--कविता कृष्णपल्लवी
मिस्र का इतिहास एक गोल चक्कर घूमकर फिर वहीं पहुँच गया, जहाँ वह राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के निरंकुश सर्वसत्तावादी शासन के दौर में था। अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके विश्वस्त सहयोगी मिस्र के बुर्जुआ वर्ग को अपने छल नियोजन में फिलहाल कामयाबी मिल चुकी है। मिस्र की जनता की आकांक्षाएँ एक बार फिर अंधकारमय पार्श्वभूमि में धकेल दी गयी हैं। जनरल सिसी की अगुवाई वाला सैनिक शासन हुस्नी मुबारक के शासन जैसा ही निरंकुश और अमेरिकापरस्त है।
पिछले दिनों मिस्र की एक अदालत ने मुस्लिम ब्रदरहुड के प्रमुख मोहम्मद बादेई और उनके 682 समर्थकों को मौत की सज़ा सुनाई। उनपर विगत 14 अगस्त को पुलिस कर्मियों पर हमले और उनकी हत्या में शामिल होने का आरोप था। ऐसी ही कुछ सजाएँ इसके पहले भी सुनाई जा चुकी हैं और अभी भी यह सिलसिला जारी है। उल्लेखनीय है कि 14 अगस्त को काहिरा में हुई झड़प में कुछ पुलिस वाले हताहत हुए थे जबकि पुलिस के हाथों मुस्लिम ब्रदरहुड नामक इस्लामी कट्टरपंथी संगठन से ताल्लुक रखने वाले अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के सैकड़ों समर्थक मारे गये थे।
अभी 2011 की ही बात है जब काहिरा का तहरीर चौक देश व्यापी जनउभार के केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया के अखबारों की सुर्खियों में था। हुस्नी मुबारक की भ्रष्ट तानाशाही के विरुद्ध भड़के इस जनउभार में छात्र-युवा, जनवादी चेतना वाले और रैडिकल बुद्धिजीवियों तथा मज़दूरों की व्यापक शिरकत थी। इस उभार में नासिरवादी सर्वअरब सेक्युलर बुर्जुआ राष्ट्रवादियों, विभिन्न वाम धाराओं और सामाजिक जनवादियों के साथ-साथ मुस्लिम ब्रदरहुड, गामा इस्लामिया, अल नूर आदि कई सलाफी इस्लामी कट्टरपंथी संगठन भी सक्रिय थे। मुस्लिम ब्रदरहुड सबसे पुराना और सबसे बड़ा कट्टरपंथी संगठन है। हालात की नजाकत को भाँपते हुए अमेरिकी साम्राज्यावादियों ने हुस्नी मुबारक को अधर में छोड़ दिया। सेना के विश्वस्त उच्चाधिकारियों को भरोसे में लेकर हुस्नी मुबारक को पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। सेना ने राजनीति में अहस्तक्षेप का दिखावा करते हुए चुनाव होने दिया, जिसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद का परोक्ष समर्थन पूरीतरह से मुस्लिम ब्रदरहुड को हासिल रहा। मुस्लिम ब्रदरहुड को चुनाव में बहुमत मिला और मुर्सी नये राष्ट्रपति बने। सत्ता में आने के पहले ही मुर्सी अमेरिका को आश्वस्त कर चुके थे कि वे फिलीस्तीन के मसले पर अनवर सादात और हुस्नी मुबारक की नीतियों को जारी रखेंगे और अरब क्षेत्र में अमेरिकी हितों का पूरा ख़याल रखेंगे। उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व मुस्लिम ब्रदरहुड आम मिस्री जनता का समर्थन हासिल करने के लिए अमेरिकी चौधराहट और इस्रायली जियनवाद की आलोचना करते हुए हमेश फिलिस्तीनी स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करता रहा था। सत्तासीन होने के साथ ही मुर्सी और मुस्लिम ब्रदरहुड के ''साम्राज्यवाद-विरोध'' की