Friday, May 30, 2014

ऊलजुलूल और अप्रासंगिक होने के बावजूद सुशीला पुरी की 5 मई की पोस्‍ट का जवाब


-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

(नोट: इस पोस्‍ट में मैंने सुशीला पुरी की पोस्‍ट के एक-एक बिन्‍दु का जवाब उसी क्रम में दिया है। आगे भी मैं, पहले उनके हर सवाल और हर उत्तर का बिन्‍दुवार उत्तर दूँगी, फिर अपनी बातें सकारात्‍मक तौर पर, तफ़सील से रखूंगी।)

श्रीराम पिस्‍टन कंपनी, भिवाड़ी (राजस्‍थान) के मज़दूरों पर पुलिस और प्रबंधन के बाउंसरों द्वारा बर्ब हमले के विरोध में उसी कंपनी की गाजियाबाद इकाई के सामने पर्चे बाँटते हमारे साथियों पर कंपनी के भाड़े के गुंडों ने 5 मई को हमला किया जिसमें चार साथी गंभीर रूप से घायल हुए, दो के पैर टूट गये और एक का सिर फट गया (पूरी जानकारी मेरे वॉल पर)। इस घटना के विरोध में दिल्‍ली, अलवर, गाजियाबाद में जारी सरगर्मियों में व्‍यस्‍तता के कारण फेसबुक पर जारी सरगर्मियों से मैं अपरिचित रही। अभी एक फेसबुक से जानकारी मिलने पर मैंने सुशीला पुरी की पोस्‍ट देखी जिसमें उन्‍होंने मुझसे नुक्‍तेवार कुछ सवाल पूछे हैं। पूरी पोस्‍ट में सवाल पूछने से अधिक निराधार कुत्‍साप्रचार मूलक तथ्‍यों से परे ''तथ्‍य'' बयान किये गये हैं, मेरे द्वारा उठाये गये मूल मुद्दे को बड़ी चतुराई से दरकिनार करने की कोशिश की गयी है और फिर इस पूरी पोस्‍ट पर आये कमेंट्स में तमाम समान रंगों वाले परिंदे एकसाथ पंख फड़फड़ाते नज़र आने लगे हैं।

दिलचस्‍प बात यह है कि सुशीला पुरी ने एक ओर तो मुझसे सवाल पूछे हैं, दूसरी ओर मुझेही 'अनफ्रेंड' भी कर दिया है। यदि आज एक फेसबुक मित्र ने बताया न होता तो मुझे उनकी पोस्‍ट का पता भी न चलता। इससे सुशीला पुरी की मंशा का पता चलता है। मुझसे सवालों के उत्तर चाहने के बजाय सुशीला पुरी धुंध-गर्द का ऐसा गुबार खड़ा करना चाहती हैं जिसमें मूल मुद्दे खो जायें। लेकिन सुशीला पुरी जी, मैं आप और उदय प्रकाश जैसों के सभी सवालों के उत्तर भी दूंगी, सारे झूठों और ''शंका'' पैदा करने वाली कोशिशों को बेनकाब भी करूंगी और साहित्‍य जगत में व्‍याप्‍त अवसरवादियों की गिरोहबंदी के बुनियादी प्रश्‍न को दृष्टिओझल भी नहीं होने दूंगी।

अब आपके सवालों का उसी क्रम में उत्तर देने से शुरू करती हूं।

1)      आपका पहला सवाल मेरे द्वारा उठाये गये उसूली सवाल से कोई ताल्‍लुक नहीं रखता लेकिन फिर भी इस अपनी पोज़ीशन मैं स्‍पष्‍ट कर दूं। मैं पहले भी फेसबुक पर और अपने ब्‍लॉग पर लिख चुकी हूं और इस बहस में भी नलिन रंजन जी को उत्तर देते हुए स्‍पष्‍ट कर दिया है कि फेसबुक पर तरह-तरह की मुद्राओं में तस्‍वीरें डालते रहने और प्रोफाइल बदलते रहने की प्रवृत्ति को मैं एक अगंभीर प्रवृत्ति मानती हूं और इसके विरोधस्‍वरूप अपना फोटो नहीं डालती। मेरे मैसेज बॉक्‍स में भी लगभग हर हफ्ते लगभग तीन-चार ऐसे संदेश आते हैं कि आप तस्‍वीर भेजिए, अपने बारे में बताइये और हर बार मैं यही उत्तर देती हूं कि फेसबुक मेरे लिए मात्र विचारों के आदान-प्रदान का एक मंच है, चेहरे में विचार नहीं अंकित होते। फेसबुक पर अनगिनत ऐसे लोग हैं जिन्‍होंने अपनी तस्‍वीर नहीं दी है। मैंने अभी तक तो इसे मुद्दा बनते नहीं देखा। यह कोई उसूली मसला है ही नहीं, विशुद्ध व्‍यक्तिगत चयन का प्रश्‍न है।

आप जैसे स्‍टैंडर्ड के लोग ही यह प्रश्‍न उठा सकते हैं कि चेहरा छिपाकर मैं कितना क्रान्ति कर पाउंगी या चेहरा छिपाने का मतलब मैं किसी ''आंतरिक झंझा'' में घिरी हुई हूं (यूंही साहित्यिकता के अर्थहीन प्रदर्शन से आदमी बस विदूषक बन जाता है!)



