Tuesday, November 18, 2014

समकालीन हिन्‍दी कविता की मुख्‍य धारा: कुछ नोट्स


-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

(1)

जिनकी जिन्‍दगी में कविता की धड़कनें और थरथराहटें होती हैं, उनकी कविता में जिन्‍दगी की धड़कनें और थरथराहटें महसूस होती हैं।
जो जिन्‍दगी में समाज की सारी भौतिक सम्‍पदा का उत्‍पादन करने वाले शोषित-उत्‍पीड़ि‍त जनों के साथ हैं, उन्‍हीं की कविता में उद्वेग का उत्‍ताप होता है, स्‍मृतियों का आग्रह होता है, स्‍वप्‍नों का सौन्‍दर्य होता है, आह्वान की आग होती है और उम्‍मीदों को ऊष्‍मा होती है। बाकी सब पाखण्‍ड है, क्षणिक कौंध है, ऊपरी रंगरोगन है, दिखावटी जनपक्षधरता का छलछद्म है, कलावाद की 'माया महाठगिनी' है, निरर्थकता की अभ्‍यर्थना है, अकर्मण्‍यता का विमर्श है, पुंसत्‍वहीन भिनभिन-भुनभुन है, और कुछ नहीं, कुछ भी नहीं।


(2)

आँसू, खून, पसीना, आग, पानी, लोहा, मिट्टी, मृत्‍यु, हार, जीत, राख, थकावट, ताजगी, प्‍यार, बेवफाई, नफरत, पत्‍थर, कुहासा, रोशनी, अँधेरा, दोस्‍ती, विश्‍वासघात, रंग, सपने, स्‍मृति, विस्‍मृति आदि-आदि चीजों को कविगण बटोर लाते हैं, अपने-अपने तरीकों से उन्‍हें मिलाते हैं, गूँथते हैं, गलाते हैं, ढालते हैं, छानते हैं, निथारते हैं, तमाम-तमाम रहस्‍यमय रासायनिक प्रक्रियाओं से गुजारते हैं और फिर अपने-अपने ढंग की कविताएँ बनाते हैं। इस कीमिया‍गीरी के बेशक कुछ आम नियम होते हैं, लेकिन व्‍यक्तिगत समझ, हुनर, अनुभव, कौशल  की विशिष्‍टता उनसे कहीं अधिक महत्‍वपूर्ण होती है। हर सच्‍ची कविता मौलिक और विशिष्‍ट होती है। नकल करके और प्रभाव-छायाओं तले रची कविताएँ फूहड़, उबाऊ, या प्रहसनात्‍मक होती हैं। कविता में मौलिक और साहसी वही होता है, जो जीवन में मौलिक और साहसी होता है। कविता लिखने के लिए अपने भीतर एक बच्‍चे को सदा जीवित रखना होता है और एक अड़‍यिल योद्धा को भी। कविता लिखने के लिए जीवन से कविता के अपहर्त्‍ताओं की पहचान करनी होती है और उनके खिलाफ खड़ा होना होता है। इतिहास के अंधड़ में बनी-ठनी, सजी-सँवरी, छैल-छबीली कविताएँ कुछ दशकों बाद उड़ जाती हैं और जीवन भार से लदी-फदी कविताएँ स्‍मृतियों, स्‍वप्‍नों और दिनचर्या में शिलालेखों के समान बची रह जाती हैं।


(3)

ठण्‍डे दिलों वाले हिसाबी-किताबी लोग भावुक और संवेदनशील होने का नाटक जितनी अधिक कुशलता से खेल लेते हैं, वे उतने ही अधिक खतरनाक होते जाते हैं। बाजार के हिसाब से कविता लिखने वाले सफल सयाने कवि कोई भी सुराग न छोड़ने वाले कुशल हत्‍यारे से भी अधिक डरावने लगते हैं। निर्बंध बाजार की जादुई शक्ति ने बहुतेरे कवियों को भी सट्टेबाजों और 'पॉवर ब्रोकर्स' की कतार में ला खड़ा किया है। सत्‍ता के संस्‍कृति केंद्रों और संस्‍कृति के सत्‍ता केंद्रों में भी 'क्रोनी कैपिटलिज्‍म' जैसी चीज हावी हो चुकी है।


(4)

