-- कविता कृष्णपल्लवी
अरविन्द केजरीवाल ने 30 अप्रैल को 'हिन्दू' अख़बार को दिये गये एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि 'वे न वाम हैं, न ही दक्षिण हैं, वे केवल व्यावहारिक हैं।' इसके पहले भी केजरीवाल और उनके सिपहसालारों से जब भी विचारधारा के बारे में पूछा जाता रहा है तो वे कहते रहे हैं कि उनकी विचारधारा यदि कोई है तो वह ''आम आदमी'' है।
ऐसी बातें या तो कोई परले दर्जे़ का मूर्ख कह सकता है या हद दर्जे़ का चालाक। राजनीतिक, वैधिक, नैतिक, दार्शनिक विचारों की एक प्रणाली के रूप में विचारधारा सामाजिक अधिरचना का एक हिस्सा होती है जो आर्थिक सम्बन्धों को परावर्तित करती है तथा चेतन-अचेतन के तौर पर जीवन की वस्तुगत स्थितियों को बदलने में चेतना की भूमिका तय करती है। कोई भी सामाजिक प्राणी विचारधाराविहीन हो ही नहीं सकता, चाहे वह विचारधारा सचेतन तौर पर काम करती हो या अचेतन तौर पर। विचारधारा यथार्थ का मिथ्या या सच्चा प्रतिबिम्बन -- दोनों हो सकती है। दर्शन, विज्ञान और राजनीति का ''निर्विचारधाराकरण'' स्वयं में एक विचारधारा है। विचारधारा को नकारना स्वयं में एक विचारधारा है।
आम आदमी अपने आप में कोई विचारधारा नहीं है, वह वर्गों में बँटी हुई जनता है और उसके हित में राजनीतिक-आर्थिक नीतियाँ कोई व्यक्ति, समूह या पार्टी विचारधारा के आलोक और फ्रेमवर्क में ही बना सकती है। जॉन डेवी का व्यवहारवाद (प्रैग्मेटिज़्म) का राजनीतिक सिद्धांत भी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता को खारिज करते हुए हर वह नीति और रास्ता अपनाने की बात करता था जो मक़सद पूरा करता हो। आज से लगभग एक सदी पहले मार्क्सवाद ने यह सिद्ध कर दिया था कि यह व्यवहारवाद भी वास्तव में बुर्जुआ विचारधारा ही है।
पूँजीवादी समाज में राजनीति या तो वामपंथी होगी या दक्षिणपंथी। बीच की कोई अवस्थिति हो ही नहीं सकती। अब अरविन्द केजरीवाल की राजनीति को ही लें। आप पार्टी भ्रष्टाचार की जड़ पूरी व्यवस्था में, या यूँ कहें कि, मज़दूरों से अधिशेष निचोड़ने के मूल मंत्र से संचालित पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना में नहीं देखती, बल्कि इसके लिए वह कुछ व्यक्तियों को जिम्मेदार मानती है जो भ्रष्ट हैं। बुराई की जड़ वह सामाजिक ढाँचे में नहीं बल्कि व्यक्तियों में देखती है और उस बुराई को दूर करने के लिए कुछ शासकीय-प्रशासकीय युक्तियाँ सुझाती है। आप पार्टी साम्राज्यवादियों और देशी पूँजीपतियों द्वारा अधिशेष निचोड़ने की सबसे बुनियादी बुराई का कोई निदान नहीं बनाती। उदारीकरण निजीकरण की नीतियों की वह पुरज़ोर समर्थक है, बस वह उसे एक ''मानवीय चेहरे'' के साथ लागू करने की बात करती है। शिक्षा और स्वास्थ्य के बढ़ते निजीकरण को समाप्त करने की उनकी कोई मंशा नहीं है। घोर मज़दूर विरोधी श्रम नीतियों और श्रम कानूनों को बदलने की उसने आजतक कोई स्पष्ट बात नहीं की। उसके पास 'समान, निशुल्क शिक्षा और सबको रोज़गार' की कोई नीति नहीं है। जम्मू कश्मीर, उत्तर पूर्व के राज्यों में सरकार द्वारा ए.