-- कविता कृष्णपल्लवी
फेसबुक पर अक्सर लोग इस किस्म की पोस्ट्स डालते और शेयर करते रहते हैं कि त्रिपुरा के मुख्यमंत्री देश के सबसे ग़रीब मुख्य मंत्री हैं। एक आम नागरिक के जीवन से अलग जब हम किसी प्रतिनिधि राजनीतिक व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हैं तो इस बात कोई मतलब नहीं होता कि वह व्यक्ति निजी तौर पर कितना बेदाग या कितना भ्रष्ट है, कितना विलासी या कितना मितव्ययी जीवन जीता है, अथवा कितना सदाचारी या कदाचारी है। मुख्य पैमाना यह है कि उस व्यक्ति की विचारधारा और राजनीति क्या है और वह किन वर्गों की सेवा करती है। भाकपा के राजेश्वर राव माकपा के गोपालन, सुन्दरैया, नम्बूदरीपाद, वासवपुनैया आदि भी बेहद सादा जीवन बिताते थे और उनकी निजी छवि बेदाग, भ्रष्टाचारमुक्त थी, पर उनकी राजनीति सर्वहारा वर्ग से विश्वासघात की राजनीति थी। लोहिया, मधु लिमये, चरण सिंह जैसे बुर्जुआ नेता भी भ्रष्टाचार मुक्त थे और आज के कांग्रेसी नेता ए.के.एंटोनी की भी बेदाग छवि है। इससे कुछ भी तय नहीं होता। जब एक साफ-सुथरी छवि वाला आदर्शवादी व्यक्ति गलत राजनीति का प्रतिनिधि, प्रवक्ता या सिद्धान्तकार होता है तो उसका प्रभाव और अधिक खतरनाक होता है क्योंकि वह जनता में अधिक भ्रम पैदा करता है। व्यवस्था के असाध्य संकट और बुर्जुआ राजनीति की बढ़ती पतनशीलता के दौर में अब बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि बौद्धिक दिवालिया, लुच्चे-लफंगे, बलात्कारी-गुण्डे, भाँड़-भँड़ुक्के, दलाल-ठेकेदार वगैरह होने लगे हैं। लेकिन जब बुर्जुआ जनवाद इसकदर संकटग्रस्त नहीं था तो बुर्जुआ राजनीतिज्ञ, विचारधारा-निरूपक और सिद्धान्तकार भी अपने उसूलों के पाबंद और निजी जीवन में भ्रष्टाचार-कदाचारमुक्त जिम्मेदार बुर्जुआ नागरिक हुआ करते थे, लेकिन वर्ग संघर्ष में वे प्रतिक्रिया के पक्ष के ही सेनापति होते थे और उनकी राजनीतिक भूमिका उतनी ही प्रतिक्रियावादी हुआ करती थी, बल्कि ज्यादा ख़तरनाक हुआ करती थी। यही बात संशोधनवादियों के बारे में भी कही जा सकती है, क्योंकि जैसा लेनिन ने कहा था, संशोधनवाद समाजवादी खोल में बुर्जुआ अन्तर्वस्तु से भिन्न और कुछ भी नहीं है।
एक बुर्जुआ राजनीतिज्ञ निजी जीवन में भ्रष्ट हो सकता है और सदाचारी भी। लेकिन एक सर्वहारा क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ अपने निजी जीवन में भी यदि भ्रष्ट और कदाचारी है, तो कालान्तर में उसकी राजनीति भी कुमार्गी होकर पतित हो जायेगी। मार्क्सवाद एक जीवन दृष्टि है और हमारे समस्त निजी एवं सामाजिक आचरण का वैज्ञानिक पथ प्रदर्शक है। यदि एक कम्युनिस्ट का निजी जीवन और आचरण सुसंगत तौर पर, सचेतन तौर पर उसकी विचारधारा के अनुरूप नहीं है तो कालांतर में उसकी राजनीति भी उसकी विचारधारा के अनुरूप नहीं रह जायेगी। अत: कम्युनिस्टों के बारे में यह बात नहीं लागू होती कि उनका निजी जीवन चाहे जैसा भी हो, राजनीति सही होनी चाहिए।