मैं न भूमिगत कार्यकर्ता हूं न नकाब पहनकर काम करती हूं। मेरे वॉल पर प्रचार, प्रदर्शन, आन्‍दोलनकी कार्रवाइयों की दर्जनों सचित्र रपटें हैं जिनमें मैं मौजूद हूं। आप और आपके समविचारी 'समान रंगों वाले पंखों के पंछी' यह इंप्रेशन देना चाहते हैं कि कविता कृष्‍णपल्‍लवी एक 'फेक आईडी' है या इस नाम से कुछ और लोग अपनी उद्देश्‍यपूर्ति कर रहे हैं। पहले भी हर बहस में तर्क चुक जाने पर यह अफवाह फैलाने का काम किया जाता रहा है। तो सुशीला पुरी और ऐसे तमाम मित्रो, एक बार मैं स्‍पष्‍ट ही कर दूं कि मेरा नाम कविता श्रीवास्‍तव है। जब जयपुर मेरा कार्यक्षेत्र था तो अक्‍सर लोग मुझे पीयूसीएल की कविता श्रीवास्‍तव समझ बैठते थे, तभी से मैंने लेखन में (जो मैंने 2004-05 के आसपास से शुरू किया था) अपना नाम कविता कृष्‍णपल्‍लवी इस्‍तेमाल करना शुरू किया। मैं दिल्‍ली में 'स्‍त्री मज़दूर संगठन' और 'उत्तर पश्चिमी दिल्‍ली मज़दूर यूनियन' में काम करती हूं। साहित्‍य-संस्‍कृति की दुनिया में बस बचे हुए समय में आवाजाही रहती है। लखनऊ भी आती-जाती रहती हूं और गोरखपुर की तो रहने वाली ही हूं। (सदानंद शाही जी, शंकामुक्‍त होकर जान लीजिए, मैं गोरखपुर की दिशा छात्र संगठन वाली कविता ही हूं।) पहचान को मुद्दा बनाकर शंकाएं फैलाने की गुंजायश न रहे, इसके लिए अपनी तस्‍वीर भी इस पोस्‍ट में दे रही हूं। (प्रोफाइल में तो फिर भी नहीं दूंगी।) और यह खुला प्रस्‍ताव भी कि यदि मुझसे मिलना भी चाहें तो समय देकर (रोहिणी सेक्‍टर 16 के निकट) शाहाबाद डेयरी की मज़दूर बस्‍ती में 'शहीद भगतसिंह पुस्‍तकालय' (एफ-412, शाहाबाद डेयरी, दिल्‍ली) पूछकर आ जाइये। स्‍वागत है। बातचीत करके तसल्‍ली कर लीजिये कि यह सब लिखने वाली कविता कृष्‍णपल्‍लवी वास्‍तव में मैं ही हूं या नहीं। मेरा ईमेल पता है: kavita.krishnapallavi@gmail.com.  सुशीला पुरी जी, आ जाइये, आपको पता चल जायेगा कि मैं किसी ''आंतरिक झंझा'' में घिरी हूं या नहीं। आपको यह भी पता चल जायेगा कि क्रान्ति चेहरा छिपाकर नहीं की जाती पर चेहरा दिखाना-चमकाना भी क्रान्ति करने की कोई ज़रूरी पूर्वशर्त नहीं होती।



2) आपकी वॉल से ही पता चल जाता है कि राजनीति और मार्क्‍सवादी विचारधारा की आपकी समझ दिवालिया है। उसी से यह भी पता चल जाता है कि आप वहां प्रलेस-जलेस-जसम के आयोजनों में उपस्थित रहती हैं, कथित ''वाम'' के ''महाजनों'' से भी जीवंत संपर्क रखती हैं, दूसरी ओर अपने विशिष्‍ट किस्‍म के मार्क्‍सवादसेउत्तर आधुनिकता और बोर्खेसियन अमूर्तन तक की यात्रा कर चुके और लगातार मार्क्‍सवाद और समाजवादी प्रयोगों पर ऊलजुलूल आरोप चस्‍पां करते रहने वाले (जिसे मैंने एक-एक तथ्‍य का हवाला देकर उनसे चली बहस में दर्शाया था) उदय प्रकाश के विचारों और कृतित्‍व की भी समर्थक-प्रशंसक हैं। लब्‍धप्रतिष्ठित यानी लब्‍धप्रतिष्ठित! तमाम नामी-गिरामी चर्चित-पुरस्‍कृत रचना-धुरंधर और विचार-धुरंधर! आपकी वॉल और आपके विचार ही मेरे आरोप के ठोस साक्ष्‍य हैं। उदय प्रकाश को हर हाल में डिफेंड करना, और उन पर लगे अकाट्य आरोपों पर चुप रहना तथा दूसरी ओर जसम-प्रलेस-जलेस ब्रांड वामपंथी होने का भी दिखावा करना - इससे ज़्यादा अवसरवाद भला और क्‍या हो सकता है!

