Monday, October 27, 2014

इतिहास की चालक शक्ति





पर जो बात प्रकृति के लिए (जो इस प्रकार विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया मान ली गयी है) सही है, वह उसी तरह समाज के इतिहास तथा उसकी समस्‍त शाखाओं पर और उन सारे विज्ञानों के साकल्‍य पर भी लागू होती है, जो अपने को मानवीय (और दैवी) चीज़ों से सम्‍बन्धित रखते हैं। यहाँ भी इतिहास, न्‍याय, धर्म, आदि के दर्शन का भी अर्थ यही था कि वास्‍तविक अन्‍त:संबंध की जगह -- जो घटनाओं द्वारा प्रदर्शित होना चाहिए -- दार्शनिक के दिमाग में गढ़ा हुआ अन्‍त:संबंध स्‍थापित किया जाये; उनका अर्थ यह था कि इतिहास को समग्रत: तथा उसके पृथक अंशों में विचारों की -- स्‍वभावत: सदा दार्शनिक के मनचाहे  विचारों की -- क्रमिक निष्‍पत्ति के रूप में ग्रहण किया जाये। इसके अनुसार इतिहास अचेतन, किन्‍तु अनिवार्य रूप से पहले से निर्धारित एक खास आदर्श लक्ष्‍य की ओर प्रगति करता था -- उदाहरणार्थ, हेगेल के सम्‍बन्‍ध में यह लक्ष्‍य उनके निरपेक्ष विचार की निष्‍पत्ति है -- और इस निरपेक्ष विचार की ओर उसका अपरिवर्तनीय झुकाव ही इतिहास की घटनाओं का अन्‍त:सम्‍बन्‍ध प्रस्‍तुत करता था। इस प्रकार असली, गोकि अभी तक अज्ञात, अंत:संबन्‍ध के स्‍थान पर एक नये, रहस्‍यमय‍ विधाता को -- अचेतन परंतु धीरे-धीरे चेतना ग्रहण कर रहे -- लाकर बिठा दिया गया। यहाँ भी वैसे ही, जैसे कि प्रकृति के क्षेत्र में आवश्‍यकता इस चीज़ की थी कि असली अंत:संबन्‍धों की खोज करके इन मनगढ़न्‍त कृत्रिम अंत:संबन्‍धों को कूड़े में फेंक दिया जाये -- अन्‍तत: इस काम का मतलब है गति के सामान्‍य नियमों की खोज, जो मानव समाज के इतिहास में अपने को प्रभुत्‍वशाली रूप में प्रगट करते हैं।
परन्‍तु एक बात में समाज के विकास का इतिहास प्रकृति के विकास के इतिहास से मूलभूत रूप में भिन्‍न सिद्ध होता है। प्रकृति में -- जहाँ तक हम प्रकृति पर मनुष्‍य की प्रतिक्रिया की उपेक्षा करते हैं -- हमें केवल अंधी, अचेतन, एक दूसरे पर प्रभाव डालती हुई शक्तियाँ मिलती हैं, जिनकी परस्‍पर क्र‍िया के द्वारा सामान्‍य नियम परिचालित होते हैं। वहाँ जितने घटना-व्‍यापार होते हैं -- चाहे वे सतह पर दिखाई देनेवाली अनगिनत प्रगटत: आकस्मिक घटनाएँ हों या वे अन्तिम परिणामों में हों, जो इन आकस्मिक घटनाओं में अन्‍तर्निहित नियमबद्धता  की पुष्टि करते हैं -- उनमें कोई भी चेतन रूप से इच्छित लक्ष्‍य की पूर्ति के रूप में नहीं होता है। इसके विपरीत, समाज के इतिहास में कार्य करने वाले लोग चेतना सम्‍पन्‍न होते हैं; वे सोच-विचार या आवेग से काम करते हैं, उनके कार्य का एक विशेष लक्ष्‍य होता है; कोई भी चीज़ बगैर सचेतन ध्‍येय के, बगैर किसी उद्दिष्‍ट अभिप्राय के नहीं होती। लेकिन