एफ.एस.पी.ए. लगाकर बर्बर सैनिक दमन करने और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के उत्पीड़न पर उसका कोई स्टैण्ड नहीं है(यानी वह उसके पक्ष में है)। पड़ोसी देशों के प्रति धौंसपट्टी और विस्तारवाद की तथा साम्राज्यवादी देशों के सामने घुटने टेकने की भारत सरकार की विदेश नीति को भी उसका मौन समर्थन है। आप पार्टी के नेता खाप पंचायतों तक का समर्थन करते हैं। बस, आप पार्टी भ्रष्टाचार-निर्मूलन (जो पूँजीवाद में संभव ही नहीं) को सौ मर्ज़ों की एक दवा के रूप में प्रस्तुत करती है। उसके ''आम आदमी'' के दायरे में सिर्फ मध्यवर्ग आता है, मज़दूर नहीं। यह सब एक सस्ता लोकरंजकतावाद है।
पर इस सस्ते लोकरंजकतावाद की विचारधारा को समझने के लिए जब हम बुनियादी आर्थिक राजनीतिक प्रश्नों पर इसकी अवस्थिति देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि आप पार्टी की विचारधारा धुरदक्षिणपंथी विचारधारा है जो व्यवस्था की आज की ज़रूरत के हिसाब से सुधारवाद, पैबंदसाज़ी और 'व्हिसलब्लोइंग' की नीति लेकर राजनीति के रंगमंच पर आई है। ऐसी पार्टियों की यह भूमिका प्राय: स्थायी नहीं हुआ करती। अपनी आज की यह विशेष भूमिका निभाने के बाद यह पार्टी या तो बिखर जायेगी और इसका सामाजिक समर्थन-आधार बहुसंख्यावादी धार्मिक कट्टरपंथी भाजपा के नेतृत्व वाले ब्लॉक के साथ जाकर जुड़ जायेगा, या फिर यह स्वयं दक्षिणपंथी चरित्र वाली एक सामाजिक जनवादी पार्टी की तरह इसी बुर्जु़आ संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी।
संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों के बहुतेरे सदस्य और बहुतेरे पराजित-मानस कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी गत दिनों आप पार्टी की भूमिका का सकारात्मक आकलन करते रहे हैं और कइयों ने तो उसका दामन भी थाम्ह लिया। ये वे ''कम्युनिस्ट'' थे जिनकी खुद की विचारधारा की समझ दिवालिया थी। मात्र भावनात्मकता और अनुभववाद के सहारे वे कम्युनिज़्म से जुड़े थे। इनमें से कुछ पतित सामाजिक जनवादी बन चुके थे, कुछ थक-हार-टूट चुके थे और कुछ केजरीवाल की तरह ही कूपमण्डूक व्यवहारवादी बन चुके थे। उन्हें वहीं जाना था, जहाँ वे गये।
कोई पढ़ा-लिखा जेनुइन कम्युनिस्ट केजरीवाल की राजनीति के चरित्र और परिणति को बहुत आसानी से समझ लेता है। सब कुछ इतना भोंड़ा, भद्दा, सतही और कूपमण्डूकतापूर्ण है कि समझने को कुछ है ही नहीं। जो व्यक्ति एक राजनीतिक पार्टी का नेता है और कहता है कि हम वाम या दक्षिण कुछ भी नहीं, हमारी कोई विचारधारा नहीं, वह या तो ठग है, या चुगद, या फिर दोनों ही।
बहुत बढ़िया और सारगर्भित लेख, बधाई कविता जी
ReplyDeleteआप ने केजरीवाल के इन्टरव्यू का अपना मूल्याँकन प्रस्तुत किया है । यह एक तरह से केजरीवाल का अवमूल्यन है ।
ReplyDeleteबेहतर होता कि आप उस इन्टरव्यू को भी प्रस्तुत करती ताकि केजरीवाल के तर्क भी सामने आते ।