3) सुशीला जी, साहित्यिक मंडलियों, बैठकबाजियों से बाहर निकल कर आप यदि पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों से भी कुछ खोज-खबर लेती रहतीं तो आपको पता होता कि दिल्‍ली, मेरठ, मथुरा और जयपुर में पुस्‍तक प्रदर्शनियों और राजनीतिक प्रदर्शनों के दौरान आरएसएस और अभाविप जैसी फासिस्ट ताकतों से किन लोगों की खुली भिड़ंत हुई थी, गोरखपुर में मज़दूर आन्‍दोलन के दौरान किन लोगों ने योगी आदित्‍यनाथ से मोर्चा लिया था और ढाई दशक पहले गोरखपुर इतिहास कांग्रेस के मंच से हिंदुत्‍ववादी प्रलाप कर रहे महंत अवेद्यनाथ को खदेड़ने की अगुवाई करने वाले कौन लोग थे! यही नहीं, अगर आप मेरे वॉल की पोस्‍ट्स पर भी गौर फरमातीं तो आपको पता चल जाता कि हम लोग पिछले तीन माह से जो 'चुनावी राजनीति का भंडाफोड़ अभियान' दिल्‍ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्‍ट्र में चलाते रहे हैं उसमें चुनाव की पूरी राजनीति और चुनावी पार्टियों को टारगेट करते हुए हिंदुत्‍ववादी फासिस्‍टों को ही मुख्‍य निशाना बनाया था। गत दस वर्षों के भीतर कई बार सांप्रदायिक फासीवाद विरोधी अभियान चलाये, अपनी पत्र-पत्रिकाओं में लगातार सांप्रदायिक फायीवाद के विरुद्ध लिखते रहे हैं, इस पर एक पुस्तिका भी प्रकाशित की है और 'आह्वान' पत्रिका (जिसकी मैं सह-संपादक भी हूं) का एक अंक भी निकाला है। मैंने अपने वॉल और ब्‍लॉग पर भी फासीवाद के विरुद्ध एक दर्जन से अधिक लेख और टिप्‍पणियां लिखी हैं। मुख्‍य बात यह है कि मात्र बात-बहादुरी करने की जगह हम फासीवाद के विरुद्ध अपनी ताकत भर ज़मीनी कार्रवाई भी करते रहे हैं। इतनी बौखलाहट भी ठीक नहीं होती कि तथ्‍यों पर निगाह ही न जाये। इससे आदमी खुद को उपहास का पात्र ही बना लेता है। लेकिन जज और जिरह करने वाले वकील का चोंगा पहनकर यह सवाल पूछने के बाद आप भी ज़रा बताइये कि फासीवाद के विरुद्ध आपकी क्‍या गतिविधियां रही हैं? कोई साहित्यिक मंडलीबाज़ सिर्फ सवाल पूछे और राजनीतिक निकृष्‍ट गाली-गलौच की तरह यह सवाल पूछ कि हम कहीं ''गडकरी और अंबानी की जेब से तो नहीं बोल रहे हैं'', तो उससे यह सवाल करना उद्दंडता नहीं होगी कि वह किसकी जेब में घुसकर किसकी भाषा बोल रहा है? और सुशीला जी, फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का यह मतलब नहीं होता कि कथित वाम एकता के नाम पर योगी आदित्‍यनाथ से पुरस्‍कार लेने, राममाधव की पुस्‍तक का विमोचन करने, बीबीसी के साक्षात्‍कार में मोदी का समर्थन करने, भाजपाई सांसद विद्यानिवास मिश्र की जयंती मनाने, साहित्यिक चौर-लेखन करने और सत्ता के संस्‍कृति प्रतिष्‍ठानों में कुलाबे भिड़ाते रहने के बारे में भी कुछ न बोला जाये। ऐसी नीचताओं से एकता बनाकर फासीवाद का विरोध किस प्रकार होगा, यह तो आप और आप के ही रंग वाले परों के पंछी ही जानें!

4) प्रलेस-जलेस-जसम के आयोजनों में आपकी शिरकत को मैंने गुनाह नहीं बताया है, मेरा सवाल यह है कि यह कैसी जनवादी साहित्यिक-राजनीतिक दृष्टि है कि प्रलेस-जलेस-जसम से लेकर धुर मार्क्‍सवाद-विरोधी (मेरे साथ चली बहस में मार्क्‍सवाद और समाजवादके विरुद्ध उदय प्रकाश द्वारा प्रस्‍तुत थोथे तर्कों और गलत तथ्‍यों को कोई भी देख सकता है) उदय प्रकाश तक से आपका सुर मिल जाता है। यह या तो मूर्खता हो सकती है या चालाक किस्‍म का अवसरवाद। आपका कहना है कि इन सभी संगठनों का मूल चरित्र सृजनात्‍मक है और मैं दुनिया को पूर्वाग्रहों के चश्‍मे से देखने की ज़ि‍द ठाने बैठी हूं। यह तर्क ही अपने आप में अज्ञेय-निर्मल वर्मा-उदय प्रकाश ब्रांड तर्क है। सृजनात्‍मकता मूल्‍य-मुक्‍त, विचारेतर और वर्ग-अवस्थिति से मुक्‍त नहीं होती और पूंजीवादी विचारधारा हमेशा ही वाम विचारधारा की अवस्थिति पर ''पूर्वाग्रह के चश्‍मे'' का लेबल चस्‍पां करती रहती है। यह 70-75 वर्षों से भी अधिक पुराना घिसा-पिटा आरोप है। विचारधारा से मुक्ति का आग्रह वस्‍तुत: स्‍वयं में ही एक विचारधारा होता है।

