Friday, May 30, 2014

एक कोयल या बुलबुल, एक जला ठूंठ, एक बंदूक और एक चमगादड़


- कविता कृष्णपल्लवी


एक कोयल या बुलबुल थी, एक जला हुआ ठूंठ था और एक बंदूक थी। और हां, उसी ठूंठ के कोटर में एक चमगादड़ भी रहता था।




जो हरा-भरा था, उसे जला कर ठूंठ कर दिये जाने के बावजूद बंदूक कोयल को जली ठूंठ पर बैठकर कूक जाने से रोक नहीं सकी। चमगादड़ का कभी कुछ नहीं बिगड़ा, न ही उसे कोई फर्क पड़ा। पेड़ जब हरा-भरा था और जब जला हुआ ठूंठ हो गया, दोनों ही सूरतों में कोटर एक जैसा ही था, आरामदेह, अंधेरा और सुकूनदेह सीलन से भरा हुआ।


चमगादड़ अपने को जगत का सूक्ष्म पारखी समझता था और कला का अनन्य एकान्त साधक। समस्या यह थी कि दिन की रौशनी में जब जीवन की सारी सरगर्मियां अपनी सुन्‍दरता और कुरूपता के साथ, अपनी उदात्ता और क्षुद्रता के साथ शबाब पर होती थीं, उस समय चमगादड़ अंधा होकर अपने सुरक्षित कोटर में पड़ा रहता था। उसे दिन के उजाले में सक्रिय पशु-पक्षियों, रंगों-रूपों के बारे में कुछ नहीं पता था। यहां तक कि उसे कोयल और बुलबुल के बीच का फर्क भी नहीं पता था। दिन के उजाले की ध्वनियां उसे कर्कश लगती थीं। वह उस समय अपने कोटर में दोनों कान पंखों से ढंककर पक्षियों के नुचे पंखों से बने तकिये में मुंह भींचकर पड़ा रहता था। दिन के उजाले में चीज़ें इतनी साफ़ दिखती थीं कि कला की गुंजाइश ही नहीं दिखती थी। कला के लिए रहस्यमयता ज़रूरी होती है। रात का अंधेरा चमगादड़ को सुरक्षित भी लगता था और रहस्यमय भी। रहस्यमयता चमगादड़ के लिए कला के सृजन और आस्वाद के लिए अनुकूल परिवेश रचती थी। चमगादड़ को रात में हारमो‍नियम सुनना बहुत प्रि‍‍य था। रात की आर्तनादें भी उसे आकृष्ट करती थीं, वह सुरक्षित दूरी पर रहकर उन आर्तनादों में एकाकी के शाश्व‍त त्रास और त्रासद नियति का संधान करता था और फिर उनका कलात्मक पुनर्सृजन करता था। रहस्य, आतंक और त्रासदियों को सुरक्षित रहते हुए स्वयं महसूस करने की निर्मल तदनुभूति उसकी आत्मा  के पोर-पोर में समा जाती थी। उसकी कला तमाम एकाकी रात्रिचरों को बहुत भाती थी। यहां तक कि बंदूक भी कभी-कभी मुग्ध  हो जाती थी और चमगादड़ के प्रति उसके दिल में प्याार उमड़ पडता था। नादान बुलबुल भी कभी-कभी पेंचदार सुर लहरियों में खोकर मानो दृष्टिहीन हो जाती थी, अपनी चौकसी खो बैठती थी और बंदूक का शिकार हो जाती थी। बंदूक कर्तव्यनिष्ठ थी। वह अपना काम कभी नहीं भूलती थी।


