Tuesday, November 11, 2014

फासीवाद को लेकर कुछ और बातें (दो)



--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

फासीवाद की किसी भी किस्‍म को, उसके उदभव की जमीन, विकास के कारणों और व्‍यवहार को हम पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना, उसके संकटों और राजनीतिक अधिरचना के अध्‍ययन के द्वारा ही समझ सकते हैं और यह अध्‍ययन समाज-विशेष के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में और फिर विश्‍व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में होना ज़रूरी है। किसी एक चुनिन्‍दा फासीवादी व्‍यक्तित्‍व के निजी जीवन, आदतों, आचरण और मनोविज्ञान के अध्‍ययन के जरिए फासीवाद को समझने का अप्रोच और पद्धति गलत होती है। ठीक इसी तरह, आम तौर पर एक वर्गीय नजरिए से शत्रु वर्ग के प्रतिनिधि या नायक को कभी कभार मजाक या हमले का निशाना तो बनाया जा सकता है, लेकिन इसे एक आम प्रवृत्ति बना देने से फासीवाद-विरोधी संघर्ष का नुकसान ही होगा क्‍योंकि राजनीतिक प्रवृत्ति की जगह व्‍यक्ति ही प्रधान बन जायेगा।
लेकिन यह बात भी सच है कि फासीवादी राजनीतिक विचार को आत्‍मसात किये हुए खाँटी चरित्रों का एक विशेष मनोविज्ञान निर्मित हो जाता है। दुनिया के अग्रणी फासिस्‍ट व्‍यक्तित्‍वों के मनोविज्ञान के काफी दिलचस्‍प अध्‍ययन हुए हैं और सैनिक तानाशाहों और फासिस्‍टों के चरित्र कई औपन्‍यासिक कृतियों और कई फिल्‍मों में भी प्रभावशाली ढंग से उकेरे गये हैं।
आम तौर पर हम पाते हैं कि फासिस्‍ट व्‍यक्तित्‍व सनक की हद तक सुव्‍यवस्थित, सलीकापसंद होते हैं। वे हर दम सजे-धजे, बने-ठने रूप में ही अपने को प्रस्‍तुत करते हैं (चाहे वो मिलिट्री ड्रेस हो, सूट हो या डिज़ाइनर कुर्ता-जैकेट)। वे अपने अनौपचारिक रूप में, अनौपचारिक वेशभूषा में कभी भी लोगों के सामने नहीं आते। सहज मानवीय भावों के बहाव में कभी नहीं आते। उनका हँसना, मुस्‍कुराना, दु:खी दिखना -- सबकुछ 'कैल्‍कुलेटेड' होता है। उनकी भाषा अतिशय आलंकारिक होती है और प्राय: उसमें सैन्‍य आह्वान जैसी आक्रामकता होती है।
ब्रेष्‍ट या वाल्‍टर बेंजामिन ने कहीं कहा था कि 'राजनीति का सौन्‍दर्यीकरण एक फासीवादी उपक्रम है।' फासिस्‍टों की राजनीतिक शैली और भाषा भी कृत्रिम आलंकारिकता में उसी तरह लिथड़ी रहती है जैसे बदनाम गलियों की सस्‍ती वेश्‍याएँ पाउडर-क्रीम-लिपस्टिक की मोटी परतें चढ़ाये खड़ी रहती हैं और सस्‍ते परफ्यूम की सर चकराने वाली तेज गंध से गँधाती रहती हैं। फासिस्‍ट अपनी राजनीति को हमेशा अनुप्रास और अन्‍य अलंकारों और बाजारू रूपकों-बिम्‍बों से सजाकर पेश करते रहते हैं, मिथकीय प्रतीकों का खूब इस्‍तेमाल करते हैं, संस्‍कृति की बात-बात में दुहाई देते हैं और हर कुछ दिन बाद नये-नये नारे उछालते रहते हैं।
फासिस्‍ट बर्बर स्‍त्री-विरोधी होते हैं और स्त्रियों से सम्‍पूर्ण समर्पण और व्‍यक्तित्‍वहीनता का आग्रह उनमें प्राय: हिंसक सनक की हद तक होता है। इसलिए, जैसा कि कई संस्‍मरणों से संकेत मिलता है, फासिस्‍टों का यौन जीवन प्राय: रुग्‍ण और असामान्‍य किस्‍म का हुआ करता है।
इसी तरह फासिस्‍टों के मानसिक बनावट-बुनावट पर और भी चर्चा की जा सकती है और इसके कारणों की भी पड़ताल की जा सकती है कि किस प्रकार एक मानवद्रोही राजनीति का प्रतिनिधित्‍व करने वाले मानवद्रोही व्‍यक्तित्‍व इस समाज में तैयार होते हैं।
फासिस्‍टों की सनक की हद तक सलीकापसंदगी और औपचारिकता-प्रेम के बारे में सोचते  हुए मुझे अक्‍सर रमेश सिप्‍पी की एक पुरानी फिल्‍म 'शान' का खलनायक (जिसकी भूमिका कुलभूषण खरबंदा ने निभाई थी) याद आता है। रहस्‍यमय और भव्‍य स्‍थान पर यंत्रणा और मौत देने वाली खौफनाक स्‍वचालित मशीनों से घिरा हुआ, अपने गुर्गों की टेबुल से दूर उन मशीनों के बटनों से भरे पैनल वाली टेबुल के पीछे भव्‍य कुर्सी पर बैठा क्‍लीन शेव्‍ड, घुटे चिकने सिर वाला व्‍यक्ति, गले तक बंद बटन वाला सफेद बंद गले का कोट पहने हुए, बीच-बीच में मेज पर रखे सफेद रुमाल को सलीके से उठाकर होठों को  पोंछता हुआ और भारी आवाज में नपे-तुले शब्‍दों को चबा-चबाकर संवाद बोलता हुआ। उस चलताऊ मसाला फिल्‍म का यह चरित्रांकन मुझे काफी दिलचस्‍प लगता है (हो सकता है आइडिया किसी विदेशी फिल्‍म से उड़ाया गया हो)। सचमुच, अतिशय औपचारिकता और सुव्‍यवस्‍था एवं सलीके की सनक कभी-कभी डरावनी लगती है।
फासिस्‍ट डण्‍डा चलाकर सबकुछ ढर्रे पर ला देना चाहता है। वह समाज में गंदगी के बुनियादी कारणों पर सोचना गवारा तक नहीं करता, बस नारे देकर, कुछ रस्‍मी आयोजन करके सबकुछ अपने डिजाइनर ड्रेस या वर्दी की तरह साफ-सुथरा, व्‍यवस्थित कर देना चाहता है। जाहिर है कि उसकी हर ऐसी कोशिश जल्‍दी ही फुस्‍स हो जाती है और हर ऐसी नाकामी के बाद जनता के प्रति फासिस्‍ट की नफरत और अधिक बढ़ जाती है, उसका गुस्‍सा और अधिक गहरा हो जाता है।

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