कलई उतरते देर नहीं लगी। मुर्सी ने गाजा पट्टी और हम्मास की घेरेबंदी के लिए मिस्र की सीमा को सील कर देने की हुस्नी मुबारक की पुरानी नीति को जारी रखा। अमेरिका के साथ पूर्ववत् सहकार सम्बन्ध जारी रहे। सीरिया के प्रश्न पर भी मुर्सी की नीतियाँ अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों के पक्ष में ही थीं। यही नहीं, मुर्सी ने सऊदी अरब व अन्य शेखों-शाहों की अमेरिका-परस्त सत्ताओं के साथ, इस्लामी(सुन्नी कट्टरपंथी) भाईचारे के नाम पर निकटता बढ़ायी। इन सारी घटनाओं से मिस्र की व्यापक आम जनता में निराशा, आक्रोश और मोहभंग का माहौल बनने में देर नहीं लगा। मिस्री समाज परम्परागत तौर पर उदार, सेक्युलर और आधुनिक समाज रहा है। नासिर की सर्वअरब राष्ट्रवादी नीति के पतित होकर सादात और मुबारक कालीन अमेरिकापरस्ती तक पहुँच जाने और विगत तीस वर्षों के दौरान विश्वव्यापी प्रतिक्रिया के दौर में इस्लामी कट्टरपंथ के बढ़ते प्रभाव के चलते मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड, अल नूर, गामा इस्लामिया जैसे सलाफी कट्टरपंथी गुटों का प्रभाव तेजी से बढ़ा था। फिर भी गत चुनावों में मुस्लिम ब्रदरहुड को यदि बहुमत मिला था तो इसका मुख्य कारण यह था कि कई सेक्युलर, उदारवादी और सर्वअरब राष्ट्रवादी तथा सामाजिक जनवादी वाम पार्टियों में इस्लामी कट्टरपंथ विरोधी मत विभाजित हो गये थे। 2011 के जनउभार में क्रांतिकारी वाम के कई छोटे-छोटे ग्रुप भी शामिल थे, पर उनका जनाधार व्यापक नहीं था और अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक कमज़ोरी के कारण वे जन उभार में शामिल मज़दूरों और निम्नमध्यवर्गीय छात्रों-युवाओं को अपनी ओर खींच पाने में विफल रहे थे। इन ग्रुपों की चुनावों में न तो भागीदारी थी, न ही इनकी ऐसी स्थिति थी।
यहाँ इतिहास के इस तथ्य को याद कर लेना ज़रूरी है कि एक ज़माने में फिलिस्तीन, लेबनान, सीरिया, मिर्स और इराक में कम्युनिस्ट आंदोलन काफी मजबूत था। 1960 के दशक में नासिर के नेतृत्व वाली सर्वअरब रैडिकल बुर्जुआ राष्ट्रवादी धारा, और बाथ पार्टी के रैडिकल बुर्जुआ राष्ट्रवादी धारा ने सत्तासीन होने के बाद एक ओर जहाँ काफी हद तक साम्राज्यवाद विरोधी अवस्थिति अपनायी थी, इस्लामी कट्टरपंथ का मुखर विरोध किया था और बहुत सारे जनकल्याणकारी कामों (जैसे तेल राजस्व की राजकीय आय से शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि सुविधाएँ मुहैया कराना) को भी अंजाम दिया था, वहीं इन सत्ताओं ने 1960 के दशक में कम्युनिस्ट आंदोलन का बेरहमी से दमन भी किया था (कालान्तर में ये सभी सत्ताएँ, भ्रष्ट निरंकुश सत्ताएँ बन गयी थीं)। अपने तत्कालीन स्वाभाविक संश्रयकारी को कुचलने के ''पाप'' की कीमत इन राष्ट्रीय बुर्जुआ सत्ताओं ने भ्रष्ट होने और पश्चिमी साम्राज्यवाद द्वारा कुचले जाने के रूप में चुकाई। मिस्र और आसपास के अन्य देशों के कम्युनिस्ट आंदोलन को कमज़ोर और निश्शस्त्र बनाकर जनसमुदाय से दूर कर देने में दूसरी अहम भूमिका 1960 के दशक में ख्रुश्चोवी संशोधनवाद की विश्वव्यापी लहर के प्रभाव ने निभाईं थी।
