरोमणियों को देश के राजनीतिक क्षितिज पर छाते फासिस्टी अंधकार और जनसमुदाय की बढ़ती तबाही-बरबादी के बारे में फिर भी कभी-कभी सोचने का समय मिल ही जाता है। फिर वे कोई कविता लिख देते हैं या कोई टिप्पणी। निर्भीकता इतनी कि कभी-कभी तो कोई बयान भी दे देते हैं। या फिर मण्डी हाउस, आई. आई. सी., आई. एच. सी., किसी ''विरोध समारोह'' या ''विक्षोभ उत्सव'' में भी शामिल होने चले जाते हैं। क्या बात है! कितना मर्मस्पर्शी जन सरोकार है! अपनी कलम की बदौलत जेल और जुर्माने का जोखिम उठाने वाले और ज़िन्दगी भर मुफ़लिसी और गुर्बत में जीने वाले हमारे पूर्वजों की आत्माएँ अपने इन वारिसों के कारनामों पर किस क़दर निहाल हो रही होंगी!
कमाई के नए तरीके तो निश्चित ही बढ़ गए हैं उनके लिए
ReplyDelete