Tuesday, November 11, 2014

फासीवाद को लेकर कुछ और बातें (एक)


-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

फासीवाद या किसी भी किस्‍म की निरंकुश स्‍वेच्‍छाचारी सत्‍ता के उदभव, विकास और व्‍यवहार को तभी समझा जा सकता है जब हम समाज-विशेष में पूँजीवादी विकास के संकट को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में विश्‍लेषित करें तथा पूरी सामाजिक आर्थिक संरचना का और राजनीतिक अधिरचना का सांगोपांग अध्‍ययन करें। प्रतिनिधि फासीवादी व्‍यक्तित्‍वों के व्‍यक्तिगत इतिहास, आचरण-व्‍यवहार और मनोविज्ञान के विश्‍लेषण को यदि प्रमुख निमित्‍त बनाया जाये, तो इसका निहितार्थ यह निकलेगा कि देश-विशेष में फासीवादी उभार का बुनियादी कारण व्‍यक्ति विशेष है, न कि पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्‍यवस्‍था का अन्‍तर्निहित संकट और उससे उपजी शासक वर्गों की राजनीतिक अपरिहार्यता। वस्‍तुगत परिस्थितियों का विश्‍लेषण करते हुए कुछ लोग भारतीय समाज के ताने-बाने में निहित प्राक् पूँजीवादी मूल्‍यों-संस्‍थाओं और राष्‍ट्रीय आंदोलन के इतिहास की नकारात्‍मक विरासत पर इतना बल देते हैं कि ऐसा लगता है मानो ये ही वस्‍तुगत चीजें धार्मिक कट्टरपंथी फासीवादी उभार के मूल कारक हैं, न कि पूँजीवादी व्‍यवस्‍था। इस तरह यह ठलुआ बौद्धिक नजरिया पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता और शासक वर्गों के बजाय ''पिछड़ी हुई'' ''निरंकुश प्राच्‍य समुदायों'' (खाप पंचायत, जाति संस्‍थाएँ आदि) में भरोसा करने वाली जनता और अभिशप्‍त इतिहास को  समस्‍त ''पापों'' के लिए जिम्‍मेदार ठहरा देता है। नतीजा? नतीजा यह निकलता है कि जनता को प्र‍बुद्ध बनाने के लिए ''आधुनिकता की अधूरी परियोजना'' को पूरा करने में, एक नया बुर्जुआ 'एनलाइटेनमेण्‍ट' लाने के द्रविड़ प्राणायाम में और बादरायण चेष्‍टा में जुट जाओ, फासिस्‍टों के विरुद्ध मुठभेड़ की तैयारी की चुनौतियों और जोखिमों से बचकर सुधारपरक सांस्‍कृतिक-सामाजिक कार्रवाइयों और बौद्धिक जुगालियों से जुटे रहो। यह परले दरजे का सामाजिक-जनवादी नज़रिया तो है ही, मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी कायरतापूर्ण अवसरवादी सुरक्षावाद भी है।

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