यह भेद, ऐतिहासिक छानबीन के लिए -- विशेषकर अमुक विशेष युगों तथा घटनाओं की छानबीन के लिए -- महत्‍वपूर्ण होते हुए भी इस तथ्‍य को नहीं बदल सकता कि इतिहास का क्रम आन्‍तरिक सामान्‍य नियमों के अधीनस्‍थ है। वास्‍तव में यहाँ भी सभी व्‍यक्तियों के चेतन रूप से इच्छित लक्ष्‍यों के बावजूद, प्रगटत: सतह पर आकस्मिकता का ही राज दिखायी देता है। जिसकी इच्‍छा की जाती है, वह बिरले ही कभी होता है; अधिकांशत: अनगिनत इच्छित ध्‍येय आपस में टकराते  हैं और एक दूसरे के मार्ग में बाधक होते हैं; या ये लक्ष्‍य स्‍वयं ऐसे होते हैं। जो आरम्‍भ से ही असाध्‍य होते हैं अथवा उनकी पूर्ति के साधन ही अपर्याप्‍त होते हैं। इस तरह इतिहास के क्षेत्र में अनगिनत व्‍याक्तिगत इच्‍छाओं और व्‍यक्तिगत क्रियाओं के टकराव द्वारा एक ऐसी स्थिति उत्‍पन्‍न हो जाती है, जो जड़ प्रकृति के क्षेत्र में प्रचलित स्थिति के बिल्‍कुल समान होती है। कार्यों के लक्ष्‍य उद्दिष्‍ट होते हैं पर इन कार्यों द्वारा वास्‍तव में जो नतीजे निकलते हैं, वे उद्दिष्‍ट नहीं होते, अथवा जब वे उद्दिष्‍ट लक्ष्‍य के अनुरूप ज्ञात भी होते हैं, तो उनके अन्तिम फल अन्‍तत: उद्दिष्‍ट से बिल्‍कुल भिन्‍न होते हैं। ऐतिहासिक घटनाएँ भी, इस प्रकार, समग्रत: संयोग के अधीन ज्ञात होती है। पर जहाँ बाहर से सतह पर आकस्मिकता का बोलबाला दिखाई देता है, वहाँ वस्‍तुत: सदैव आन्‍तरिक, अप्रगट नियमों का शासन चलता है। सवाल केवल इन नियमों का पता लगाने का है।
मनुष्‍य इस माने में अपना स्‍वयं इतिहास बनाते हैं (चाहे उसका परिणाम कुछ भी हो) कि प्रत्‍येक व्‍यक्ति अपने सचेत, इच्छित लक्ष्‍य का अनुसरण करता है। और भिन्‍न दिशाओं में क्रियाशील इन अनेक इच्‍छाओं तथा बाह्य जगत पर उनके बहुविध प्रभावों का परिणाम ही इतिहास है। अत: सवाल इस बात का है कि ये बहुत-से व्‍यक्ति चाहते क्‍या हैं? इच्‍छा आवेग या सोच-विचार द्वारा निर्धारित होती है। पर आवेग या सोच-विचार निर्धारित करने वाले उत्‍तोलक बिल्‍कुल भिन्‍न प्रकार के होते हैं। अंशत: ये बाह्य पदार्थ हो सकते हैं और अंशत: भावमूलक प्रेरक -- महत्‍वाकांक्षा, ''सत्‍य और न्‍याय का आग्रह'', व्‍यक्तिगत घृणा अथवा महज किसी किस्‍म की व्‍यक्तिगत सनक। पर एक ओर हम देख चुके हैं कि इतिहास में क्रियाशील अनेक व्‍यक्तिगत इच्‍छायें अधिकांशत: वांछित से बिल्‍कुल भिन्‍न, प्राय: बिल्‍कुल उलटे ही परिणाम उपस्थित करती है; अत:, अन्तिम परिणाम  के सम्‍बन्‍ध में उनका प्रेरक हेतु भी गौण महत्‍व का होता है। दूसरी ओर यह प्रश्‍न उठ खड़ा होता है: इन प्रेरणाओं के पीछे कौन सी उत्‍प्रेरक शक्तियाँ खड़ी हैं? वे ऐतिहासिक कारण क्‍या हैं जो कार्यरत लोगों के मस्तिष्‍क में इन प्रेरणाओं का रूप धारण कर लेते हैं?