चमगादड़ यायावर भी था और उसे अपनी यायावरी पर गर्व था। एक रात में बार-बार नदी पार तक जाकर वह अपने कोटर तक लौट आता था। बंदूकों के जलसों में चमगादड़ की बहुत पूछ थी। बन्दूकों के अकेले, निरीह शिकारों की मार्मिक त्रासदी को चमगादड़ की कला के माध्यम से सुनना-देखना बंदूकों को बहुत सुहाता था। वे चमगादड़ को बार-बार पुरस्कृत करते थे और चमगादड़ प्रेरित होकर ताकतवर बंदूकों के हाथों एकाकी संवेदनशील जीवन की त्रासद समाप्ति की 'रियलिटी' को 'वर्चुअल्टी' के रूप में प्रस्तुत करता था क्योंकि वर्चुअल्टी' को ही वह 'रियलिटी' मानता था। 'इल्युज़न' को ही वह यथार्थबोध मानता था और 'हेल्युसिनेशन' को सारभूत यथार्थ का अवधारणायन (कंसेप्चुअलाइज़ेशन) तथा आत्मबोध। इस 'हेल्युसिनेशन' जनित आत्मविश्वास से ही चमगादड़ यह सोचता था कि बंदूकों के जलसे में प्रशंसित-पुरस्कृ्त होकर भी वह अपनी गहन संवेदना को अक्षत बनाये रखेगा और न्याय के एकाकीपन तथा बंदूक के अप्रतिरोध्य वर्चस्व की त्रासदी को कविताओं-कहानियों-फिल्मों में उकेरता रहेगा। हत्यारी बंदूकों के हाथों पुरस्कृत होकर अपनी संवेदना को बचाये रखना एक मिथ्या  चेतना थी या जीवन का जादू -- पता नहीं। चमगादड़ इसे जादुई यथार्थ मानता था। उसका मानना था कि यथार्थ होता ही जादुई है। जीवन ही जादू है। चमगादड़ वैज्ञानिक जीवन दृष्टि का मुकाम तो पहले ही छोड़ चुका था। अब वह धार्मिक जीवन दृष्टि से आगे जादुई जीवन दृष्टि की चौहद्दी में प्रविष्ट  हो चुका था।


बंदूकों की कला महफिलों में कुछ बुलबुलें (या शायद कोयलें, चमगादड़ को दोनों के बीच अंतर नहीं पता था) भी गाती थीं। ये जले ठूंठ पर कूक जाने वाली कोयल (या बुलबुल) जैसी ही दिखती थीं, पर वास्तव में बिल्कुतल अलग थीं। शिकार होने वाले जीवों में से कुछ की हमेशा ही शिकारी से दोस्ती हो जाती है। शिकार की क्रिया का यह भी एक अलक्षित नियम है। कुछ कोयलें (या बुलबुलें) तो जले ठूंठ पर नहीं, बंदूक की नाल पर ही बैठकर गाती हैं।


इस कथा के बाहर का तथ्य यह है कि चमगादड़ को ठूंठ, कोयल, बुलबुल, बंदूक और कुछ अन्य रात्रिचरों के अतिरिक्त दिन के जीवन के बारे में कुछ भी नहीं पता था। दिन के जीवन की सकारात्मकता में उसकी गहरी अनास्था थी। उसे पहाड़ी बाज़ या पि‍तरेल के बारे में कुछ नहीं पता था। उन्हें  वह 'ड्रोन' समझता था। बंदूकों की महफिल में बार-बार सम्मानित-पुरस्कृत होकर भी वह घोर संवेदनशील था और हर प्रकार की हिंसा का घोर विरोधी था। यह चमगादड़ के बहिर्जगत और अंतर्जगत का जादुई यथार्थ था।


{पुनश्च, इस कहानी के चार 'वर्ज़न' (या चार पाठ) हैं। एक चमगादड़ का 'वर्ज़न', एक ठूंठ का, एक कोयल का और एक बंदूक का। मुझे चमगादड़ की डायरी में चमगादड़ी रहस्य और जादू की अमूर्त भाषा में दर्ज चमगादड़ का ही 'वर्ज़न' मिला, जिसका बड़ी मुश्किल से विकूटन ('डीकोडिंग') करके आम पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रही हूं।}

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