कविता में समस्‍त मानवता के लिए दु:खी-चिन्तित और उदास दिखने वाले सूफियाना मिजाज़ वाले कवि मुझे तो चालाक और पाखण्‍डी जान पड़ते हैं। जहाँ कुछ मनुष्‍य ही सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों के रूप में मानवता के शत्रु हैं, जहाँ पूँजी की अंधी हवस पृथ्‍वी पर बहुसंख्‍यक जनों के ऊपर दिनरात हाड़तोड़ मेहनत, नर्क के तहखानों जैसी जिन्‍दगी, भुखमरी, बीमारी आदि-आदि के रूप में जुल्‍म की बरसात कर रही है और थोड़े से लोगों को तरह-तरह के वैभव-विलास के सरंजाम मुहैया करा रही है, वहाँ कविता से बेहद कलात्‍मक तराश के साथ आध्‍यात्मिक चिन्‍ताओं एवं सौन्‍दर्य-मीमांसाओं के बजाय मुखर होकर पक्ष लेने का आग्रह तो किया ही जाना चाहिए। समाज की तमाम कुरूपताओं को ''कुरूप'' क्रान्तियों से ही दूर किया जा सकता है और ''कुरूप'' कविताएँ ही ऐसे समय में ज़रूरी औजारों या रोजमर्रे की जिन्‍दगी में बरते जाने वाले सामानों की तरह काम आयेंगी।
अक्‍सर पाया जाता है कि कविता में जो कवि बहुत दु:खी, उदास, खिन्‍न, अन्‍यमनस्‍क और अतिसंवेदनशीलता के कारण मनुष्‍यता के तमाम दुखों को लेकर अवसादग्रस्‍त मुद्रा में दीखते हैं, जिन्‍दगी में वे व्‍यवस्थित, सुरक्षित, पुरस्‍कृत, सुविधा सम्‍पन्‍न और नितान्‍त व्‍यावहारिक होते हैं, यहाँ तक कि कई बार हिसाबी-किताबी, दंद-फंदी और तिकड़मी भी होते हैं।
जब लोगों के लिए जीवन विकट हो गया हो तो भाषाई खिलंदड़ापन कितना घिनौना लग सकता है, इसे सुधीश पचौरी की टिप्‍पणियों को पढ़कर जाना जा सकता है, शालीन-कुलीन-निष्‍कलुष कला-साहित्‍य विमर्श और प्रकृति वर्णन कितने शातिर और बेरहम लगते हैं, इसे अशोक बाजपेयी की अखबारी टिप्‍पणियों और प्रयाग शुक्‍ल के यात्रा-वृत्‍तांतों को पढ़कर जाना जा सकता है। प्रकाशकों के भव्‍य आयोजनों में पुस्‍तक-विमोचनों, पुरस्‍कार एवं सम्‍मान समारोहों में उपस्थित सुखी-संतुष्‍ट चेहरे बताते हैं कि साहित्‍य की दुनिया किस कदर गम्‍भीर रूप से बीमार है। कविता अपने समय-समाज से कटकर कितनी पाखण्‍डी और विकर्षक हो सकती है, यह हिन्‍दी कविता की मुख्‍य (चालू) धारा को देखकर ही समझा जा सकता है।


(5)

जिन्‍दगी से दूर कला-साधना और विमर्श में तल्‍लीन सांस्‍कृतिक अवधूतों-कापालिकों के लिए गोर्की, लू शुन, नाजिम हिकमत, मयाकोवस्‍की, ब्रेष्‍ट, तो हू, लैग्‍स्‍टन ह्यूज, निकोलस गीयेन आदि-आदि की मुखर पक्षधरता और आह्वान की भाषा पुरानी, घिसी-पिटी, नारेबाजी जैसी और ''कम कलात्‍मक, ज्‍यादा राजनीतिक'' लगती है। अधिकांश वामपंथियों को भी इनदिनों कुछ रहस्‍यमय-रहस्‍यमय, जादुई-जादुई चीजों से ज्‍यादा ही लगाव हो गया है। जिन्‍दगी की जो सच्‍चाइयाँ, जो  दु:ख-दर्द, जो विडम्‍बनाएँ, जो त्रासदियाँ एकदम स्‍थूल, एकदम नग्‍न, एकदम स्‍पष्‍ट हैं, उन्‍हें जादुई चमत्‍कारिक रहस्‍यमय ढंग से प्रस्‍तुत करना ही श्रेष्‍ठ कला का प्रतिमान माना जाने लगा‍ है। बाकी सब को प्रकृतवाद, राजनीतिक वाचालता या वर्ग-अपचयनवाद कह कर खारिज कर दिया जाता है। सहज सम्‍प्रेषणीय के सौन्दर्य को अस्‍वीकार कर दिया जाता है। सहज सम्‍प्रेषणीय के अपने रूपक और बिम्‍ब होते हैं, वह हमेशा सपाटबयानी का पर्याय नहीं होता। जो जनता की जिन्‍दगी के करीब नहीं है, उसके लिए उसके बारे में अमूर्त रहस्‍यमय जादुई भाषा में ही लिखना सुविधाजनक लगता है। वह जनता के जीवन-संघर्ष-सृजन के मर्म को स्‍पष्‍ट शब्‍दों में साहित्यिक-कलात्‍मक अभिव्‍यक्ति दे ही नहीं सकता, क्‍योंकि उसके बारे में उसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं होती। जनता उसके लिए एक अमूर्त प्रत्‍यय है, जिसके बारे में उसकी जानकारी या तो सुनी-सुनाई या मीडिया-प्रेषित है, या एन.जी.ओ. के सर्वेक्षणों-रिपोर्टों से प्राप्‍त है, या राह चलते देखे गये दृश्‍यों का संयोजन है या अतीत के अनुभवों के आधार पर अनुमानित है।
न जाने किसने कहाँ लिखा था पर ठीक ही लिखा था कि राजधानी में संस्‍कृति के सभी भव्‍य प्रासाद कुत्‍तों के गू की ढेरी पर खड़े हैं।


