-- कविता कृष्णपल्लवी
फारवर्ड प्रेस पर पुलिस के छापे और ज.ने.वि. में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन के दौरान हिन्दुत्ववादी गुण्डों के उत्पात की जितनी भी भर्त्सना की जाये, कम है। सत्ता और फासिस्ट वाहिनियाँ एक साथ मिलकर अभिव्यक्ति की आजादी को कुचल रही हैं। इनका संगठित प्रतिरोध जरूरी है।
ं। हिन्दुत्ववाद प्राय: पौराणिक मिथकों और प्रतीकों का इस्तेमाल अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिए करता है। इसके प्रतिकार की यह रणनीति कहाँ तक उचित है कि मिथकीय नायक निर्माण और प्रतीक-पूजा का जवाब भी मिथकीय नायक निर्माण और प्रतीक पूजा से ही दिया जाये? इससे समस्या और संघर्ष के बुनियादी मुद्दे दृष्टि ओझल हो जाते हैं और 'नान इश्यू' 'इश्यू' बन जाते हैं। मिथकों और धार्मिक प्रतीकों की राजनीति का जवाब इतिहास की वैज्ञानिक समझ की राजनीति ही हो सकती है। मिथकों की विज्ञान सम्मत ऐतिहासिक व्याख्या की जानी चाहिए, न कि उनके बरक्स प्रति-मिथकों का निर्माण। दुर्गा और महिषासुर दोनों ही मिथकीय चरित्र हैं। उनके संघर्ष की मिथकीय गाथा के पीछे के युगीन सामाजिक यथार्थ की पड़ताल हमारा लक्ष्य होना चाहिए। निश्चय ही, देवासुर संग्राम की सभी पुराण कथायें युग विशेष के सामाजिक संघर्षों का ही साहित्यिक परावर्तन है, जिनमें रचनाकारों की अपनी पक्षधरता विजयी देवताओं के साथ दीखती है। ये रचनाकार ब्राह्मण धर्म के सूत्रधार थे, यह ही लगभग तय है। साथ ही, इतिहास ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जाति नस्ल नहीं होती और यह भी नहीं माना जा सकता कि आज की दलित जातियाँ या शूद्र जातियाँ पुराणों में वर्णित असुरों की ही संतानें हैं। जाति-व्यवस्था के संस्तरों में काफी कुछ ऊपर-नीचे होता रहा है और समावेशन तथा बहिगर्मन भी होते रहे हैं।
फारवर्ड प्रेस पर पुलिस के छापे और ज.ने.वि. में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन के दौरान हिन्दुत्ववादी गुण्डों के उत्पात की जितनी भी भर्त्सना की जाये, कम है। सत्ता और फासिस्ट वाहिनियाँ एक साथ मिलकर अभिव्यक्ति की आजादी को कुचल रही हैं। इनका संगठित प्रतिरोध जरूरी है।
ं। हिन्दुत्ववाद प्राय: पौराणिक मिथकों और प्रतीकों का इस्तेमाल अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिए करता है। इसके प्रतिकार की यह रणनीति कहाँ तक उचित है कि मिथकीय नायक निर्माण और प्रतीक-पूजा का जवाब भी मिथकीय नायक निर्माण और प्रतीक पूजा से ही दिया जाये? इससे समस्या और संघर्ष के बुनियादी मुद्दे दृष्टि ओझल हो जाते हैं और 'नान इश्यू' 'इश्यू' बन जाते हैं। मिथकों और धार्मिक प्रतीकों की राजनीति का जवाब इतिहास की वैज्ञानिक समझ की राजनीति ही हो सकती है। मिथकों की विज्ञान सम्मत ऐतिहासिक व्याख्या की जानी चाहिए, न कि उनके बरक्स प्रति-मिथकों का निर्माण। दुर्गा और महिषासुर दोनों ही मिथकीय चरित्र हैं। उनके संघर्ष की मिथकीय गाथा के पीछे के युगीन सामाजिक यथार्थ की पड़ताल हमारा लक्ष्य होना चाहिए। निश्चय ही, देवासुर संग्राम की सभी पुराण कथायें युग विशेष के सामाजिक संघर्षों का ही साहित्यिक परावर्तन है, जिनमें रचनाकारों की अपनी पक्षधरता विजयी देवताओं के साथ दीखती है। ये रचनाकार ब्राह्मण धर्म के सूत्रधार थे, यह ही लगभग तय है। साथ ही, इतिहास ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जाति नस्ल नहीं होती और यह भी नहीं माना जा सकता कि आज की दलित जातियाँ या शूद्र जातियाँ पुराणों में वर्णित असुरों की ही संतानें हैं। जाति-व्यवस्था के संस्तरों में काफी कुछ ऊपर-नीचे होता रहा है और समावेशन तथा बहिगर्मन भी होते रहे हैं।
