Sunday, August 03, 2014

दैत्‍य दुर्ग की प्राचीरें



-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

हमारी सरकार जनता के विरुद्ध लगातार एक युद्ध चला रही है, प्रत्‍यक्ष और परोक्ष -- दोनों ही तरीकों से। समृद्धि की जगमगाती अट्टालिकाओं के अँधेरे साये में, महाजनों के चलने के लिए बने महामार्गों के किनारे की पैदल पट्टी पर, फ्लाई ओवरों के नीचे, रेलवे लाइनों के किनारे, कूड़े-कचरे के ढेरों के बीच, गाँवों के कच्‍चे घरों और झोपड़ि‍‍यों में, अनाज, कपड़ा, लोहा, सीमेंट, सबकुछ... सबकुछ पैदा करने वाले लोग रोज एक धीमी मौत मर रहे हैं, सालाना लाखों बच्‍चे मर रहे हैं, लाखों स्त्रियाँ बिक रही हैं या शरीर बेच रही हैं। 70 फीसदी आबादी अपने जीने की न्‍यूनतम ज़रूरतें नहीं जुटा पाती। एक विचित्र प्रति-गुरुत्‍वाकर्षण शक्ति से मानों जिन्‍दगी की हर ज़रूरत पिरामिड के नीचे के विस्‍तृत आधार से ऊपर की ओर सिक्‍के में तबदील होकर खिंचती जा रही है और शीर्ष पर बढ़ती पूँजी की ढेरी इस प्रति-गुरुत्‍वाकर्षण शक्ति को लगातार और अधिक बढ़ाती जा रही है। नीचे के लोग पिस भी रहे हैं और निचुड़ भी रहे हैं।
इस धीमी मृत्‍यु से बचने के लिए नीचे की आबादी का कोई छोटा सा हिस्‍सा कहीं भी यदि, विद्रोह तो दूर, कोई आवाज भी उठाता है या कसमसाता भी है तो वह शीर्ष सोपानों पर बैठे लोगों के लिए व्‍यवस्‍था बनाये रखने के लिए जिम्‍मेदार, ''प्रबंध समिति'' के उन लोगों की निगाहों  में चढ़ जाते हैं जो स्‍वयं मध्‍यवर्ती सोपानों में ऊपर की ओर विराजमान होते हैं जिन्‍हें सरकार, नागरिक नौकरशाही और सेना-पुलिस की नौकरशाही के रूप में हम जानते हैं। आवाज़ उठाते और घुटन से कसमसाते लोगों पर पिरामिडीय पद-सोपान-क्रम वाली सामाजिक व्‍यवस्‍था का ध्‍वंस करने की साजिशों का आरोप लगाकर ''विद्रोही'' करार दे  दिया जाता है और फिर ... कैदखाना, कोड़े, कत्‍ल और यंत्रणाएँ। भारी अभिशप्‍त आबादी किसी विस्‍फोटक विद्रोह की दिशा में आगे नहीं बढ़े, इसके लिए शिक्षा तंत्र और विराट मीडिया तंत्र लगातार दिन-रात, मानों सम्‍मेहन करते हुए यह बताता रहता है कि उसके सामने यही सामाजिक व्‍यवस्‍था एकमात्र व्‍यावहारिक विकल्‍प है, कि सारी बुराइयों की जड़ में कुछ व्‍यक्ति हैं न कि पूरी व्‍यवस्‍था, कि सामाजिक विषमता एकदम प्राकृतिक चीज है, कि जो लोग पीछे छूट जाते हैं उनमें लगन, कार्यशीलता, योग्‍यता आदि का अभाव होता है और अपनी दुरवस्‍था के लिए वे स्‍वयं दोषी होते हैं। फिर धर्म का घटाटोप और तमाम धर्मोपदेशक हैं जो अभिशप्‍तों की दुरवस्‍था को पूर्वजन्‍म के पापों का फल बताते हैं, 'संतोषम् परम् सुखम्' का उपदेश देते हैं और इहलोक के तमाम कष्‍टों का सुफल परलोक या अगले जन्‍म में मिलने का विश्‍वास दिलाते हैं। मनोरंजन उद्योग बीमार ऐन्द्रिक उत्‍तेजना के दीमक पैठाकर लोगों की आत्‍माओं को कमजोर और अलगावग्रस्‍त बनाता है। स्‍वयंसेवी संस्‍थाएँ दान और राहतों के टुकड़े फेंककर, सुधारों की पैबंदसाजी करके गरीबों की विद्रोही चेतना को कमजोर करती हैं। नकली वामपंथी पार्टियाँ दुअन्‍नी-चवन्‍नी की लड़ाई में उलझाकर मेहनतकशों की चेतना को इसी व्‍यवस्‍था के दायरे में बँधे रहने के लिए अनुकूलित करती हैं। सत्‍ता प्रतिष्‍ठान, अकादमिक संस्‍थान और संस्‍कृति के भव्‍य केन्‍द्र बुद्धिजीवियों को पद-प्रतिष्‍ठा-सुविधाएँ देकर भ्रष्‍ट बनाते हैं और जनता का पक्ष लेने से रोकते हैं। सुरक्षा की इतनी दीवारें अन्‍यायी तंत्र को सुरक्षित बनाती हैं।
इन सभी दीवारों को तोड़ने की अनवरत कोशिशों के बगैर रक्‍त और गंदगी में लिथड़े इस सामाजिक तंत्र को ध्‍वस्‍त करने के लिए जन समुदाय की महाकाय, सोयी पड़ी जनशक्ति को कत्‍तई तैयार नहीं किया जा सकता।

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