--कविता कृष्णपल्लवी
औसत अमेरिकी नागरिक जितने खाये-अघाये लोग होते हैं, उतने ही मूर्ख और कूपमण्डूक भी।
एक हजार अमेरिकी लोगों पर किये गये एक सर्वेक्षण में उनसे पूछा गया कि यदि उन्हें पता चले कि उनका बेटा 'होमोसेपियन' है, तो वे क्या करेंगे? सत्तर प्रतिशत लोगों ने उत्तर दिया कि वे पिछवाड़े लात मारकर उसे घर से बाहर निकाल देंगे!
अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिष्ठान ने 2200 लोगों पर एक सर्वेक्षण कराया। सर्वेक्षण के 9 सवाल भौतिकी और जीव विज्ञान विषयक सामान्य ज्ञान के थे। 74 प्रतिशत लोगों ने बताया किे सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है। 48 प्रतिशत लोगों ने बताया कि इंसान धरती के प्राचीनतम प्राणियों में से एक है। मात्र 6.5 प्रतिशत लोगों ने ही सही उत्तर दिये।
यही स्थिति भारत के धनपशुओं की भी है। पढ़े-लिखे नवधनिकों के नौनिहालों की भी। आप युवा उद्यमियों, डाक्टरों, इंजीनियरों, तथा कम्प्यूटर और कॉमर्स की दुनिया में पैसा पीटने वालों से बात करके देखिये। अपने क्षेत्र के बाहर दीन-दुनिया, समाज, इतिहास, राजनीति, कला-साहित्य-संस्कृति के बारे में उनकी जानकारी और दिलचस्पी शून्य होती है। प्राय: ऐसे सभी गोबर-गणेशों के नायक नरेन्द्र मोदी होते हैं। ग़रीबों और मेहनतक़शों के प्रति प्राय: इनके दिलों में अकूत नफरत भरी होती है। पश्चिमी 'सुपर हीरोज़' से लेकर सलमान खान तक और निकृष्टतम पश्चिमी संगीत से लेकर हनी सिंह तक इनकी पसंद का दायरा होता है। विलासिता और शौक की उपभोक्ता सामग्रियों के बारे में इनकी जानकारी अथाह होती है।
पूँजी पूँजीपतियों पर लगाम कसकर घुड़सवारी करने के साथ ही अधिशेष के भागीदार सभी परजीवियों को महज भोगी, इन्द्रियविलासी और दिमाग से पैदल दोपायों में तबदील कर देती है। शोषक मुफ्तखोर सम्पदा-संचय के साथ ही मानवीय सारतत्व से रिक्त होते जाते हैं। ऐसे में जो थोड़े से प्रबुद्ध, सुसंस्कृत लोग सत्तातंत्र से नाभिनालबद्ध होकर रक्तपायी समूहों की सेवा करते हैं, वे पूँजीवाद के लिए बहुत काम के लोग होते हैं और अपनी सेवा के लिए सत्ता से उन्हें यथेष्ट पुरस्कार भी मिलते हैं। लेकिन उनकी इससे बड़ी सजा भला और क्या हो सकती है कि अपनी समस्त ज्ञान-गरिमा और संस्कृति-सम्पदा के बावजूद वे असभ्य बर्बरों के टुकड़खोर कुत्ते होते हैं।
सता के टुकड़खोर ऐसे संस्कृति पुरुष प्राय: अपने कुण्ठा-शमन के लिए साहित्यिक पत्रिकाओं में, अखबारों के पन्नों पर और सोशल मीडिया में संस्कृति-विमर्श करते रहते हैं, खोखली विद्वता का अपानवायुसरण करते रहते हैं और कविताएँ-कहानियाँ लिखते रहते हैं। इन्हें प्राय: कुछ नकली वामपंथी भाट-चारण भी मिल जाते हैं, जो सत्ता के पद-पीठ-पुरस्कार की मलाई पाकर चाटने के आकांक्षी होते हैं।
मूर्खों की सत्ता इस तरह विद्वानों के सहारे चलती है। इसतरह विद्वता बर्बरता के साथ ही मूर्खता की भी सेवा करती है। इसतरह पूँजीवाद मूर्खता और विद्वता का समागम कराता है। यह युग 'प्रबुद्ध निरंकुशों' (एनलाइटेण्ड डेस्पॉट्स) का नहीं है। हमारे युग में मूर्ख निरंकुश रीढ़विहीन विद्वान चाकरों के सहारे शासन करते हैं।
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