Saturday, August 02, 2014

अल बगदादी की असलियत और धार्मिक कट्टरपंथ के बारे में कुछ बुनियादी बातें



-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

एडवर्ड स्‍नोडेन ने अमेरिकी एजेंसी एन.एस.ए. के जिस गुप्‍त दस्‍तावेज़ को हाल ही में उजागर किया है उसके अनुसार खुद को दुनियाभर के मुसलमानों का नया ख़लीफा घोषित करने वाला आई.एस.आई.एस. सरगना अल बगदादी अमेरिकी साम्राज्‍यवाद का एक मोहरा है।
अल बगदादी कभी अमरीका की जेल में बंद था। वहाँ से बाहर निकालकर अमेरिकी, ब्रिटिश और इस्रायली खु़फिया एजेंसी ने उसे अपनी नयी योजना के लिए एक मोहरे के रूप में तैयार किया। वक्‍तृत्‍व कला और धर्मशास्‍त्र के अतिरिक्‍त इस्रायली खु़फिया एजेंसी मोसाद ने अल बगदादी को सघन सामरिक प्रशिक्षण दिया।
एन. एस. ए. के दस्‍तावेज़ के अनुसार, जियनवादियों की सुरक्षा के लिए धार्मिक इस्‍लामी  नारों के आधार पर अरब देशों के भीतर गृहयुद्ध की स्थिति पैदा करना ज़रूरी था। दस्‍तावेज़ अल बगदादी को लांच करने का दूसरा उद्देश्‍य दुनिया भर के इस्‍लामी कट्टरपंथियों को आकृष्‍ट करना है ताकि उन्‍हें एक नये प्रतीक के इर्द-गिर्द गोलबन्‍द करके आवश्‍यकतानुसार इस्‍तेमाल किया जा सके।
यह अमेरिका की पुरानी रणनीति है जिसका इस्‍तेमाल वह अफगानिस्‍तान और पाकिस्‍तान  में तथा अरब क्षेत्र में कर चुका है। आज इस रणनीति का इस्‍तेमाल नाइजीरिया से लेकर इण्‍डो‍नेशिया तक में हो रहा है।
आधुनिक काल का इतिहास गवाह है, हर तरह के धार्मिक कट्टरपंथ का इस्‍तेमाल उपनिवेशवाद और साम्राज्‍यवाद ने राष्‍ट्रीय मुक्ति और जन मुक्ति के संघर्षों को बाँटने और विसर्जित करने के लिए किया है। धार्मिक कट्टरपंथ का मध्‍ययुगीन धार्मिक विश्‍वदृष्टिकोण  से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। यह सारत: फासीवादी विचारधारा है जो एक आधुनिक परिघटना है।
उपनिवेशवादी और साम्राज्‍यवादी हमेशा से धार्मिक कट्टरपंथ का इस्‍तेमाल जन एकजुटता तोड़ने और गृहयुद्ध भड़काने के लिए करते हैं। जब उनका उद्देश्‍य पूरा हो जाता है तो फिर वे धार्मिक कट्टपंथियों को स्‍वयं ही ठिकाने लगा देते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऐसी ताकतें उनकी इच्‍छा से स्‍वतंत्र होकर उनके लिए ही भस्‍मासुर बन जाती हैं। तब फिर वे उन्‍हें आसानी से ठिकाने लगा देते हैं और ''आतंकवाद-विरोध'' के मसीहा का तमगा स्‍वयं अपने गले में पहन लेते हैं।
धार्मिक कट्टरपंथ का एक और प्रमुख स्रोत औपनिवेशिक देशों में राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलनों का नेतृत्‍व करने वाले देशी बुर्जुआ वर्गों की भौतिक-वैचारिक कमजोरी और समझौतापरस्‍ती भी रही है। भारत का उदाहरण लें। राष्‍ट्रीय आंदोलन के दौर में कांग्रेस के नेताओं ने भी प्रखर-मुखर ढंग से सेक्‍युलरिज्‍़म और वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि की वकालत करने की जगह सस्‍ते लोकरंजकतावादी तरीके से धार्मिक आदर्शों-प्रतीकों का इस्‍तेमाल किया। कांग्रेस में भी हिंदू महासभा और आर्यसमाज से जुड़े कई साम्‍प्रदायिक दृष्टि वाले नेता शामिल थे। कांग्रेस ने भी साम्‍प्र‍दायिक ताकतों के साथ समझौते करने और छूट देने का खेल खेला। स्‍वतंत्रता के बाद, चुनावी राजनीति में धार्मिक गोलबंदी का इस्‍तेमाल खूब होता रहा। जब कांग्रेस के राष्‍ट्रवाद और ''समाजवाद'' की कलई पूरी तरह उतर चुकी थी तो 1990 के दशक में कांग्रेस ने भी 'नरम भगवा लाइन' का कार्ड इस्‍तेमाल करना शुरू किया। इसका लाभ अंततोगत्‍वा संघ परिवार जैसी धुर फासीवादी ताकतों को ही मिला। इराक और सीरिया की बाथ पार्टी और लीबिया के मुअम्‍मर कज्‍जाफी ने भी अपने तेल-राजस्‍व पोषित ''समाजवाद'' के भ्रष्‍ट निरंकुश-गतिरुद्ध व्‍यवस्‍था में पतित हो जाने के बाद धार्मिक चोला धारण कर लिया था।