बहरहाल, जिन परिस्थितियों में मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड सत्तारूढ़ हुआ और फिर जल्दी ही उसके विरुद्ध व्यापक मोहभंग की शुरुआत हो गयी, उस चर्चा की ओर वापस लौटते हैं। मुर्सी हुकूमत की समझौतापरस्ती और विश्वासघात से आक्रोशित जनता एक बार फिर सड़कों पर उतर पड़ी। तहरीर चौक एक बार फिर जोशीली तक़रीरों, नारों और झण्डों से गुलजार हो गया। वास्तव में यह सबकुछ अमेरिका के गेमप्लान का हिस्सा था। उसने अपना कार्ड् शातिराने चतुराई के साथ खेला। उसे पता था कि मुर्सी अपनी नीतियों के कारण जल्दी ही अलोकप्रिय हो जायेंगे और फिर स्वयंस्फूर्त, किसी स्पष्ट राजनीतिक दिशा से रिक्त जनउभार को दिग्भ्रमित करके और बिखराकर वह अधिक भरोसेमंद सेना का परोक्षत: सत्ता पर निर्णायक नियंत्रण स्थापित करने का अवसर देकर निश्चित हो सकेगा। अमेरिका मुर्सी हुकूमत का इस्तेमाल वास्तव में एक 'स्टॉपगैप-अरेंजमेण्ट' के रूप में कर रहा था। वह उसपर पूरा भरोसा नहीं कर सकता था।
इस्लामी कट्टरपंथ के प्रति अमेरिका का हमेशा से यही रवैया रहा है। सेक्युलर, राष्ट्रीय बुर्जुआ सत्ताओं को अस्थिर बनाने के लिए अफगानिस्तान और अफ्रीका के देशों से लेकर हाल में लीबिया और सीरिया तक में इस्लामी कट्टरपंथियों का भरपूर इस्तेमाल किया। लेकिन यही कट्टरपंथ जब भस्मासुर बनकर उसके हितों को नुकसान पहुँचाने लगता है, या अमेरिका के लिए उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है तो फिर वह उन्हें भी किनारे लगा देता है। मुर्सी की सत्ता के साथ भी यही हुआ।
जून1913में मुर्सी ने अपने सहयोगी इस्लामी कट्टरपंथी क्षेत्रीय नेताओं को मिस्र के 27 में से 13प्रांतों का गवर्नर नियुक्त कर दिया। इसके बाद ही जनता फिर सड़कों पर उतर पड़ी। अनुकूल मौका पाकर सेना ने हस्तक्षेप किया और जुलाई में मुर्सी को राष्ट्रपति पद से हटा दिया। सेनाध्यक्ष अब्दुल फतेह अल सिसी को मीडिया ने जनतंत्र के पहरुए के रूप में खूब उछाला ताकि जनता की आँखों में धूल झोंकी जा सके। मुस्लिम ब्रदरहुड ने अंतरिम राष्ट्रपति अदली मंसूर द्वारा प्रस्तुत नये चुनावों के टाइम टेबुल को अस्वीकार कर दिया और मुर्सी समर्थक तहरीर चौक और काहिरा की सड़कों पर जम गये। अगस्त 2013 में सुरक्षा बलों द्वारा बलात् उन्हें हटाने की प्रक्रिया में क़रीब 2000 मुर्सी समर्थक मारे गये। इसके बाद कोर्ट ने मुस्लिम ब्रदरहुड पर प्रतिबंध लगा दिया और उसकी सारी चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। जल्दी ही फिर उसे आतंकवादी संगठन भी घोषित कर दिया गया। उत्तरी सिनाई क्षेत्र में सेना ने फिलिस्तीनी मुक्ति और हमास के समर्थक सभी रैडिकल ग्रुपों के विरुद्ध सघन मुहिम चलाई और गाजा पट्टी की सीमा को और सख़्ती से सील कर दिया। नवम्बर 2013 में हर प्रकार के जन प्रदर्शनों और आंदोलनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जनवरी 2014 में देश के नये संविधान के लिए जनमत संग्रह हुआ। धर्म पर आधारित सभी पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन सिसी के ''नायकत्व'' पर अब प्रश्नचिन्ह लगने लगे थे। जनता