-- कविता कृष्णपल्लवी
'कॉमन सेंस'(सहज बोध) प्राय: अधूरा सत्य होता है, या सत्य का मिथ्याभास, या विरूपित सत्य या पुरानी पड़ चुकी बात। मार्क्सवाद 'कॉमन सेंस' के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाता है। 'कॉमन सेंस' इन्द्रियग्राह्य ज्ञान(परसेप्चुअल नॉलेज) होता है, बुद्धिसंगत ज्ञान (कंसेप्चुअल नॉलेज) नहीं। वह प्रतीतिगत या आभासी सत्य होता है, सारभूत सत्य नहीं। प्रतीति (अपीयरेंस) को भेदकर सार (एस्सेंस) तक पहुँचने के लिए विज्ञान की ज़रूरत होती है। जैसा कि मार्क्स ने कहा था, यदि प्रतीति ही सार होती, तो विज्ञान की कोई ज़रूरत ही नहीं होती।
शासक वर्ग अपनी मूल्यों-मान्यताओं को शिक्षा और प्रचार-तंत्र के जरिए समाज में 'कॉमन सेंस' के रूप में स्थापित कर देता है, उन्हें जड़ीभूत मान्यता बना देता है। यूँ भी कह सकते हैं कि जो शासक वर्ग का ''सच'' है उसे वह सार्विक सच बनाकर 'कॉमन सेंस' के रूप समाज में स्थापित कर देता है। इन जड़ीभूत मान्यताओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करके ही सच्चाई को जाना जा सकता है।
दूसरे, जो एक युग विशेष का बुद्धिसंगत ज्ञान होता है, वह उस युग के बीत जाने के बाद, जनमानस में 'कॉमन सेंस' बनकर मौजूद रहता है। नये युग के यथार्थ के अवगाहन के लिए उस जड़ीभूत मान्यता के प्रति वैज्ञानिक आलोचनात्मक दृष्टि अपनानी पड़ती है।
इसके अतिरिक्त, यह भी समझना ज़रूरी है कि ज्ञान की दोनों ही अवस्थाएँ वर्ग-सापेक्ष होती हैं यानी इन्द्रियग्राह्य ज्ञान (बोध) और बुद्धिसंगत ज्ञान (धारणा) का सुस्पष्ट वर्ग चरित्र होता है। वस्तुगत यथार्थ (रीयैलिटी) एक ही होता है, लेकिन अलग-अलग वर्गों के संदर्भ-चौखटे में बँधी चेतना उन्हें अलग-अलग तरीके से परावर्तित करती है, अत: वर्ग समाज में लाजिमी तौर पर सत्य (ट्रुथ) का एक वर्ग चरित्र होता है। सत्य निरपेक्ष नहीं, बल्कि सापेक्ष होता है।
कम्युनिस्ट सामाजिक यथार्थ को और उसकी गतिकी को सर्वहारा वर्ग के स्थिति-बिन्दु से देखता है। एक आम सर्वहारा यह नहीं कर सकता, क्योंकि श्रम-विभाजन-जनित अलगाव से ग्रस्त उसकी पिछड़ी चेतना शासक वर्ग के तर्क और संस्कृति से अनुकूलित हो जाती है और वह अपने संकीर्ण, तात्कालिक हित से आगे की बात नहीं सोच पाता। प्राय: वह मिथ्या चेतना (फाल्स कांशसनेस) का भी शिकार होता है। जब जीना असह्य हो जाता है तो वह विद्रोह करता है, लेकिन एक पूरी सामाजिक व्यवस्था को बदलकर एक नयी व्यवस्था के निर्माण के बारे में स्वयं नहीं सोच पाता, अपने वर्गीय ऐतिहासिक मिशन के बारे में स्वयं नहीं सोच पाता।
सर्वहारा वर्ग को क्रांतिकारी चेतना देने का काम पूँजीवादी समाज में थोड़े से उन्नत चेतना के लोग ही शुरू करते हैं, चाहे वह सर्वहारा वर्ग के 'आर्गेनिक' बुद्धिजीवी (बौद्धिक रूप से सक्षम मज़दूर) हों, या फिर रूपांतरित सर्वहारा बुद्धिजीवी (यानी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों में से वे लोग जो सम्पत्ति सम्बन्धों से विच्छेद करके, अपने खुद के वर्गहितों को त्यागकर सर्वहारा वर्ग के साथ खड़े हो गये हों)। फिर वर्ग संघर्ष और क्रांतिकारी शिक्षा के साथ, सर्वहारा वर्ग के भीतर से भी उन्नतचेतस लोग तैयार होने लगते हैं और कम्युनिस्ट बनने लगते हैं। व्यापक आम मेहनतकश जनता क्रमश: अपने तात्कालिक हितों को लेकर लड़ते हुए ही दूरगामी हितों को लेकर लड़ना सीखती है और जब वह व्यवहार में यह देखती है कि कम्युनिस्ट ही ईमानदारी, निष्ठा और सही समझ के साथ उनके हितों को लेकर लड़ रहे हैं तो उनके नेतृत्व को स्वीकार करती है। फिर वह समाजवाद को पूरीतरह नहीं समझते हुए भी इस कारण से समाजवाद के लिए लड़ने को तैयार हो जाती है कि समाजवाद सभी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करेगा और अन्याय तथा श्रम की लूट को समाप्त कर देगा। संघर्ष के दौरान ही मेहनतकश जनता सामूहिक ढंग से निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी महारत हासिल करती है और भावी राज्यसत्ता के भ्रूणों का भी निर्माण करती है। समाजवाद आने के बाद भी सारी जनता कम्युनिज्म के विचारों को स्वीकार नहीं कर लेती, वह उनका समर्थन करती है क्योंकि वह देखती है कि कम्युनिज्म किस प्रकार उनका हितपोषण कर रहा है। तात्पर्य यह कि आम जनता विचारधारा या विज्ञान के प्राधिकार (अथॉरिटी) को किताबें पढ़कर और तर्क करके नहीं स्वीकार करती, बल्कि उसके अमल को देखकर स्वीकार करती है।