''पार्टनर तुम्‍हारी पॉलिटिक्‍स क्‍या है?'' -- इस प्रश्‍न के उत्तर में भोंड़े ढंग से मार्क्‍स को लाते हुए आपने मुझसे पूछा है कि मेरी आय के आर्थिक स्रोत क्‍या हैं? मैं यह मानकर इसका भी एक स्‍पष्‍ट उत्तर तफ़सील से दे दूंगी कि इस प्रश्‍न के पीछे संदेह पैदा करने या कुत्साप्रचार की कुटिलता नहीं है बल्कि यह एक मासूम सवाल है। पहले अपने पूरे राजनीतिक ग्रुप की स्थिति और फिर अपनी अवस्थिति स्‍पष्‍ट कर दूं। जैसी पिछली एक शताब्‍दी की लेनिनवादी परंपरा रही है हम लोग अपने सभी जनसंगठनों और जनकार्रवाइयों के स्रोत-संसाधन व्‍यापक जनता से (जनसंगठनों की सदस्‍यता, नियमित अभियान आदि से) जुटाते हैं, आंदोलनों के दौरान 'हड़ताल फंड' बनाते हैं। जन कार्रवाइयों से इतर राजनीतिक-विचारधारात्‍मक कार्रवाइयों के लिए हमारे वे साथी नियमित योगदान करते हैं जो पूरावक्‍ती कार्यकर्ता नहीं होते और राजनीतिक कार्यों के साथ ही नौकरी भी करते हैं। यह हमारे राजनीतिक ढांचे की 'वैकल्पिक स्‍वैच्छिक कराधान प्रणाली' है। कोई भी सरकार-गैरसरकारी सांस्‍थानिक अनुदान हम नहीं लेते। कोई आपातकालीन स्थिति आने पर हम लोग शुभचिंतकों से भी विशेष सहयोग लेते हैं और पूरावक्‍ती कार्यकर्ता भी दिहाड़ी, ट्यूशन, अनुवाद आदि कर लेते हैं। आप लेनिनवादी सांगठनिक ढांचे और प्रणाली पर कुछ साहित्‍य पढ़ लीजिये। 'फंडा क्लियर' हो जायेगा। अब यदि ''मासूम'' प्रश्‍न व्‍यक्तिगत रूप से मुझपर केंद्रित है तो वह भी स्‍पष्‍ट कर दूं। मैं और मेरी टीम एक नये मज़दूर इलाके में अभी करीब डेढ़ वर्ष से ही काम कर रहे हैं। हम लोग मज़दूर इलाके में ही रहते हैं, मज़दूर घरों में खाते-पीते हैं और वही हमें सहयोग करते हैं। इसके बावजूद मैं और मेरी टीम के सभी साथी पास की फैक्ट्रियों में बीच-बीच में दिहाड़ी कर लेते हैं, ट्यूशन कर लेते हैं और डेटा एंट्री का काम कर लेते हैं। आशा है, शंका समाधान हो गया होगा (यदि यह वास्‍तव में जेनुइन शंका ही हो तो!), भरोसा करने के लिए कुछ दिन साथ बिताने आ जाइये, खुला आमंत्रण है।

अब ज़रा अपने बारे में भी बताइये। आप कौन-सी नौकरी करती हैं? यह सवाल इसलिए क्‍योंकि मैंने कई प्रगतिशील बुद्धिजीवी स्त्रियों को देखा है कि अपनी खानदानी संपत्ति या अफसर-प्रोफेसर-व्‍यापारी-फार्मर पति की कमाई के बूते खलिहर घूमती प्रगतिशीलता और स्‍वतंत्र स्‍त्री अस्मिता की लंबी-चौड़ी बातें करती रहती हैं। जब आप मुझसे यह प्रश्‍न कर रही हैं तो स्‍वयं अपनी स्थिति भी स्‍पष्‍ट करने की ज़ि‍म्‍मेदारी भी तो बनती है न! हम मार्क्‍सवादी शब्‍दावली का चर्वण नहीं करते, आंदोलनों और राजनीतिक कार्यों में हमारी भागीदारी जगजाहिर है, दिल्‍ली में सभी सक्रिय वामपंथी जानते हैं। ''चूसे हुए शब्‍दों का मलबा'' तो बात-बहादुर, गोष्‍ठीबाज़, एक ओर फासीवादियों तक के मंच पर चढ़नेवालों से सुर मिलाने वाले और दूसरी ओर बंद सभागारों में फासीवाद विरोधी प्रस्‍ताव पास करने वाले दुरंगे चरित्रवाले छद्म वामपंथी करते हैं। खुले तथ्‍यों से आपके आंख मूंद लेने मात्र से तथ्‍य हवा में तिरोहित नहीं हो जायेंगे।

5) आपकी धारणा के विपरीत अपने देश और पूरी दुनिया के तथ्‍यों के आधार पर मेरी यह पक्‍की धारणा है कि सौ में से 99 मामलों में सत्ता प्रतिष्‍ठान और पूंजी प्रतिष्‍ठान साहित्यिक-सांस्‍कृतिक क्षेत्र में खरीदने और उपकृत करने के लिए ही सम्‍मान या पुरस्‍कार देते हैं। या फिर ये जुगाड़ बैठाकर (यानी खुद को बिकने के लिए प्रस्‍तुत करके) लिये जाते हैं। कई लोग रैडिकल तेवर लेकर किसी अकादमी या पुरस्‍कार की केवल तभी तक आलोचना करते हैं जब तक कि वह उन्‍हें मिल नहीं जाता (जैसा मैंने साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार मिलने से पहले उदय प्रकाश के एक साक्षात्‍कार को शब्‍दश: उद्धृत करके दर्शाया था)। हां, अंशत: सहमत होते हुए मेरा भी यह मानना है कि तमाम प्रायोजित चर्चाओं और जुगाड़-अर्जित पुरस्‍कारों के बावजूद, अंततोगत्‍वा सर्जनात्‍मकता ही याद रखी जाती है।