पुराने भौतिकवाद ने अपने से यह प्रश्‍न कभी नहीं पूछा। उसकी इतिहास की धारणा -- यदि उसकी ऐसी कोई धारणा थी भी -- वास्‍तव में परिणामवादी थी; वह हर चीज को कार्य को प्रेरक हेतु की कसौटी पर परखता था; वह इतिहास के पात्रों को उदात्‍त और नीच में बांट देता था और तब अमूमन इस नतीजे पर पहुँचता था कि आम तौर से उदात्‍त लोग धोखा खाते हैं और नीचों के माथे पर विजय का सेहरा बंधता है। अत: पुराने भौतिकवाद के लिए यह निष्‍कर्ष निकलता था कि इतिहास के अध्‍ययन से कोई महत्‍वपूर्ण सीख नहीं हासिल हो सकती, और हम इस निष्‍कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुराना भौतिकवाद इतिहास के क्षेत्र में स्‍वयं अपने प्रति आस्‍थावान नहीं रह जाता क्‍योंकि वह इस क्षेत्र में कार्यशील भावमूलक प्रेरक शक्तियों को घटनाओं के आद्य कारण मान बैठा। उसने यह छानबीन नहीं की कि इनके पीछे क्‍या है, इन प्रेरक शक्तियों की प्रेरक शक्तियाँ क्‍या है? असंगतता इस बात में नहीं है कि भावमूलक प्रेरक शक्तियों को मान्‍यता दी गयी, बल्कि इस बात में है कि यह छानबीन नहीं की गयी कि उनके पीछे क्‍या है, उनके प्रेरक कारण क्‍या हैं? इसके विपरीत इतिहास का दर्शन, खासकर हेगेल द्वारा प्रस्‍तुत इतिहास का दर्शन, मानता है कि इतिहास के मंच पर कार्यशील मनुष्‍यों की प्रत्‍यक्ष तथा वास्‍तव में चालक प्रेरणा शक्तियाँ ऐतिहासिक घटनाओं के आद्य कारण कदापि नहीं हैं, बल्कि इन शक्तियों के पीछे अन्‍य प्रेरक शक्तियाँ हैं, जिनकी खोज होनी चाहिए। पर वह इन शक्तियों की तलाश इतिहास के अन्‍दर नहीं करता, बल्कि उन्‍हें बाहर से, दार्शनिक विचारधारा से इतिहास के अन्‍दर लाने की कोशिश करता था। उदाहरण के लिए, हेगेल प्राचीन यूनान के इतिहास की उसके आंतरिक अन्‍त:सम्‍बन्‍धों द्वारा व्‍याख्‍या करने के बदले केवल यह कहते हैं कि वह ''सुन्‍दर व्‍यक्तित्‍व के रूपों'' की निष्‍पत्ति या ''कलाकृति'' की कार्यान्विति के अलावा और कुछ नहीं है। इस सिलसिले में वह पुराने काल के यूनानियों के बारे में अनेक सुन्‍दर एवं पांडित्‍यपूर्ण बातें कहते हैं, लेकिन इससे हम एक ऐसी व्‍याख्‍या को संतोषजनक मानकर चुप नहीं रह सकते, जो वाक्चातुर्य मात्र है।
इसलिए जब प्रश्‍न उन प्रेरक शक्तियों की छानबीन का होता है, जो चेतन अथवा अचेतन रूप में, और ज्‍यादातर अचेतन रूप में ही इतिहास में कार्यरत मनुष्‍यों की प्रेरणा के पीछे छिपी रहती है और जो इतिहास की वास्‍तविक प्रेरक शक्तियाँ हैं, तब प्रश्‍न इतना अधिक अलग-अलग शक्तियों की प्रेरणाओं का नहीं रहता, चाहे ये व्‍यक्ति कितने ही महान क्‍यों न हों, जितना कि उन प्रेरक शक्तियों का बन जाता है, जो विशाल जन-समूहों को, पूरे के पूरे राष्‍ट्रों को, और