को धीरे-धीरे समझ में आने लगा था कि देश सेक्युलर जनतंत्र की बहाली नहीं बल्कि सेना के इशारों पर चलने वाली एक अमेरिकापरस्त घोर नवउदारवादी सत्ता की स्थापना की दिशा में जा रहा है। देशव्यापी आतंकराज मुबारक युग की वापसी का स्पष्ट संकेत दे रहा था। फरवरी 2014 में प्रधानमंत्री हाज़ेम अल-बेब्लावी ने अचानक इस्तीफा दे दिया, जिसका असली कारण सेना का दबाव बताया जाता है। मार्च में सेनाध्यक्ष अब्दुल फतेह अल सिसी ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया, जो इसी मई महीने में होने हैं।
वस्तुत: आतंक के राज को और पुख्ता बनाने के लिए ही मिस्र की एक अदालत ने मुस्लिम ब्रदरहुड के प्रमुख और उनके 682 समर्थकों को मौत की सजा सुनाई। मिस्र की न्यायपालिका भी आज सेना की कठपुतली से अलग कुछ भी नहीं है। मौजूदा हालात में, तय है कि मिस्र के बुर्जुआ वर्ग ने अपना प्रतिनिधि चुन लिया है। आज मिस्र में कोई ऐसी बुर्जुआ जनवादी पार्टी या वाम रैडिकल ग्रुपों का गठबंधन नहीं है जो सिसी को प्रभावी चुनौती पेश कर सके। फिर सच्चाई यह भी है कि चुनाव की पूरी प्रक्रिया पर सेना का नियंत्रण होगा और नतीजें वही होंगे जो सेना चाहेगी। इस तरह मिस्र का जन विस्फोट एक बार फिर बिखर गया और चार वर्षों बाद मिस्र वहीं पहुँच गया जहाँ था।
लेकिन इतना तय है कि साम्राज्यवादियों का सुख चैन हमेशा के लिए बहाल नहीं हुआ है। सच्चाई यह है कि केवल मिस्र ही नहीं, इराक, लीबिया, जॉर्डन सहित पूरा अरब जगत एक धधकती ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है। वहाँ साम्राज्यवादी दुनिया के सभी अन्तरविरोध गुँथ-बुनकर एक गाँठ के रूप में एकत्र हो गये हैं। पूरी अरब जनता में शेखों-शाहों के साथ ही पश्चिम परस्त बुर्जुआ सत्ताओं में गहरी नफ़रत सुलग रही है। इस्लामी कट्टरपंथ के परचम तले साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष नहीं चलाया जा सकता, यह बात साफ होती जा रही है। तथाकथित गुलाबी क्रांति की लहर की सीमाएँ और परिणतियाँ भी साफ होती जा रही हैं। फिलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष तमाम बाधाओं-चुनौतियों के बावजूद अदम्य है, यह विश्वास समूची अरब जनता में पुख्ता शक़्ल में मौजूद है। उधर यह अहसास इस्रायली शासक वर्ग के भीतर भी दरारें पैदा कर रहा है। अमेरिका परस्त इस्लामी हुकूमतों के भीतर भी गहराता सामाजिक-राजनीतिक संकट अन्तरविरोध पैदा कर रहा है। सऊदी अरब और कतर के बीच अन्तरविरोध गम्भीर हो चुके हैं। यह सच है कि मेहनतक़श अवाम की संगठित हरावल शक्तियों की अनुपस्थिति के कारण अभी उस दुश्चक्र से अरब जगत इतनी जल्दी मुक्त नहीं होने वाला है, जिसकी शुरुआत उपनिवेशवाद के जमाने में हुई थी। लेकिन इतना तय है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद कभी भी निर्बाध निश्चिंतता के साथ अरब जनता और उसकी तेल सम्पदा को लूट नहीं पायेगा, न ही अरब शासक वर्ग तेल की कमाई से चिन्ता और भय से मुक्त होकर वैभव-विलास कर सकेंगे। जन संघर्षों के उभार उनकी सुख-चैन की नींद छीनते रहेंगे और जन क्रान्तियों का भूत उन्हें सताता रहेगा।