धार्मिक कट्टरपंथ के उभार का एक और कारण रहा है। तीसरी दुनिया के नवस्‍वाधीन देशों में जो बुर्जुआ सत्‍ताएँ कभी साम्राज्‍यवाद-विरोधी अवस्थितियों के कारण जनता में लोकप्रिय थीं, उन्‍होंने विश्‍व-पूँजीवाद से कभी निर्णायक विच्‍छेद नहीं किया। पूँजीवादी राह पर स्‍वतंत्र  विकास साम्राज्‍यवाद के युग में एक सीमा से अधिक सम्‍भव नहीं था। अत: देर-सबेर ये सभी बुर्जुआ सत्‍ताएँ साम्राज्‍यवाद के 'जूनियर पार्टनर' के रूप में विश्‍व-व्‍यवस्‍था में व्‍यवस्थित हो गयीं। साथ ही, इन पिछड़े पूँजीवादी देशों में व्‍यवस्‍था का संकट आर्थिक गतिरोध, भ्रष्‍टाचार और राजनीतिक निरंकुशता के रूप में फूट पड़ा। यही नासेर के बाद मिस्र में हुआ और अ‍फ्रीका-एशिया के बहुतेरे देशों में हुआ। साम्राज्‍यवाद-विरोधी राष्‍ट्रवाद के आदर्शों के इस  पतन-विघटन ने यह ज़मीन तैयार की कि कहीं सैनिक तानाशाह सत्‍ता में आये तो कहीं धार्मिक कट्टरपंथ को विविध चेहरों के साथ, नरम या कठोर रूपों में, छद्म राष्‍ट्रवाद का परचम लहराते हुए अपने लिए राजनीतिक-सामाजिक 'स्‍पेस' बनाने का मौका मिला।
धार्मिक कट्टरपंथ के बढ़ते प्रभाव का एक कारण विश्‍व-ऐति‍हासिक है। जिसे नवउदारवाद  कहा जाता है, वह वास्‍तम में आर्थिक कट्टरपंथ है और इस आर्थिक कट्टरपंथ की दो अनिवार्य परिणतियाँ हैं। एक तो इन आर्थिक नीतियों को चूँकि एक निरंकुश राज्‍यतंत्र ही लागू कर सकता है, अत: विकसित पश्चिम से लेकर पिछड़े पूरब तक, सभी देशों में बुर्जुआ जनवाद सिकुड़ता जा रहा है तथा बुर्जुआ जनवादी राज्‍यतंत्र और फासीवादी राज्‍यतंत्र के बीच की विभाजक रेखा धूमिल होती जा रही है। दूसरे, नवउदारवाद के दौर का नग्‍न-निरंकुश पूँजीवाद अपनी स्‍वतंत्र आंतरिक गति से तर्कणा-विरोधी, जनवाद-विरोधी, इहलौकिकता-विरोधी, भविष्‍योन्‍मुखता-विरोधी मूल्‍यों, संस्‍कृति और सामाजिक आंदोलनों को जन्‍म देता है। यही वह ज़मीन है जिसपर तमाम नवफासीवादी प्रवृत्तियाँ फल-फूल रही हैं, जिनमें धार्मिक कट्टरपंथ सबसे प्रमुख है।
पूँजीवाद विश्‍व स्‍तर पर जन समुदाय पर जो कहर बरपा कर रहा है, उसकी दो प्रतिक्रियाएँ स्‍वाभाविक तौर पर सामने आयेंगी -- एक, अतीत की ओर वापसी के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया के रूप में और दूसरी, भविष्‍योन्‍मुख, वैज्ञानिक व्‍यावहारिक परियोजना के रूप में। पहली प्रतिक्रया धार्मिक पुनरुत्‍थानवादी और फासीवादी प्रोजेक्‍ट के रूप में होगी और दूसरी समाजवादी प्रोजेक्‍ट के रूप में। ऐसे समय में, जब समाजवादी प्रोजेक्‍ट फिलहाली तौर पर बिखराव और पीछे हट जाने की स्थिति में है, स्‍वाभाविक है कि फासीवादी प्रोजेक्‍ट को समाज में व्‍यापक समर्थन आधार मिले। पूँजीवादी विश्‍व यदि समाजवाद की दिशा में आगे नहीं बढ़ेगा तो फासीवाद की दिशा में ही आगे जायेगा।
वस्‍तुगत सामाजिक परिस्थितियों में धार्मिक कट्टरपंथ सहित तमाम फासीवादी प्रवृत्तियों के पैदा होने और समर्थन-आधार विस्‍तारित करने की जो अनुकूल स्थिति तैयार हुई है, इसी के सटीक आकलन के आधार पर साम्राज्‍यवाद और पूँजीपति वर्ग तरह-तरह से इन फासीवादी ताकतों के इस्‍तेमाल की रणनीतियाँ तैयार करती हैं और जनसमुदाय के खिलाफ जंजीर से बँधे कुत्‍ते की तरह ज़रूरत मुताबिक इनका इस्‍तेमाल करती हैं। 

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