6) आपके बारे में जानकारी जुटाने का कोई खुफिया तंत्र मेरे पास नहीं है। आपका फेसबुक वॉल ही आपके विचारों और गतिविधियों के बारे में काफी कुछ बता देता है। और फिर मैं लखनऊ आती-जाती भी रहती हूं। कई साहित्यिक-सांस्‍कृतिक आयोजनों में भी शामिल होने का अवसर मिला है। हां, मैं पिछली कतारों में बैठकर विद्वानों के विचार सुनती हूं। साहित्‍य की दुनिया में परिचय बनाना, मुंह पर रचनाओं की प्रशंसा करना -- यह मुझे पसंद नहीं, यह मेरी 'पर्सनल च्‍वायस' है। लखनऊ में नरेश सक्‍सेना (जो मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं), शकील सिद्दीकी आदि जिन लोगों से कई बार की रूबरू मुलाकात है उनसे भी मैंने अपना परिचय कभी नहीं दिया, हां, वे मुझे मिलने पर चेहरे से ज़रूर पहचान लेंगे। ईमानदारी की बात यह है कि अधिकांश साहित्‍यकार मुझे परग्रहीय प्राणी लगते हैं -- अध्‍ययन योग्‍य और मनोरंजन योग्‍य -- उनकी ''ज्ञानगरिमा'', आत्‍ममुग्‍धता, प्रशंसा-पिपासा, बाल की खाल निकालने की कला, अफसर साहित्‍यकारों के आगे दांत निपोरना, आलोचनाओं पर फनफनाना -- सबकुछ ही बहुत दिलचस्‍प और मनोरंजक होता है। और हां, बात को यहां तक आपने और आप जैसों ने पहुंचाया है। मैंने अपनी मूल पोस्‍ट में राजेश जोशी के साहित्यिक चौर-कर्म के प्रसंग में ठोस तथ्‍यों और तर्कों सहित जब अपना यह विचार रखा कि ऐसे तमाम कामों पर चसलाक चुप्‍पी के पीछे अवसरवादियों का प्रत्‍यक्ष-परोक्ष गंठजोड़ किस रूप में काम करता है तो तर्कों का विवेकसम्‍मत उत्तर न देकर आपने तत्‍काल मेरे कृत्‍य को ''निन्‍दनीय'' करार दे दिया और फिर आपके इस ''न्‍याय-निर्णय'' पर जब मैंने सवाल उठाया तो अपनी इस पोस्‍ट में आप स्‍वयं तो तमाम अप्रासंगिक भोंड़ी और कुत्‍साप्रचार मूलक टिप्‍पणियां (प्रश्‍न पूछने की आड़ में) कर रही हैं और मुझे सामान्‍य मानवीय सिद्धांतों की दुहाई दे रही हैं। अवसरवाद पर ठोस तथ्‍य देकर सवाल उठाना सामान्‍य मानवीय सिद्धांतों को ताक पर रखना नहीं है बल्कि उनकी हिफाजत करना है।

7) (सुशीला जी ने गलती से इस नुक्‍ते का क्रम भी 7 की जगह 6 लिख दिया है) माफ़ करें, कितने 'लाइक्‍स' मिले इसकी न मुझे परवाह है और न ही इसके लिए मैं फेसबु‍क पर लिखती हूं। मेरे लिए यह बेलागलपेट अपनी बात कहने का माध्‍यम है। यह तो मुझे पता ही है कि 'तू मेरा हाजी बगोयम मैं तेरा हाजी बगो' की साहित्यिक दुनिया में तमाम दुरभिसंधियों और चुप्पियों पर उठाये गये प्रश्‍नचिह्न प्रतिष्ठितों और प्रतिष्‍ठाकांक्षी छुटभइयों -- ''नवोदितों'' को बहुत चुभेंगे। वैसे भी मेरी पोस्‍ट राजनीति और राजनीतिक सरगर्मियों को लेकर ही होती हैं। कभी-कभार साहित्‍य की दुनिया में चल रही घृणास्‍पद सत्ताधर्मिता और अवसरवाद पर यदि कुछ लिखती हूं तो यह पता होता है कि यह बात किनको चुभेगी और कितनी चुभेगी। रहा सवाल टैग करने का तो आपने शायद ध्‍यान नहीं दिया कि मैं अपनी हर पोस्‍ट उन ग्रुपों में पोस्‍ट करती हूं जिनमें मैं शामिल हूं।

8) उदय प्रकाश की रचनाओं की ताकत को स्‍वीकारने से किसी को इंकार नहीं है। प्रश्‍न उनकी विचारधारात्‍मक अवस्थिति का है। सशक्‍त रचनाकार की विचारधारात्‍मक अवस्थिति यदि गलत हो तो उसका और पुरज़ोर प्रतिकार होना चाहिए। 'प्रचंड प्रशंसिका' शब्‍द से यदि आपको सत्ताधारी मर्दवादी भाषा की बू आ रही है तो यह आपकी नाक की समस्‍या है मेरी नहीं। एक बहस के दौरान, एक व्‍यक्ति दो पक्षों में से एक पक्ष को लगातार 'लाइक' करता है (यानी आपके ही अनुसार, उन्‍हें ''पढ़ने योग्‍य'' मानता है!) और दूसरे पक्ष की अवस्थिति पर चुप रहता है तो उसका पक्ष स्‍वत: स्‍पष्‍ट है। और आप तो इस पोस्‍ट में भी उदय प्रकाश को सही ठहरा रही हैं,फिर प्रतिवाद किस बात का कर रही हैं! मैंने यही तो कहा है कि उदय प्रकाश के गोरखपुर विषयक कृत्‍य को जायज़ ठहराना, उनके उत्तरआधुनिकतावादी विचारप्रेरित रचनाओं की प्रशंसा करना और दूसरी ओर प्रगतिशीलता के सुर में सुर मिलाना -- यह अंतरविरोधी अवस्थिति है। इसी बात पर मैंने आपको 'बेपेंदी का लोटा' कहा है।