मिस्र का इतिहास एक गोल चक्कर घूमकर फिर वहीं पहुँच गया, जहाँ वह राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के निरंकुश सर्वसत्तावादी शासन के दौर में था। अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके विश्वस्त सहयोगी मिस्र के बुर्जुआ वर्ग को अपने छल नियोजन में फिलहाल कामयाबी मिल चुकी है। मिस्र की जनता की आकांक्षाएँ एक बार फिर अंधकारमय पार्श्वभूमि में धकेल दी गयी हैं। जनरल सिसी की अगुवाई वाला सैनिक शासन हुस्नी मुबारक के शासन जैसा ही निरंकुश और अमेरिकापरस्त है।
पिछले दिनों मिस्र की एक अदालत ने मुस्लिम ब्रदरहुड के प्रमुख मोहम्मद बादेई और उनके 682 समर्थकों को मौत की सज़ा सुनाई। उनपर विगत 14 अगस्त को पुलिस कर्मियों पर हमले और उनकी हत्या में शामिल होने का आरोप था। ऐसी ही कुछ सजाएँ इसके पहले भी सुनाई जा चुकी हैं और अभी भी यह सिलसिला जारी है। उल्लेखनीय है कि 14 अगस्त को काहिरा में हुई झड़प में कुछ पुलिस वाले हताहत हुए थे जबकि पुलिस के हाथों मुस्लिम ब्रदरहुड नामक इस्लामी कट्टरपंथी संगठन से ताल्लुक रखने वाले अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के सैकड़ों समर्थक मारे गये थे।
अभी 2011 की ही बात है जब काहिरा का तहरीर चौक देश व्यापी जनउभार के केन्द्र के रूप में पूरी दुनिया के अखबारों की सुर्खियों में था। हुस्नी मुबारक की भ्रष्ट तानाशाही के विरुद्ध भड़के इस जनउभार में छात्र-युवा, जनवादी चेतना वाले और रैडिकल बुद्धिजीवियों तथा मज़दूरों की व्यापक शिरकत थी। इस उभार में नासिरवादी सर्वअरब सेक्युलर बुर्जुआ राष्ट्रवादियों, विभिन्न वाम धाराओं और सामाजिक जनवादियों के साथ-साथ मुस्लिम ब्रदरहुड, गामा इस्लामिया, अल नूर आदि कई सलाफी इस्लामी कट्टरपंथी संगठन भी सक्रिय थे। मुस्लिम ब्रदरहुड सबसे पुराना और सबसे बड़ा कट्टरपंथी संगठन है। हालात की नजाकत को भाँपते हुए अमेरिकी साम्राज्यावादियों ने हुस्नी मुबारक को अधर में छोड़ दिया। सेना के विश्वस्त उच्चाधिकारियों को भरोसे में लेकर हुस्नी मुबारक को पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। सेना ने राजनीति में अहस्तक्षेप का दिखावा करते हुए चुनाव होने दिया, जिसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद का परोक्ष समर्थन पूरीतरह से मुस्लिम ब्रदरहुड को हासिल रहा। मुस्लिम ब्रदरहुड को चुनाव में बहुमत मिला और मुर्सी नये राष्ट्रपति बने। सत्ता में आने के पहले ही मुर्सी अमेरिका को आश्वस्त कर चुके थे कि वे फिलीस्तीन के मसले पर अनवर सादात और हुस्नी मुबारक की नीतियों को जारी रखेंगे और अरब क्षेत्र में अमेरिकी हितों का पूरा ख़याल रखेंगे। उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व मुस्लिम ब्रदरहुड आम मिस्री जनता का समर्थन हासिल करने के लिए अमेरिकी चौधराहट और इस्रायली जियनवाद की आलोचना करते हुए हमेश फिलिस्तीनी स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करता रहा था। सत्तासीन होने के साथ ही मुर्सी और मुस्लिम ब्रदरहुड के ''साम्राज्यवाद-विरोध'' की कलई उतरते देर नहीं लगी। मुर्सी ने गाजा पट्टी