Tuesday, August 05, 2014

फेसबुक पर वामपंथी



-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

फेसबुक पर कुछ प्रौढ़ या शारीरिक दृश्टि से ज्‍यादा दौड़धूप कर पाने में अक्षम, अनुभवसम्‍पन्‍न साथियों से काफी कुछ सीखने-जानने को मिलता रहता है। यह बहुत अच्‍छी बात है।
पर उन नौजवानों को देखकर बहुत क्षोभ होता है, जो व्‍यावहारिक राजनीतिक जीवन में वास्‍तव में कुछ भी नहीं करते-धरते, बस फेसबुक को ही अपना रणक्षेत्र बनाये रखते हैं। कई लोगों को एक साल से भी अधिक समय तक 'फॉलो' करने के बाद लगा कि वे मार्क्‍सवादी क्‍लासिक्‍स के अध्‍ययन को कभी समय नहीं देते, बस सारा ज्ञान पल्‍लवग्राही ढंग से ब्‍लॉगों-वेबसाइटों और फेसबुक से ही जुटाते रहते हैं। पहले उद्धरणों, तस्‍वीरों और स्‍फुट (सतही) विचारों वाली उनकी पोस्‍ट्स मैं बिरादराना भाव से 'लाइक' करती रहती थी, पर अब तो ऊब होने लगी है। एक जमात थोक भाव से सतही नारेबाजी वाली कविताएँ लिखने वालों और हँसी-ठिठोली करके मनबहलाव करते रहने वाले 'खलिहर' लोगों की भी है।
कुछ त्रात्‍स्‍कीपंथी हैं जो आदतन हवा में से तथ्‍य पैदा कर स्‍तालिन, माओ और कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी आंदोलन को कोसने-गलियाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
कुछ रिटायर्ड क्रांतिकारी हैं जो गुजरे दिनों को याद करने मे लगे रहते हैं। कुछ साहित्यिक महत्‍वाकांक्षी हैं जो आत्‍मप्रचार और गिरोहबंदी के लिए फेसबुक का अच्‍छा इस्‍तेमाल कर लेते हैं। नये लोगों की आँखों में धूल झोंककर अपनी दुकानदारी चमकाना ही उनका कुल मक़सद होता है।
कुछ ऐसे भी हैं जो आदमी तो चार-पाँच हैं और कुछ आंदोलनों में रस्‍मी शिरकत से अधिक कोई ज़मीनी काम भी नहीं करते, पर पूरी पार्टी (या संगठन) और सेण्‍ट्रल कमेटी/लीडिंग कमेटी आदि बना रखी है। लीडर महोदय ही फेसबुक पर निरंतर सक्रिय रहते हैं और इम्‍प्रेशन कुछ ऐसा देते हैं मानों ज़मीनी कामों में व्‍यस्‍त कोई अच्‍छा-खासा संगठन हो। वैचारिक विमर्श के अतिरिक्‍त अपनी कार्रवाइयों का प्रचार हर माध्‍यम से कोई क्रांतिकारी संगठन तो करता ही  है, पर कार्रवाइयों के नाम पर वास्‍तव में कुछ होना भी तो चाहिए!