एक कम्युनिस्ट वर्ग समाज से निरंतर अन्तर्किया करते हुए उसे प्रभावित करता है और उससे प्रभावित भी होता है। इसके कारण पार्टी में लगातार स्वत:स्फूर्त गति से राजनीति के अतिरिक्त लोगों के व्यक्तिगत आचरण-व्यवहार में भी विजातीय प्रवृत्तियाँ और रुझानें घुसपैठ करती रहती हैं और लगातार सचेतन सामूहिक क्रांतिकारी चौकसी और साफ-सफाई एवं दोष-निवारण के तौर-तरीके अपनाने पड़ते हैं। सम्पत्ति सम्बन्धों से विछिन्न, समतावादी स्पिरिट से लैस (निरपेक्ष समानतावादी नहीं) अधिकतम सम्भव सामूहिक जीवन, मेहनतक़श जनता के बीच अधिकतम सम्भव एकरूप होकर जीना, आलोचना-आत्मालोचना, दोष निवारण अभियान आदि वे तौर-तरीके हैं जिनके जरिए एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी राजनीति से और पार्टी के अन्दरूनी जीवन से बुर्जुआ प्रदूषणों का शोधन करती रहती है। कम्युनिस्ट व्यक्तित्वांतरण कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है, जो एक बार सम्पन्न सम्पन्न हो गयी तो फिर हो गयी। यह जीवनपर्यंत जारी रहती है क्योंकि स्खलन और पतन कहीं से भी हो सकता है। सावधानी हटी दुर्घटना घटी।
बहुतेरे साथियों के बुर्जुआ-निम्न बुर्जुआ पृष्ठभूमि से आने के चलते (और मज़दूर साथी भी उनसे प्रभावित होते हैं) तथा पार्टी पर बुर्जुआ सामाजिक परिवेश के पड़ने वाले प्रभाव के चलते एक क्रांतिकारी पार्टी के भीतर भी प्राय: लोगों में व्यक्तिवाद, कैरियरवाद, बौद्धिक श्रेष्ठता का गुरूर और दिखावा, गुटपरस्ती, कुनबापरस्ती आदि की विजातीय प्रवृत्तियाँ पैदा होती रहती हैं। जो पार्टी इनके विरुद्ध सतत् सचेतन चौकसी नहीं बरतती और मुहिम नहीं चलाती, कालांतर में उसका बेड़ा गर्क होकर ही रहता है। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के दौरान पार्टी के भीतर के पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध (पहले ल्यू शाओ-ची के गुट और फिर लिन प्याओ के गुट के विरुद्ध) संघर्ष चलाते हुए इन विजातीय प्रवृत्तियों के विरुद्ध भी लगातार लम्बा संघर्ष चलाया गया, जिसका एक दिलचस्प इतिहास है। 'स्व के विरुद्ध संघर्ष करो', 'लाइम-लाइट मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष करो', 'तरक्की के लिये या नेता बनने के लिए पार्टी में भर्ती होने की मानसिकता का विरोध करो' आदि -- इन बहुचर्चित नारों से यह संकेत मिलता है कि पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष के दौर में व्यक्तिवाद और कैरियरवाद की तमाम खुली-ढँकी प्रवृत्तियों के विरुद्ध सतत् समझौताहीन संघर्ष पर कितना अधिक बल दिया गया था। वैसे माओ के पार्टी जीवन शैली-कार्यशैली विषयक लेखन के एक बड़े हिस्से में इन बातों पर काफी जोर दिया गया है। पार्टी नौकरशाही और कैरियरवाद की प्रवृत्तियों को स्तालिन ने भी रेखांकित किया था और सूत्रवत् लेनिन ने भी। माओ के सामने चूँकि अतीत का एक लम्बा अनुभव-पटल था और वे एक पिछड़े समाज में क्रांति करने वाली पार्टी को नेतृत्व दे रहे थे, इसलिए कम्युनिस्ट जीवन शैली और पार्टी के भीतर पैदा होने वाली विजातीय प्रवृत्तियों पर उन्हें ज्यादा बल देकर और ज्यादा तिखार-तिखारकर लिखना पड़ा।
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