और हम्मास की घेरेबंदी के लिए मिस्र की सीमा को सील कर देने की हुस्नी मुबारक की पुरानी नीति को जारी रखा। अमेरिका के साथ पूर्ववत् सहकार सम्बन्ध जारी रहे। सीरिया के प्रश्न पर भी मुर्सी की नीतियाँ अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों के पक्ष में ही थीं। यही नहीं, मुर्सी ने सऊदी अरब व अन्य शेखों-शाहों की अमेरिका-परस्त सत्ताओं के साथ, इस्लामी(सुन्नी कट्टरपंथी) भाईचारे के नाम पर निकटता बढ़ायी। इन सारी घटनाओं से मिस्र की व्यापक आम जनता में निराशा, आक्रोश और मोहभंग का माहौल बनने में देर नहीं लगा। मिस्री समाज परम्परागत तौर पर उदार, सेक्युलर और आधुनिक समाज रहा है। नासिर की सर्वअरब राष्ट्रवादी नीति के पतित होकर सादात और मुबारक कालीन अमेरिकापरस्ती तक पहुँच जाने और विगत तीस वर्षों के दौरान विश्वव्यापी प्रतिक्रिया के दौर में इस्लामी कट्टरपंथ के बढ़ते प्रभाव के चलते मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड, अल नूर, गामा इस्लामिया जैसे सलाफी कट्टरपंथी गुटों का प्रभाव तेजी से बढ़ा था। फिर भी गत चुनावों में मुस्लिम ब्रदरहुड को यदि बहुमत मिला था तो इसका मुख्य कारण यह था कि कई सेक्युलर, उदारवादी और सर्वअरब राष्ट्रवादी तथा सामाजिक जनवादी वाम पार्टियों में इस्लामी कट्टरपंथ विरोधी मत विभाजित हो गये थे। 2011 के जनउभार में क्रांतिकारी वाम के कई छोटे-छोटे ग्रुप भी शामिल थे, पर उनका जनाधार व्यापक नहीं था और अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक कमज़ोरी के कारण वे जन उभार में शामिल मज़दूरों और निम्नमध्यवर्गीय छात्रों-युवाओं को अपनी ओर खींच पाने में विफल रहे थे। इन ग्रुपों की चुनावों में न तो भागीदारी थी, न ही इनकी ऐसी स्थिति थी।
यहाँ इतिहास के इस तथ्य को याद कर लेना ज़रूरी है कि एक ज़माने में फिलिस्तीन, लेबनान, सीरिया, मिर्स और इराक में कम्युनिस्ट आंदोलन काफी मजबूत था। 1960 के दशक में नासिर के नेतृत्व वाली सर्वअरब रैडिकल बुर्जुआ राष्ट्रवादी धारा, और बाथ पार्टी के रैडिकल बुर्जुआ राष्ट्रवादी धारा ने सत्तासीन होने के बाद एक ओर जहाँ काफी हद तक साम्राज्यवाद विरोधी अवस्थिति अपनायी थी, इस्लामी कट्टरपंथ का मुखर विरोध किया था और बहुत सारे जनकल्याणकारी कामों (जैसे तेल राजस्व की राजकीय आय से शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि सुविधाएँ मुहैया कराना) को भी अंजाम दिया था, वहीं इन सत्ताओं ने 1960 के दशक में कम्युनिस्ट आंदोलन का बेरहमी से दमन भी किया था (कालान्तर में ये सभी सत्ताएँ, भ्रष्ट निरंकुश सत्ताएँ बन गयी थीं)। अपने तत्कालीन स्वाभाविक संश्रयकारी को कुचलने के ''पाप'' की कीमत इन राष्ट्रीय बुर्जुआ सत्ताओं ने भ्रष्ट होने और पश्चिमी साम्राज्यवाद द्वारा कुचले जाने के रूप में चुकाई। मिस्र और आसपास के अन्य देशों के कम्युनिस्ट आंदोलन को कमज़ोर और निश्शस्त्र बनाकर जनसमुदाय से दूर कर देने में दूसरी अहम भूमिका 1960 के दशक में ख्रुश्चोवी संशोधनवाद की विश्वव्यापी लहर के प्रभाव ने निभाईं थी।