9) सुशीला जी, अपनी बात को हर जेनुइन प्रतिबद्ध व्‍यक्ति दृढ़ता से कहता है और जिसे गलत समझता है, उसकी बिना लोकोपवादों की चिंता किये हुए आलोचना करता है। मैंने यही किया। न तो अपना विचार किसी के ऊपर थोपा और न ही 'पोलिटिकल' समझ किसी को उधार देने की कोशिश की। यह तो आप थीं जिन्‍होंने मेरीपोस्‍ट के तथ्‍यों और तर्कों का तर्कसम्‍मत प्रतिवाद किये बिना, चार लाइन के कमेंट में निहायत उद्धत अहम्‍मन्‍यता के साथ मेरे कृत्‍य को ''निन्‍दनीय'' करार दे दिया। फतवेबाजी और अपने विचार को थोपने का काम आपने किया, मैंने नहीं। मैं तो अभी भी पूरी विनम्रता और सहनशीलता के साथ आपके सर्वथा अप्रासंगिक व्‍यक्तिगत प्रश्‍नों -- ''जिज्ञासाओं'' का उत्तर दे रही हूं और यह आग्रह कर रही हूं कि लगे हाथों आप अपने बारे में भी इन्‍हीं प्रश्‍नों का उत्तर देती चलें। आपकी अपनी समझ आपको मानवीयता और सर्वहारा के निकट रखती है, यह मानना वाजिब है। मेरा भी अपने बारे में यही मानना है। अत: यदि किसी मसले पर मैं अपना स्‍टैंड रखूं तो आपको उसका नुक्‍तेवार तार्किक प्रतिवाद करना चाहिए, न कि ''निन्‍दनीय'' होने का फतवा जारी कर देना चाहिए।

10) 'गोरखपुर का भूत' मुझे भला क्‍यों सतायेगा, वह तो उदय प्रकाश का जीवनभर पीछा करता रहेगा! मैं उदय प्रकाश के झूठ का पर्दाफाश करते हुए उनसे बहस के दौरान स्‍थानीय अखबारों के हवाले से यह तथ्‍य बता चुकी हूं कि फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ के हाथों उदय प्रकाश के सम्‍मानित होने का कार्यक्रम पहले से तय था। जहां तक उस कार्यक्रम के फासिस्‍टों द्वारा अनुमोदित होने-न होने का प्रश्‍न है, यह सच्‍चाई गोरखपुर का सामान्‍य नागरिक भी जानता है कि महाराणा प्रताप इंटर कालेज और डिग्री कालेज का पूरा प्रबंधन गोरखनाथ मंदिर के हाथों में है और महंत और योगी की अनुमति व अनुमोदन के बिना वहांपत्ता भी नहीं खड़कता। केवल उदय प्रकाश की पोस्‍ट को ईश्‍वर की गवाही मानकर मत चलिये। उनकोगलत साबित करते हुए उस समय कुछ ब्‍लॉगों पर और कुछ पत्रिकाओं में जो सामग्री आयी थी कृपया उनका भी अवलोकन करें। कृपया यह भी देखें कि मुझसे बहस के दौरान उदय प्रकाश इस प्रसंग में तथ्‍यों को लेकर किस तरह गोलमाल करते रहे और सारे हवाले देने पर फिर किस तरह चुप्‍पी साध गये!

11) आपने बिल्‍कुल सही फरमाया है, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक जीवन में जो सचमुच अवसरवादी दिखायी दे, उसकी सामूहिक रूप से आलोचना या बहिष्‍कार करना चाहिए। उदय प्रकाश और तथाकथित प्रगतिशीलों के ऐसे ही अवसरवाद के मैंने ठोस तथ्‍य गिनाकर उनकी आलोचना की। अब आप यह किस आधार पर कह सकती हैं कि किसी सोची-समझी राजनीति के तहत ''पूर्वाग्रहों, कुंठाओं, ईर्ष्‍याओं या नैतिक कमज़ोरियों के साज़ि‍शाना संगठन'' की ओर से किसी ''निरपराध व्‍यक्ति'' को शिकार बनाया जा रहा है? जिस तरह मैंने कथित ''निरपराध व्‍यक्तियों'' से संबंधित ठोस तथ्‍य गिनाये हैं, उसी तरह आपको भी उस कथित संगठन के बारे में ठोस तथ्‍य बताने चाहिए। हालांकि 'जनचेतना' के ''शालिनी  कांड'' का हवाला देकर अपनी मंशा और नीयत ज़ाहिर कर दी है! यह कौन-सा ''कांड'' है और कब घटित हुआ? मैं तो उस शालिनी को जानती हूं जिसने 1994 में जब राजनीतिक जीवन की शुरुआत की तब हम लोग साथ थे और निधन से पूर्व दिल्‍ली में कैंसर के इलाज के दौरान जिसकी दिन-रात देखभाल की ज़ि‍म्‍मेदारी तीन माह तक मैंने और नेहा दिशा ने संभाली थी तथा जो अंतिम सांस तक अडिग क्रान्तिकारी बनी रही। उसने राजनीतिक लक्ष्‍य से विश्‍वासघात करने वाले अपने पिता से सार्वजनिक तौर पर संबंध-विच्‍छेद कई वर्ष पहले कर लिया था और इस बात को लखनऊ के सम्‍मान्‍य साथी सीबी सिंह और 'जनचेतना' स्‍टाल पर आने वाले सभी बुद्धिजीवी जानते थे। मुझे लखनऊ के अपने साथियों से पता चला कि आप लखनऊ के उन लोगों में से थीं जिनसे शालिनी अपनी बीमारी का पता चलने के कुछ पहले तक नियमित रूप से मिलती रही थीं और अपने पिता और संगठन से ग़द्दारी करने वाले दूसरे लोगों के बारे में उसकी पूरी सोच को आप अच्‍छी तरह से जानती थीं। 'जनचेतना' में आयोजित शालिनी की शोकसभा में भी आपने शालिनी के प्रति अपनी भावनाएं व्‍यक्‍त की थीं। उसके बाद भी अब अगर आप इस तरह की बात कर रही हैं तो इससे पता चलता है कि अपनी तिलमिलाहट और व्‍यक्तिवादी अहम्‍मन्‍यता में आप विक्षिप्‍तावस्‍था में पहुंच चुकी हैं। अपनी निजी खुन्‍न्‍स निकालने के लिए जो व्‍यक्ति एक दिवंगत क्रान्तिकारी को लेकर ऐसे झूठों का इस्‍तेमाल करने तक पहुंच जाये उससे घटिया इंसान कोई नहीं हो सकता।

