Sunday, May 04, 2014

श्रीलंका में मई दिवस और मज़दूर आन्‍दोलन के नये उभार के सकारात्‍मक संकेत



कविता कृष्‍णपल्‍लवी

क्‍या आपको बाला ताम्‍पोई का नाम याद है? या, क्‍या आपने यह नाम सुना भी है? ये वही बाला ताम्‍पोई हैं जिनके नेतृत्‍व में 1953 में हुई जबरदस्‍त हड़ताल ने पूरे श्रीलंका को एकबारगी ठप्‍प सा कर दिया था।
बाला ताम्‍पोई इस माह 92वर्ष के हो जायेंगे। वे भले-चंगे हैं, आज भी 'सीलोन मर्केटाइल यूनियन' के महासचिव हैं और देश के सर्वाधिक सक्रिय ट्रेड यूनियन नेताओं में से एक हैं।
श्रीलंका में इस बार अधिकांश ट्रेडयूनियनों ने एक साथ मिलकर बड़े स्‍तर पर मई दिवस की रैलियाँ आयोजित की और संसदीय राजनीतिक पार्टियों को इससे एकदम दूर रखा। बाला ताम्‍पोई का मानना है कि संसदीय राजनीति और नवउदारवादी राज्‍य से बढ़ते जुड़ाव ने गत दशकों के दौरान श्रीलंका के मज़दूर आन्‍दोलन को लगातार कमज़ोर बनाया है। श्रीलंका की अधिकांश वाम पार्टियाँ आज राष्‍ट्रपति महिन्‍दा राजपक्षे के नेतृत्‍व वाले सत्‍तारूढ़ गठबंधन  के साथ हैं जो निरंकुश सर्वसत्‍तावादी तौर-तरीकों से नवउदारवाद की नीतियों को लागू कर रह रहा है और जिसने तमिलों के विरुद्ध सर्वाधिक बर्बर दमनकारी सिंहल अंधराष्‍ट्रवाद का परचम थाम्‍ह रखा है। वाम संसदीय पार्टियों की इस नग्‍न-घृणित पतनशीलता ने अतिशोषण, अनौपचारिकीकरण, छँटनी, बेरोजगारी, मँहगाई और अनिश्चितता का कहर झेल रही मज़दूर आबादी को इन पार्टियों से एकदम दूर कर दिया है और भारी जनदबाव के चलते श्रीलंका का ट्रेडयूनियन आन्‍दोलन आज शुद्धीकरण और 'रैडिकलाइजेशन' की एक प्रक्रिया से गुजर रहा है। एक गौरतलब बात यह भी है कि पूरे श्रीलंकाई समाज में तमिल और सिंहल आबादी के बीच जो पार्थक्‍य और अन्‍तरविरोध पैदा हो गये हैं, उनसे मज़दूर आंदोलन और ट्रेडयूनियनें अभी भी काफी हद तक अछूती बची हुई हैं।
बाला ताम्‍पोई का मानना है कि नवउदारवादी नीतियों, उनकी पोषक राज्‍यसत्‍ता और संसदीय राजनीति के विरुद्ध देश व्‍यापी स्‍तर पर, नयी ज़मीन पर एक नया जुझारू मज़दूर आंदोलन संगठित करना होगा। 'युनाइटेड वर्कर्स फेडरेशन' के अध्‍यक्ष लीनस जयतिलके ने भी उनसे सहमति रखते हुए, मई दिवस की संयुक्‍त तैयारियों के दौरान एक पत्रकार मीरा श्रीनिवासन को बताया कि सभी सेक्‍टरों के मज़दूरों के बढ़ते अतिशोषण ने उनके आपसी सरोकारों और एक साथ मिलकर लड़ने की ज़रूरत के अहसास को बढ़ाया है। 'सीलोन वर्कर्स रेड फ्लैग यूनियन' के महा‍सचिव मेनाहा कण्‍डास्‍वामी के अनुसार, प्‍लाण्‍टेशन मज़दूर (जिनमें भारी संख्‍या में तमिल मज़दूर काम करते हैं) काम के निर्धारित आठ घण्‍टों से बहुत अधिक काम करते हैं और श्रम कानूनों का वस्‍त़त: उनके लिए कोई मतलब नहीं रह गया है, इसलिए, अब एक बार फिर मज़दूर आधिकारों को लेकर नये सिरे से संघर्ष की शुरुआत करनी होगी।
जाहिर है कि पतित होने के मामले में श्रीलंका की संसदीय वाम पार्टियाँ भी भारत की भाकता, माकपा, भाकपा(माले) लिबरेशन, सोशलिस्‍ट यूनिटी सेण्‍टर, आर.एस.पी. और फॉरवर्ड ब्‍लॉक आदि जैसी ही हैं। लेकिन दोनों देशों के मज़दूर आंदोलनों में एक बुनियादी फ़र्क यह है कि भारत की सभी बड़ी ट्रेड यूनियनें जहाँ संसदीय वाम पार्टियों की पुछल्‍ली हैं और उनके नेतृत्‍व पर नीचे तक भ्रष्‍ट, पतित, दलाल ट्रेड यूनियन नौकरशाह कुण्‍डली मारकर बैठे हुए हैं, वहीं श्रीलंका की कई अग्रणी ट्रेड यू‍नियनें आज संसदीय वाम दलों से स्‍वतंत्र स्‍टैण्‍ड ले रही हैं और एक साथ मिलकर नवउदारवाद के विरुद्ध रैडिकल मज़दूर संघर्ष संगठित करने के बारे में सोच रही हैं।