बहरहाल, जिन परिस्थितियों में मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड सत्तारूढ़ हुआ और फिर जल्दी ही उसके विरुद्ध व्यापक मोहभंग की शुरुआत हो गयी, उस चर्चा की ओर वापस लौटते हैं। मुर्सी हुकूमत की समझौतापरस्ती और विश्वासघात से आक्रोशित जनता एक बार फिर सड़कों पर उतर पड़ी। तहरीर चौक एक बार फिर जोशीली तक़रीरों, नारों और झण्डों से गुलजार हो गया। वास्तव में यह सबकुछ अमेरिका के गेमप्लान का हिस्सा था। उसने अपना कार्ड् शातिराने चतुराई के साथ खेला। उसे पता था कि मुर्सी अपनी नीतियों के कारण जल्दी ही अलोकप्रिय हो जायेंगे और फिर स्वयंस्फूर्त, किसी स्पष्ट राजनीतिक दिशा से रिक्त जनउभार को दिग्भ्रमित करके और बिखराकर वह अधिक भरोसेमंद सेना का परोक्षत: सत्ता पर निर्णायक नियंत्रण स्थापित करने का अवसर देकर निश्चित हो सकेगा। अमेरिका मुर्सी हुकूमत का इस्तेमाल वास्तव में एक 'स्टॉपगैप-अरेंजमेण्ट' के रूप में कर रहा था। वह उसपर पूरा भरोसा नहीं कर सकता था।
इस्लामी कट्टरपंथ के प्रति अमेरिका का हमेशा से यही रवैया रहा है। सेक्युलर, राष्ट्रीय बुर्जुआ सत्ताओं को अस्थिर बनाने के लिए अफगानिस्तान और अफ्रीका के देशों से लेकर हाल में लीबिया और सीरिया तक में इस्लामी कट्टरपंथियों का भरपूर इस्तेमाल किया। लेकिन यही कट्टरपंथ जब भस्मासुर बनकर उसके हितों को नुकसान पहुँचाने लगता है, या अमेरिका के लिए उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है तो फिर वह उन्हें भी किनारे लगा देता है। मुर्सी की सत्ता के साथ भी यही हुआ।
जून1913में मुर्सी ने अपने सहयोगी इस्लामी कट्टरपंथी क्षेत्रीय नेताओं को मिस्र के 27 में से 13प्रांतों का गवर्नर नियुक्त कर दिया। इसके बाद ही जनता फिर सड़कों पर उतर पड़ी। अनुकूल मौका पाकर सेना ने हस्तक्षेप किया और जुलाई में मुर्सी को राष्ट्रपति पद से हटा दिया। सेनाध्यक्ष अब्दुल फतेह अल सिसी को मीडिया ने जनतंत्र के पहरुए के रूप में खूब उछाला ताकि जनता की आँखों में धूल झोंकी जा सके। मुस्लिम ब्रदरहुड ने अंतरिम राष्ट्रपति अदली मंसूर द्वारा प्रस्तुत नये चुनावों के टाइम टेबुल को अस्वीकार कर दिया और मुर्सी समर्थक तहरीर चौक और काहिरा की सड़कों पर जम गये। अगस्त 2013 में सुरक्षा बलों द्वारा बलात् उन्हें हटाने की प्रक्रिया में क़रीब 2000 मुर्सी समर्थक मारे गये। इसके बाद कोर्ट ने मुस्लिम ब्रदरहुड पर प्रतिबंध लगा दिया और उसकी सारी चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। जल्दी ही फिर उसे आतंकवादी संगठन भी घोषित कर दिया गया। उत्तरी सिनाई क्षेत्र में सेना ने फिलिस्तीनी मुक्ति और हमास के समर्थक सभी रैडिकल ग्रुपों के विरुद्ध सघन मुहिम चलाई और गाजा पट्टी की सीमा को और सख़्ती से सील कर दिया। नवम्बर 2013 में हर प्रकार के जन प्रदर्शनों और आंदोलनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जनवरी 2014 में देश के नये संविधान के लिए जनमत संग्रह हुआ। धर्म पर आधारित सभी पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन सिसी के ''नायकत्व'' पर अब प्रश्नचिन्ह लगने लगे थे। जनता को धीरे-धीरे समझ में आने लगा था कि देश सेक्युलर