(6)

कविता यदि हालात का आतंककारी और अप्रतिरोध्‍य चित्र प्रस्‍तुत करती हो, प्रतिरोध की निरर्थकता दर्शाती हो, परिवर्तन, सामाजिक क्रांतियों और उनकी उपलब्धियों को निस्‍सार    या आभासी या अल्‍पजीवी बताती हो, उनके पतन-विघटन को त्रासद अपरिहार्यता बताती हो, हर चीज के प्रति सर्वनिषेधी या संशयवादी रवैया अपनाती हो, मध्‍यवर्गीय निरुपायता और कातरता का कलात्‍मक आख्‍यान रचती हो, निर्मम मानवद्रोही स्थितियों-प्रवृत्तियों के प्रति खिलंदड़ी या पिनपिनाहट भरी आलोचना का रुख अपनाती हो, शान्ति और मानवता की मार्मिक गुहार लगाते हुए प्रकारांतर से हर प्रकार के संघर्ष की व्‍यर्थता प्रमाणित करती हो, हरदम निस्‍संग संतमुद्रा में रहती हो, मनुष्‍यों को छोड़ मिट्टी के ढेले और गिरे हुए पत्‍ते का दु:ख बखानती हो, अर्द्धरात्रि में एक पक्षी की आवाज या हारमोनियम की तान सुनती हो, जीवन-संघर्ष-सृजन के हर महाख्‍यान को संशय, वितृष्‍णा या परिहास की मुद्रा में खारिज करती हुई सिर्फ लघुता के क्षुद्र आख्‍यानों को ही यथार्थ का कलात्‍मक परावर्तन  सिद्ध करती हो, जीवन के तुमुल कोलाहल-कलह से दूर एकान्‍त में मौन की आवाज सुनने का निमंत्रण  देती हो; तो वह इन दिनों विशेष तौर पर समादृत और चर्चित होती है। उसे कलात्‍मक प्रगतिशील कविता कहा जाता है। ''सुधी'' और ''विज्ञ'' आलोचक पीठ ठोंककर कवि को रेंड़ के पेड़ पर चढ़ा देते हैं। कलावाद और जनपक्षधरता के बीच की दीवार गिरने पर यूँ आनन्‍दोत्‍सव मनाया जा रहा है जैसे बर्लिन की दीवार गिरने पर मना था। बर्लिन की दीवार खड़ी हुई थी समाजवादी और पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के बीच। लेकिन गिरने के समय उसके दोनों ओर मूलत: पूँजीवादी व्‍यवस्‍था ही थी: पूरब की ओर थी भ्रष्‍ट-निरंकुश संशोधनवादी सत्‍ता वाली समाजवादी मुखौटे वाली राजकीय इजारेदार पूँजीवादी व्‍यवस्‍था और पश्चिक की ओर थी निजी इजारेदार पूँजीवादी व्‍यवस्‍था। मुख्‍य धारा की हिन्‍दी कविता में भी गिरी हुई बर्लिन की दीवार के दोनों तरफ  सारत: एक ही चरित्र वाली कविता की दो प्रजातियाँ बची रह गयी थीं। सो इस दीवार को गिरना ही था।
फिलहाली तौर पर पराजित होते हुए भी, स्‍वप्‍न देखते, उम्‍मीद पालते, प्रयोगों की योजना बनाते, निर्मम आत्‍मालोचन करते लोगों की जिजीविषा, युयुत्‍सा, संवेदना और विवेक की कविताओं की धारा क्षीण भले ही हो गयी हो, लेकिन सतत् प्रवहमान है। उसका सौभाग्‍य है कि साहित्‍य के उस प्रदेश से उसे निर्वासित कर दिया गया है जहाँ की हवा, नदियों और भूमिगत जल तक में ज़हर घुल गया है और जैव विविधता नष्‍ट हो चुकी है। जिस शापित दण्‍डद्वीप पर उत्‍पीड़ि‍त संघर्षरत जनों के पक्ष में खड़ी कविता को काले पानी की सजा देकर भेज दिया गया है, वह धीरे-धीरे जीवन-संगीत से और सृजन के कोलाहल से भरने लगा है। भले ही कुछ समय लगे, लेकिन एक दिन ऐसा होगा ही कि मुख्‍य भूक्षेत्र और दण्‍डद्वीप के बीच का रिश्‍ता एकदम उलट जायेगा।

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