लेकिन जहाँ तक समाज के उन उन्नत चेतस तत्वों (खासकर जिन्हें बुर्जुआ ज्ञान और संस्कृति से परिचित होने का सुअवसर मिला है) का ताल्लुक है, जो जनता के पक्ष में खड़े हैं, उनका सर्वोपरि दायित्व यह है कि वे वैज्ञानिक-तार्किक चेतना से लैस हों, अध्ययन करके इतिहास की गतिकी को समझे, अपनी चेतना को जड़ीभूत संस्कारों, अश्मीभूत मान्यताओं और 'कॉमन सेंस' की जकड़बन्दी से मुक्त करें। एक मार्क्सवादी सामने उपस्थित हर वस्तु या विचार से आलोचनात्मक सम्बन्ध (क्रिटिकल रिलेशन) स्थापित करता है। 'क्रिटीक' और 'क्रिटिकल रिलेशन' -- ये शब्द मार्क्सवादी क्लासिक्स में इसीलिए बीज-शब्द के समान स्थापित हैं। 'हर चीज पर सन्देह करो' -- मार्क्स का यह प्रिय सूत्रवाक्य अत्यंत सारगर्भित है। सवाल उठाना और आलोचनात्मक ढंग से सोचना -- यह एक सच्चे मार्क्सवादी की बुनियादी आदत होनी चाहिए। सवाल उठाने और आलोचनात्मक चिन्तन से ही प्रतीतिगत सत्य से सारभूत सत्य की ओर यात्रा की शुरुआत होती है। जिस चीज़ को हम गुरुमंत्र की तरह स्वीकार कर लेते हैं और तोते की तरह रट लेते हैं, उसे हम अमल में नहीं उतार सकते। और एक कम्युनिस्ट के लिए चीज़ों को जानने का एकमात्र मतलब हैं चीजों को बदलने के लिए उस जानकारी का इस्तेमाल करना। 'चीजों को बदलने के लिए चीज़ों को समझो और चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में ख़ुद को बदलो' -- सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के दौरान माओ त्से-तुंग द्वारा दिया गया यह नारा बेहद सारगर्भित है, अत्यंत द्वंद्वात्मक है।
जो 'कॉमन सेंस' या स्थापित मान्यताओं पर प्रश्न उठाते हैं और उन्हें गलत सिद्ध करते हैं, वे शुरू में अलग-थलग पड़ जाते हैं। हर युग में कोई नया वैज्ञानिक सिद्धान्त, नयी धारणा या नयी विचारधारात्मक या राजनीतिक लाइन प्राय: चन्द एक लोगों की चेतना में ही सुनिश्चित रूपाकार ग्रहण करती है। फिर लम्बे वैचारिक संघर्ष और व्यावहारिक प्रयोगों के बाद वह कुछ उन्नत-चेतस लोगों के समूह और जनसमुदाय के एक छोटे हिस्से में स्वीकार्य होती है। फिर प्रयोग के अगले चरणों में वह अपने को परिष्कृत और सत्यापित करते हुए, कालान्तर में व्यापक जनता को गोलबंद करने वाली धुरी बन जाती है। इसीलिए स्तालिन और माओ ने कहा था कि 'एक बार जब राजनीतिक लाइन तय हो जाती है तो कार्यकर्ता निर्णायक शक्ति बन जाते हैं।' और फिर जैसा कि माओ ने कहा था, कार्यकर्ता जब राजनीतिक लाइन को प्रचार और प्रयोग के जरिए जनता में स्थापित कर देते हैं तो जनता निर्णायक शक्ति बन जाती है। इस तरह 'जनता द्वारा अपना लिए जाने के बाद विचार स्वयं एक भौतिक शक्ति बन जाता है।'
एक कम्युनिस्ट में दो धरातलों पर निष्कम्प-अटूट साहस होना ज़रूरी है। एक, जब उसकी वैज्ञानिक चेतना इस सुनिश्चित नतीजें पर पहुँच जाती है कि इतिहास या समाज का अमुक विश्लेषण सही है या अमुक विश्लेषण ग़लत है, फलां राजनीतिक लाइन गलत है और यह राजनीतिक लाइन सही है, तो उसे कहने में उसे ज़रा भी देर नहीं करनी चाहिए, चाहे उसे जितने भी विवादों, लोकापवादों और अलगावों का सामना करना पड़े। परिस्थितियाँ बदल जाने पर भी पुरानी सोच जड़ीभूत मान्यता की तरह बनी रहती है और हर नयी सोच धारा के विऱद्ध तैरकर ही अपने को स्थापित करती है। दूसरी बात, हर राजनीतिक लाइन के सत्यापन की अंतिम कसौटी व्यवहार ही होती है। अत: सच्चा कम्युनिस्ट वही है, जो अपनी सोच को वर्ग संघर्ष के प्रयोग में उतारने का साहस करे, अपनी राजनीतिक लाइन पर जनता को जागृत, गोलबंद और संगठित करे। अन्यथा नित-नये सिद्धांत देने वाले बात बहादुरों और किताबी कीड़ों की वैसे भी कमी कहाँ हैं! बाल की खाल निकालकर चौंक-चमत्कार पैदा करने वाले बहुतेरे वाम बुद्धिजीवी तो इसी धंधे से अपना पेट पालते हैं और काफी अच्छी तरह से पालते हैं।
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