जनतंत्र की बहाली नहीं बल्कि सेना के इशारों पर चलने वाली एक अमेरिकापरस्त घोर नवउदारवादी सत्ता की स्थापना की दिशा में जा रहा है। देशव्यापी आतंकराज मुबारक युग की वापसी का स्पष्ट संकेत दे रहा था। फरवरी 2014 में प्रधानमंत्री हाज़ेम अल-बेब्लावी ने अचानक इस्तीफा दे दिया, जिसका असली कारण सेना का दबाव बताया जाता है। मार्च में सेनाध्यक्ष अब्दुल फतेह अल सिसी ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया, जो इसी मई महीने में होने हैं।
वस्तुत: आतंक के राज को और पुख्ता बनाने के लिए ही मिस्र की एक अदालत ने मुस्लिम ब्रदरहुड के प्रमुख और उनके 682 समर्थकों को मौत की सजा सुनाई। मिस्र की न्यायपालिका भी आज सेना की कठपुतली से अलग कुछ भी नहीं है। मौजूदा हालात में, तय है कि मिस्र के बुर्जुआ वर्ग ने अपना प्रतिनिधि चुन लिया है। आज मिस्र में कोई ऐसी बुर्जुआ जनवादी पार्टी या वाम रैडिकल ग्रुपों का गठबंधन नहीं है जो सिसी को प्रभावी चुनौती पेश कर सके। फिर सच्चाई यह भी है कि चुनाव की पूरी प्रक्रिया पर सेना का नियंत्रण होगा और नतीजें वही होंगे जो सेना चाहेगी। इस तरह मिस्र का जन विस्फोट एक बार फिर बिखर गया और चार वर्षों बाद मिस्र वहीं पहुँच गया जहाँ था।
लेकिन इतना तय है कि साम्राज्यवादियों का सुख चैन हमेशा के लिए बहाल नहीं हुआ है। सच्चाई यह है कि केवल मिस्र ही नहीं, इराक, लीबिया, जॉर्डन सहित पूरा अरब जगत एक धधकती ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है। वहाँ साम्राज्यवादी दुनिया के सभी अन्तरविरोध गुँथ-बुनकर एक गाँठ के रूप में एकत्र हो गये हैं। पूरी अरब जनता में शेखों-शाहों के साथ ही पश्चिम परस्त बुर्जुआ सत्ताओं में गहरी नफ़रत सुलग रही है। इस्लामी कट्टरपंथ के परचम तले साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष नहीं चलाया जा सकता, यह बात साफ होती जा रही है। तथाकथित गुलाबी क्रांति की लहर की सीमाएँ और परिणतियाँ भी साफ होती जा रही हैं। फिलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष तमाम बाधाओं-चुनौतियों के बावजूद अदम्य है, यह विश्वास समूची अरब जनता में पुख्ता शक़्ल में मौजूद है। उधर यह अहसास इस्रायली शासक वर्ग के भीतर भी दरारें पैदा कर रहा है। अमेरिका परस्त इस्लामी हुकूमतों के भीतर भी गहराता सामाजिक-राजनीतिक संकट अन्तरविरोध पैदा कर रहा है। सऊदी अरब और कतर के बीच अन्तरविरोध गम्भीर हो चुके हैं। यह सच है कि मेहनतक़श अवाम की संगठित हरावल शक्तियों की अनुपस्थिति के कारण अभी उस दुश्चक्र से अरब जगत इतनी जल्दी मुक्त नहीं होने वाला है, जिसकी शुरुआत उपनिवेशवाद के जमाने में हुई थी। लेकिन इतना तय है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद कभी भी निर्बाध निश्चिंतता के साथ अरब जनता और उसकी तेल सम्पदा को लूट नहीं पायेगा, न ही अरब शासक वर्ग तेल की कमाई से चिन्ता और भय से मुक्त होकर वैभव-विलास कर सकेंगे। जन संघर्षों के उभार उनकी सुख-चैन की नींद छीनते रहेंगे और जन क्रान्तियों का भूत उन्हें सताता रहेगा।
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