आपकी ''सनसनीखेज़'' जानकारी का स्रोत शायद वह घटिया कुत्‍साप्रचार मूलक खर्रा है जो शालिनी का पिता सत्‍येंद्र और कुछ और भगोड़े तत्‍व बुद्धिजीवियों में बांटते फिर रहे थे जिसमें उन्‍होंने 'जनचेतना' के साथियों पर शालिनी को बरगलाने, मकान आदि हड़पने, संपत्ति संचय करने आदि के निहायत घिनौने आरोप लगाये थे और जिनके आधार पर इन सभी कुत्‍साप्रचारकों पर मानहानि का मुकदमा भी किया जा चुका है। आप अपने बारे में सोचिये कि आप कितनी बड़ी अफवाहबाज़ हैं कि बिना किसी ठोस तथ्‍य या जानकारी के घुमा-फिराकर चतुराई से यह कहने की कोशिश कर रही हैं कि उस तथाकथित ''शालिनी कांड'' के पीछे जो ''षड्यंत्रकारी संगठन'' था वही अब मेरी पोस्‍ट के माध्‍यम से ''निरपराध व्‍यक्तियों'' को अपना निशाना बना रहा है! और यह आप तब कर रही हैं जब ठोस तथ्‍यों के आधार पर मैंने अपनी बात कही है और ''निरपराध व्‍यक्तियों'' की हिफाज़त के चक्‍कर में आप भी चोट खा बैठी हैं। ऐसे ही लोग ''विष रस भरा कनक घट जैसे'' होते हैं, ठोकर लगते ही विष रस निकल कर बहने लगता है। हम लोगों के पक्ष से भगोड़ों के कुत्‍साप्रचार के जवाब में अपनी अवस्थिति 'बेबाक-बेलौस' ब्‍लॉग पर दी जा चुकी है और मैं भी अपने ब्‍लॉग और फेसबुक वॉल पर लिख चुकी हूं। कृपया आप भी उनकी तफ़सील में जायें।

12) 'सूप तो सूप बहत्तर छेद वाली चलनी' मुहावरे का अर्थ किसी मुहावरा कोश से देख लीजियेगा। इसमें न तो किसी पुरुषवादी मानसिकताकी बात है, न किसी स्‍त्री विरोध की। इसके साथ ही मैंने आपको इधर-उधर लुढ़कने वाला 'बेपेंदी का लोटा' भी कहा है। कृपया इसका भी अर्थसंधान कर लीजियेगा। जो स्‍त्री या पुरुष उदय प्रकाश की वैचारिक अवस्थिति और अवसरवादी व्‍यवहार के साथ भी खड़ा हो और प्रगतिशीलता का झंडाबरदार बनकर जलेस-प्रलेस-जसम में भी सुर मिलाता हो और उनका पैराकार बनकर किसी तर्कपूर्ण तर्कसंगत आलोचना को बिना किसी तर्क के चार लाइन में फतवा देकर ''निन्‍दनीय'' घोषित कर देता हो, उसके ऊपर ये मुहावरे सटीक बैठते हैं।

13) मैं जलेस-प्रलेस-जसम को खत्‍म कर देने का फतवा देने वाली कौन होती हूं। लेकिन इन संगठनों की वैचारिक अवस्थिति और अवसरवादी आचरण से यदि मेरी आपत्ति या मतभेद है तो उन्‍हें तथ्‍यों के हवाले से रखने का तो मेरा अधिकार है ही। मैंने जो तथ्‍य गिनाये हैं उन पर बात होनी चाहिए। मैं यह भी नहीं कहती कि इन संगठनों से जुड़े एक-एक व्‍यक्ति गलत हैं। पर इन संगठनों के नेतृत्‍वकारी लोगों और ज़्यादातर अग्रणी लोगों तथा इनकी लाइन पर यदि मेरा सवाल है तो उन्‍हें तो रखूंगी ही।

आप और भी बातें रखने वाली हैं। उन्‍हें रखिये। प्रतीक्षा है। पहले मैं बिन्‍दुवार जवाब दूंगी फिर तफ़सील से अपनी बातें रखूंगी, कुछ और ठोस तथ्‍यों के साक्ष्‍य और अपने तर्कों के साथ। अत: आपकी अगली पोस्‍ट की प्रतीक्षा है।


Sushila Puri shared a note via Kavita Krishnapallavi.May 5

१-- मेरा पहला सवाल तो आपसे ये है कि फेसबुक जैसी सोशल साईट पर अपना 'फेस' छुपाने का आपका मंतव्य क्या है..? या आपकी इस प्रोफाइल से कोई और ही अपनी 'विचारधारा' प्रकट करता रहता है..? इस तरह अपना खुद का ही चेहरा छुपाकर आप कितनी क्रांति कर पाएंगी यह कहना कठिन है..! कहीं तूफानों से घिरे आपके जहाज वाले प्रोफाइल की तरह आप भी अपनी आंतरिक झंझा में तो नहीं घिरीं हैं..?