यहाँ सोशल मीडिया के महत्‍व से कोई इनकार नहीं है। पर मात्र हवाबाजी करने और वास्‍तविकता से अलग भ्रामक तस्‍वीर उपस्थित करने तथा घिसी-पिटी रूटीनी फेसबुकिया गतिविधियों पर तो अवश्‍य सवाल उठाया जाना चाहिए। आखिर इससे क्रांतिकारी वामपंथ की कोई इज्‍जत तो बढ़ती नहीं है, न ही उसे कोई लाभ पहुँचता है।
फेसबुक नौजवानों को यदि ठलुआ बना रहा हो, तो इससे खतरनाक बात क्‍या हो सकती है? सबसे बुनियादी सवाल यह है कि हमारी प्रतिबद्धता का कोई अमली रूप है या नहीं! हम जन समुदाय के किसी हिस्‍से के बीच प्रचार-शिक्षा, लामबंदी और संगठन बनाने और आंदोलन खड़े करने या उनमें शिरकत करने की ज़मीनी कार्रवाइयों में है या नहीं! किनारे बैठकर बतगुज्‍जन करने और नुक्‍स निकालने का काम तो कोई भी कर सकता है! आलोचना का अधिकार भी उसी को है जो काम करता है और उसी की आलोचना वास्‍तव में उपयोगी और सुनने योग्‍य भी हो सकती है। दूसरे, बुनियादी मार्क्‍सवाद का अध्‍ययन कीजिए और दुनिया के मज़दूर संघर्षों और सर्वहारा क्रांतियों का इतिहास भी अवश्‍य पढ़ा जाना चाहिए। अन्‍यथा आप सामने घट रही घटनाओं के आभासी या प्रतीयमान यथार्थ को भेदकर सारभूत यथार्थ को जान नहीं सकेंगे। साथ ही, यह भी तय नहीं कर सकेंगे कि तमाम कम्‍युनिस्‍ट क्रांति‍कारी संगठनों-ग्रुपों में से किसकी लाइन सही है और किसकी गलत है।
मेरे कहने का मतलब यह कत्‍तई नहीं है कि आप सालों तक मार्क्‍सवाद और लाइनों का अध्‍ययन करते रहिए और जब दाँत हिलने लगे, आँखों से कम दिखने लगे तो लाठी लेकर क्रांति करने तब निकलिये जब राजघाट/निगमबोध/ मणिकर्णिका की तरफ निकल लेने का समय क़रीब आ जाये। पर्वतीय गरुण की तरह उड़ने, प्रयोगों में सही गलत करने से न डरने, जीवन को एक सतत् खोजी यात्रा बना देने का फैसला लेने का समय नौजवानी की उम्र ही होती है। इन मामलों में ''अनुभवसम्‍पन्‍न'' दुनियादारों, घोंसला बनाने, अण्‍डा देने, चूजों को चुग्‍गा चुगाने वालों की राय लेना तो दूर, उनकी कोई बात नहीं सुननी चाहिए। खल्‍वाट, तुंदियल, बुझी आँखों और ठण्‍डे दिलों वाले ''मार्क्‍सवादी विद्वानों'' की तो कत्‍तई नहीं सुननी चाहिए। परिवार वाले तो हमेशा यही चाहते हैं कि परिवार का पेट-पालन और तरक्‍की ही आपका परम लक्ष्‍य हो, समाज जाये चूल्‍हे भाड़ में! मर जाये देश, बस जीवित बचे रहें आप। यदि कुर्सीतोड़ विद्वानों, अनुभव-अजीर्ण पीड़ि‍त बुजुर्गों और कूपमण्‍डूक सदगृहस्‍थ बनने की शिक्षा दिन-रात देते रहने वाले माँ-बाप की सलाह को ही कर्मों का मार्गदर्शक बनाया होता तो भगतसिंह खटकल कलां में डेयरी चलाते होते और राहुल चण्‍डेसर, निज़ामबाद या पन्‍दहां में स्‍कूल मास्‍टरी करते, बाल-बच्‍चे पालते जिन्‍दगी काट देते। तब न कोई दिदेरो और टॉम पेन होता, न कोई राब्‍सपियेर, मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन, स्‍तालिन, माओ, चे ग्‍वेरा आदि होता, न कोई मार्क ट्वेन, जैक लण्‍डन, गोर्की, नाजिम हिकमत, नेरूदा या ब्रेष्‍ट ही होता। पूरी दुनिया कलमघसीटुओं, अर्जीनवीसों और क्‍लर्कों-पटवारियों से भरी होती!