धार्मिक प्रतीकों का जवाब धार्मिक प्रतीकों से देना वैसा ही है जैसे पुराने धर्म की जगह नया धर्म पैदा करना या अपनाना। इससे सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे के जिन्दा सवाल दृष्टि ओझल हो जाते हैं। इन प्रतीकात्मक संघर्षों में उलझने के बजाय जरूरत इस बात की है कि दलित मुक्ति और जाति-विनाश की तर्कसंगत परियोजना और रणनीति पर सोचा जाये और अमल किया जाये, अबतक की ऐसी परियोजनाओं की विफलता के कारणों का विश्लेषण किया जाये, जाति-उन्मूलन के व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन संगठित किये जायें और दलित उत्पीड़न की लगातार घट रही बर्बर घटनाओं का सड़कों पर उतरकर पुरजोर प्रतिकार किया जाये।
दलित उत्पीड़न का सारा कहर गाँवों के ग़रीब दलितों पर टूटता है। दलितों के बीच से पैदा हुए खाते-पीते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी उन उत्पीड़कों के विरूद्ध जुझारू प्रतिरोध संगठित करने के बजाय शबदों के खूब अग्निवाण छोड़ते हैं, राजधानियों में कुछ रस्मी विरोध-प्रदर्शन करते हैं और फिर पूरे संघर्ष को सामाजिक ढाँचा बदलने के क्रांतिकारी संघर्ष से जोड़ने के बजाय प्रतीकों की हवाई लड़ाइयाँ लड़ते रहते हैं। ऐसे लोग जब अपना एक समर्थन-आधार तैयार कर लेते हैं तो फिर या तो उदित राज, चन्द्रभान प्रसाद जैसा बन जाते हैं या अठावले, पासवान, कांशीराम जैसी किसी राजनीति से जुड़ जाते हैं या फिर एक खुद की पार्टी बना लेते हैं, या जाने-माने दलित लेखक-बुद्धिजीवी बनकर पूँजी और सत्ता के संस्कृति प्रतिष्ठानों में घुसकर मलाई चाँपने और दारू धकेलने की होड़ में लग जाते हैं, या फिर दलित मुक्ति की कोई एन.जी.ओ. - दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। ये सफेदपोश भितरघाती दलित मुक्ति परियोजना के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दलित-प्रश्न को कॉस्मेटिक राजनीति का मुद्दा बनाने वाले, महज प्रतीकों की, रियायतों की लड़ाई बना देने वाले, महज अनुष्ठान बना देने वाले लोग व्यापक आम दलित आबादी के जेनुइन हितचिन्तक या प्रतिनिधि नहीं हैं बल्कि दलित मुक्ति की बैलून के सहाने उड़कर समाज और सत्ता की बहुमंजिली इमारत की किसी ऊपरी मंजिल पर उतर जाने की आकांक्षी आतुर आत्माएँ हैं।
दलित उत्पीड़न का सारा कहर गाँवों के ग़रीब दलितों पर टूटता है। दलितों के बीच से पैदा हुए खाते-पीते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी उन उत्पीड़कों के विरूद्ध जुझारू प्रतिरोध संगठित करने के बजाय शबदों के खूब अग्निवाण छोड़ते हैं, राजधानियों में कुछ रस्मी विरोध-प्रदर्शन करते हैं और फिर पूरे संघर्ष को सामाजिक ढाँचा बदलने के क्रांतिकारी संघर्ष से जोड़ने के बजाय प्रतीकों की हवाई लड़ाइयाँ लड़ते रहते हैं। ऐसे लोग जब अपना एक समर्थन-आधार तैयार कर लेते हैं तो फिर या तो उदित राज, चन्द्रभान प्रसाद जैसा बन जाते हैं या अठावले, पासवान, कांशीराम जैसी किसी राजनीति से जुड़ जाते हैं या फिर एक खुद की पार्टी बना लेते हैं, या जाने-माने दलित लेखक-बुद्धिजीवी बनकर पूँजी और सत्ता के संस्कृति प्रतिष्ठानों में घुसकर मलाई चाँपने और दारू धकेलने की होड़ में लग जाते हैं, या फिर दलित मुक्ति की कोई एन.जी.ओ. - दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। ये सफेदपोश भितरघाती दलित मुक्ति परियोजना के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दलित-प्रश्न को कॉस्मेटिक राजनीति का मुद्दा बनाने वाले, महज प्रतीकों की, रियायतों की लड़ाई बना देने वाले, महज अनुष्ठान बना देने वाले लोग व्यापक आम दलित आबादी के जेनुइन हितचिन्तक या प्रतिनिधि नहीं हैं बल्कि दलित मुक्ति की बैलून के सहाने उड़कर समाज और सत्ता की बहुमंजिली इमारत की किसी ऊपरी मंजिल पर उतर जाने की आकांक्षी आतुर आत्माएँ हैं।
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