२-- आपने किस आधार पर मुझ पर निहायत निम्न स्तर का यह आरोप लगाया कि 'विचारधारा को ताक पर रखकर हर धारा और खेमे के लब्ध प्रतिष्ठितों से संपर्क' बनाती हूँ..? और हाँ, आपके शब्दकोष में 'लब्ध-प्रतिष्ठित' का अर्थ क्या है..? किन किन को आप अपने इस 'लब्ध प्रतिष्ठित' की श्रेणी में रखती हैं..?


३-- मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में क्या मैं यह जान सकती हूँ कि फ़ासिस्ट, जातिवादी राजनीतिक ताकतों का आपने कितना और कब कब विरोध किया ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस समय पूरा देश एक फासिस्ट तानाशाह को रोकने और समतावादी समाज व लोकतान्त्रिक मूल्यों को बचाए रखने के लिए जूझ रहा है, ठीक उसी वक्त आप राजेश जोशी के बहाने अपनी भड़ास निकालते हुए लोगों का ध्यान बटाना चाहती हैं..! धूमिल याद आ रहे हैं -- 'पार्टनर तुम किसकी जेब से बोल रहे हो' कहीं गड़करी और अम्बानी की जेब से तो नहीं..?


४-- आपने लिखा है कि मैं प्रलेस, जलेस, जसम के सारे आयोजनों में जोर शोर से शिरकत करती हूँ, और मेरा सुर हर कहीं मिल सकता है. ग़नीमत है कि आपने 'सुर' कहा , सुर या सरगम से यदि परिचित हों तो बताना चाहती हूँ कि इन सभी लेखकीय संगठनों में भाग लेना कोई गुनाह नहीं मानती मैं, इन सारे संगठनों का मूल चरित्र सृज्नात्मत्कता ही है, और इसी समाज के अंग हैं ये सभी संगठन. इन सभी संगठनों की विचारधारात्मक सांस्कृतिक दखल को सृजनात्मकता में भी देखने की कोशिश करिए.. पूर्वाग्रहों और अपने ही चश्में से दुनियां देखने की जिद कई बार बहुत सारा अनदेखा करा देती है..! क्या इन संगठनों में शिरकत करने या शामिल होने को आप अपने 'अनोखे चश्मे' से अपराध की तरह देखती हैं..? जब आप मेरी वैचारिक, सामाजिक निष्ठा और प्रतिबद्धता के सामने 'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है' जैसा मुक्तिबोध का सवालिया निशान लगाती हैं और उसे संदिग्ध बनाती हैं, तो प्रतुत्तर में मैं आपसे प्रश्न पूछना चाहती हूँ-- 'तुम बताओ, पार्टनर ! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है'..? मार्क्स ने आर्थिक आधार और उत्पादन के साधनों को अपने वैचारिक विश्लेषण में केंद्रीय महत्त्व दिया था.. मैं पूछती हूँ 'आपकी आय के आर्थिक स्रोत क्या हैं' ? कहीं स्वयं मार्क्सवादी विचाधारा को ही तो आपने अपने 'उत्पादन के साधन' और 'मुनाफे' की कमाई में तो नहीं बदल डाला है ? ऐसा मैं इस लिए पूछ रही हूँ कि मार्क्सवादी शब्दावली का लगातार चर्वण करते हुए उन्ही ठगों, बाबाओं की ओर तो नहीं ले जा रहा जिन्होंने हिंदुत्त्वाद के लिए ब्राह्मणवादी ग्रंथो की शब्दावलियों का चर्वण कर हजारों करोड़ की दौलत बटोरते हैं..? आपने जिस आक्रामक मर्दवादी भाषा का प्रयोग मुझपर लांछन लगाने के लिए किया है, मैं पूछना चाहती हूँ कि कहीं आप मार्क्सवाद की रामदेव या अशोक सिंघल तो नहीं..? आपकी तुलना इन लोगों से इसलिए कर रही हूँ क्योंकि अभी भी मेरा विश्वास है कि फेसबुक पर अपनी पहचान ढांकने के बावजूद मैं अभी भी आपको एक स्त्री, एक बहन मान रही हूँ. यदि आप पुरुष होती तो शायद मैं आपके लिए एक दूसरा नाम लेती..! विष्णू खरे का उद्धरण याद आ रहा है-- 'चूसे हुए शब्दों का विराट मलबा' ! कविता जी ! इस संकट के दौर में जब हमारे तमाम साथी फासीवादी कार्पोरेटपरस्त उग्र सांप्रदायिक खतरे से जूझ रहे हैं आप समूचे परिदृश्य में अपनी कुंठाग्रस्त चूसे हुए शब्दों का कचरा फैला रही हैं. बाज आइये.. खुद से तनिक बाहर निकलिए..!

५-- सम्मान या पुरस्कार जोड़ जुगाड़ से ही नहीं मिलते हैं, सौ में से निन्यानबे बार रचना की स्वीकृति ही दिलाती है ये सब.. एक प्रतिशत अपवाद तो हर जगह मौजूद हैं. अब यदि किसी को कोई सम्मान नहीं मिला तो इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि दूसरों को मिले प्रोत्साहन से वह ईर्ष्या करे या कुंठा पाले..! पुरस्कार या सम्मान रचना से बड़े कभी नहीं हो सकते..! यह सब तो बहुत मामूली उपक्रम हैं उस सृजनात्मकता के स्वीकार्य के लिए, रचना की उपस्थिति ही आखिरी सच है जिससे कोई इंकार नही�

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