इसलिए यदि कोई नौजवान मार्क्‍सवाद को क्रांति के विज्ञान के रूप में स्‍वीकार करने की दहलीज तक पहुँच चुका है और इसे भरोसा हो चला है कि अल्‍पकालिक ठहरावों-उलटावों के बावजूद, सुनिश्चित गति के नियमों से संचालित इस दुनिया को अंतत: आगे की ओर जाना ही है, उसे वर्ग संघर्ष के विकास की कुंजीभूत कड़ी होने में, सर्वहारा वर्ग और उसकी क्रांतिकारी पार्टी की भूमिका में विश्‍वास हो चला है, वह मानने लगा है कि पूँजीवाद भी अजर-अमर नहीं है; तो उसे बिना देर किये मार्क्‍सवाद और कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के इतिहास के अध्‍ययन को गहन बना देना चाहिए और उसकी गति तेज कर देनी चाहिए। उसे दुनियादारों, क्रांति से ''अवकाशप्राप्‍त'' कायरों और निठल्‍ले वामपंथी विद्वानों की एक नहीं सुननी चाहिए और निजी जिन्‍दगी में बिना रुके विद्रोह की शुरुआत कर देनी चाहिए। विद्रोह -- सम्‍पत्ति-सम्‍बन्‍धों के खिलाफ, रू‍ढ़ि‍यों-परम्‍पराओं के खिलाफ, परिवार वालों की नसीहतों और अपेक्षाओं के खिलाफ। यहीं से, यानी निजी जिन्‍दगी से यथास्थिति के विरुद्ध बगावत की शुरुआत होती है। यदि आप स्‍त्री हैं, तब तो और भी मुश्किल होगी। विद्रोह की सोचते ही आप लोकापवादों से, विवादों से घिर जायेंगी, परिवार और समाज झूठी इज्‍जत की दुहाई देते हुए आपके दिमाग तक पर ताले लगा देने की कोशिश करेंगे। एक स्‍त्री ही जानती है कि परम्‍पराबद्ध पारिवारिक कैदखानों से निकलकर अपनी जिन्‍दगी के बारे में फैसले लेना, और विशेषकर राजनीतिक कार्यकर्ता बनने का फैसला लेना, खास तौर पर भारत में, कितना कठिन होता है! राजनीतिक जीवन में उतरने के बाद भी पुरुषस्‍वामित्‍ववाद डण्‍डा लेकर आपका पीछा करता रहता है!
एक सही लाइन और सही संगठन का चुनाव सोच-समझकर और अध्‍ययन करके किया जाना चाहिए। पर इस फैसले में बहुत अधिक देर नहीं की जानी चाहिए। आपके सामने मौजूद क्रांतिकारी लाइनों में जो सापेक्षत: सर्वाधिक सही, सापेक्षत: सर्वाधिक तर्कसम्‍मत और सामाजिक यथार्थ को सापेक्षत: सर्वाधिक सटीक ढंग से व्‍याख्‍यायित करने वाली लगती हो, उससे जुड़कर काम करना शुरू कर दीजिए। आखिर आप अपनी जिन्‍दगी का पट्टा थोड़े लिखा देते हैं! यदि कोई और लाइन बाद में बेहतर लगे तो आप उससे जुड़ जाइयेगा। मुख्‍य बात यह है कि फिर आपका व्‍यवहार ही आपको राह दिखायेगा, बशर्ते कि आप आँख मूँदकर लकीर की फकीरी करने वाले कार्यकर्ता या घण्‍टा डुलाते रहने वाले बौद्ध भिक्षु न बन जायें। एक कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी किसी संगठन का अनुशासित सिपाही होता है, पर अन्‍धानुयायी नहीं। तर्क करना और प्रश्‍न उठाना उसका जन्‍मसिद्ध अधिकार होता है।
सबसे पहली बात यह है कि मार्क्‍सवाद कर्मों का मार्गदर्शक सिद्धान्‍त होता है (एंगेल्‍स)। टनों सिद्धांत से छटाँक भर व्‍यवहार बेहतर होता है (एंगेल्‍स)। दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह  से व्‍याख्‍या की है, पर सवाल उसे बदलने का है (मार्क्‍स)। मार्क्‍सवादी विचारधारा का दायरा बहुत व्‍यापक है, पर उसकी सबसे बुनियादी शिक्षा है -- विद्रोह करो। अन्‍याय के विरुद्ध, यथास्थितिवाद के विरुद्ध। विद्रोह न्‍यायसंगत है (माओ)। विद्रोह करो और क्रांति की दिशा में  आगे बढ़ो! चीजों को बदलने के लिए चीजों को समझो और चीजों को बदलने की प्रक्रिया में खुद को बदलो (चीन की सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रांति के दौरान दिया गया एक नारा)।

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