प्रत्‍येक राष्‍ट्र में पूरे के पूरे वर्गों को -- केवल क्षणिक काल के लिए नहीं, भभककर बुझ जाने वाली पयाल की आग की तरह किसी क्षणिक उत्‍तेजक कार्रवाई के लिए नहीं, बल्कि इतिहास में महान रूपान्‍तरण करने वाले स्‍थाई कार्य के लिए -- गतिशील करती है। उन प्रेरक कार्यों का पता लगाना जो क्रियाशील जनगण और उनके नेताओं -- तथाकथित महापुरुषों -- के दिमाग में चेतना प्रेरणा बनकर स्‍पष्‍ट या अस्‍पष्‍ट, प्रत्‍यक्ष या विचारधारात्‍मक या गौरवमंडित रूप तक में प्रतिबिम्बित होते हैं -- यही अकेला मार्ग है जो हमें उन नियमों की ओर ले जा सकता है, जो समग्रत: इतिहास और विशेष युगों में या विशेष देशों -- दोनों -- में ही प्रभावशाली रहते हैं। मानव को गतिमान करने वाली हर चीज़ का उसके मस्तिष्‍क से होकर गुजरना अनिवार्य है; किन्‍तु वह चीज़ मानव मस्तिष्‍क में कौन सी शक्‍ल अख्तियार करेगी, यह बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। मज़दूर आज भी पूँजीवादी मशीन उद्योग से संतुष्‍ट नहीं हैं, य‍द्यपि वे अब मशीनों को नहीं तोड़ते, जैसा कि 1848 तक में राइन तटवर्ती प्रदेश में उन्‍होंने किया था।
पर जहाँ पहले के युगों में इतिहास की इन प्रेरक शक्तियों की छानबीन करना -- उनके और उनके परिणामों के अन्‍त:संबन्‍ध जटिल और छिपे होने की वजह से -- प्राय: असम्‍भव कार्य था, वहाँ हमारे वर्तमान युग ने इन अन्‍त:संबन्‍धों को इतना सरल कर दिया है कि पहेली हल की जा सकती है। बड़े पैमाने के उद्योग की स्‍थापना के बाद से, यानी कम से कम 1815 की यूरोपीय शान्ति के बाद से यह बात इंगलैण्‍ड में किसी के लिए रहस्‍य नहीं रह गयी है कि वहाँ का पूरा राजनीतिक संघर्ष दो वर्गों -- अभिजातवर्गीय भू-स्‍वामियों (Landed aristocracy) और पूँजीपतियों (middle class) -- के आधिपत्‍य की होड़ को लेकर चल रहा है। फ्रांस में बूर्बो वंश की वापसी के बाद से वही चीज़ देखी गयी; त्‍येर्री से लेकर गीजो, मिन्‍ये और थियेर तक, पुन:स्‍थापन काल के सभी इतिहासज्ञ सर्वत्र बताते हैं कि मध्‍य युग के बाद से फ्रांस के इतिहास को समझने की कुंजी यही तथ्‍य है। और 1830 के बाद से दोनों ही देशों में मज़दूर वर्ग, सर्वहारा वर्ग, सत्‍ता के लिए होड़ में तीसरा प्रतिद्वन्‍द्वी माना जाने लगा है। स्थिति इतनी सरलीकृत हो चुकी थी कि जानबूझकर अपनी आँखें बन्‍द कर लेने वाला आदमी ही इन तीन महान वर्गों के संघर्ष और उनके हितों के टकराव  में -- कम से कम इन दो सबसे आगे बढ़े हुए देशों में -- आधुनिक इतिहास की प्रेरक शक्ति को देखे बिना कैसे रह सकता है?



-- फ्रेडरिक एंगेल्‍स : 'लुडविग फायरबाख और क्‍लासिकीय जर्मन दर्शन का अंत'(1888)

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