निश्‍चय ही यह एक महत्‍वपूर्ण आगे का कदम है और राष्‍ट्रीयता के आधार पर श्रीलंका की आम आबादी में पैदा हुए शत्रुतापूर्ण बँटवारे को भी एकजुट संघर्ष ही दूर कर सकता है। लेकिन इतना ही पर्याप्‍त नहीं है। रैडिकल  से रैडिकल ट्रेडयूनियन आंदोलन अपने आप में मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने का साधन नहीं हो सकता। मज़दूर वर्ग की एक बोल्‍शेविक साँचे-खाँचे वाली हरावल पार्टी होना अनिवार्य है।
श्रीलंका में सण्‍मुगथासन के नेतृत्‍व में संशोधनवाद के विरुद्ध कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों के संघर्ष और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी पार्टी के गठन का इतिहास आधी सदी से भी अधिक पुराना है। लेकिन सण्‍मुगथासन के जीवनकाल में भी वहाँ पार्टी मज़दूर वर्ग में अपना व्‍यापक आधार नहीं बना सकी थी, न ही किसानों का कोई व्‍यापक संघर्ष खड़ा कर पाने में ही सफल हुई थी। आज भी वहाँ पुरानी पार्टी की उत्‍तराधिकारी एक माओवादी पार्टी है, लेकिन मेहनतकशों के बढ़ते आक्रोश को पहलकदमी लेकर संगठित कर पाने में यह पार्टी विफल है।
आज का श्रीलंका एक पिछड़ा ही सही, लेकिन पूँजीवादी उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों वाला देश है, न  कि अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक या नवऔपनि‍वेशिक। प्‍लांटेशन और चाय उद्योगों का लगातार विकास हुआ है और भूमि सम्‍बन्‍धों के क्रमिक रूपांतरण(प्रशियाई मार्ग) की प्रक्रिया तो पचास के दशक में भी शुरू हो गयी थी। इन सच्‍चाइयों को समझे बगैर, दुनिया के अधिकांश माओवादी संगठनों की ही तरह श्रीलंका के कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी भी चीन की नवजनवादी क्रांति के फ्रेमवर्क को कठमुल्‍लवादी ढंग से श्रीलंका पर लागू करने पर बल देते रहे हैं, जबकि श्रीलंका भी वस्‍तुत: साम्राज्‍यवाद-विरोधी-पूँजीवाद-विरोधी, नये प्रकार की समाजवादी  क्रांति के दौर में प्रविष्‍ट हो चुका है। भूमि क्रांति के कार्यभार  को प्रधान बताते हुए (हालाँकि ग़लत आकलन के कारण वे उस दिशा में भी कुछ नहीं कर पाये) श्रीलंका के कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिका‍रियों ने भारी मज़दूर आबादी में काम करने पर कभी विशेष घ्‍यान नहीं दिया और वस्‍तुगत तौर पर उन्‍हें संशोधनवादियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया।
अभी तो श्रीलंका की माओवादी पार्टी में और भी विचारधारात्‍मक विचलन के संकेत मिल रहे हैं। क्रांतिकारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी, यू.एस.ए. के चेयरमैन बॉब अवाकिएन लेनिववाद और माओवाद के ''विकास की अगली कड़ी'' के रूप में 'न्‍यू सिंथेसिस' नामक जो नया सिद्धांत लेकर आये हैं (जो मार्क्‍सवाद की कुछ बुनियादी विचारधारात्‍मक अवस्थितियों से भटकाव है) उसे श्रीलंका की माओवादी पार्टी भी स्‍वीकार रही है।
लेकिन श्रीलंका का मज़दूर वर्ग यदि स्‍वयं अपने अनुभव से संसदवाद, अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से लड़ते हुए नवउदारवादी नीतियों और राज्‍यसत्‍ता के विरुद्ध एकजुट संघर्ष की ज़रूरत महसूस कर रहा है तो कालान्‍तर में उसकी हरावल पार्टी के पुनस्‍संगठित होने की प्रक्रिया भी अवश्‍य गति पकड़ेगी, क्‍योंकि श्रीलंका की ज़मीन पर मार्क्‍सवादी विचारधारा के जो बीज बिखरे हुए हैं, उन सभी के अंकुरण-पल्‍लवन-पुष्‍पन को कोई ताक़त  रोक नहीं सकेगी। यदि कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों की एक पीढ़ी अपना दायित्‍व नहीं पूरा कर पायेगी, तो दूसरी पीढ़ी इतिहास के रंगमंच पर उसका स्‍थान ले लेगी।

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