--कविता कृष्णपल्लवी
''एक बूढ़ा और अकेला आदमी था जिसका ज्यादातर समय बिस्तर में ही बीतता था। ऐसी अफवाहें थीं कि उसने अपने घर में एक खजाना छिपाकर रखा हुआ है। एक दिन कुछ चोर उसके घर में घुसे, चारो ओर ढूँढने के बाद उन्हें तहखाने में एक तिजोरी मिली। चोर उसे अपने साथ ले गये। तिजोरी तोड़ने पर उन्होंने उसे चिट्ठियों से भरा हुआ पाया। वे प्रेम पत्र थे जो अपनी पूरी लम्बी जिन्दगी के दौरान उस बूढ़े आदमी ने एकत्र किये थे। चोर उन चिटि्ठयों को जलाने जा रहे थे, लेकिन फिर उन्होंने इसके बारे में बातचीत की और अन्त में उन्हें बूढ़े आदमी को लौटाने का फैसला किया। एक-एक करके। प्रति सप्ताह एक। तबसे, हर सोमवार की दोपहर को बूढ़ा आदमी डाकिये की राह देखता रहता था। जैसे ही वह उसे देखता था, उसकी ओर भागता था, और डाकिया जो पूरे मामले के बारे में जानता था, उसके हाथों में चिट्ठी थम्हा देता था। और यहाँ तक कि संत पीटर भी उस दिल की धड़कन को सुन सकते थे जो एक औरत से संदेशा पाकर खुशी से पागल हुआ जा रहा था।''
यह कहानी उरुग्वे के विख्यात लेखक-कवि-पत्रकार एदुआर्दो ग़ालिआनो ने अपनी पुस्तक 'बुक ऑफ एम्ब्रैसेज़' में बयान की है। उनकी दूसरी प्रसिद्ध पुस्तक 'ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका' की प्रस्तावना लिखते हुए चीले की विख्यात लेखिका इसाबेल अलेन्दे ने इस कहानी की चर्चा की है और इसे सृजन कर्म के एक विलक्षण रूपक के रूप में देखा है। इसाबेल अलेन्दे लिखती हैं:
''क्या यह साहित्य की एक मजेदार सामग्री नहीं है? काव्यात्मक सत्य द्वारा रूपान्तरित एक घटना। लेखक उन चोरों के समान होते हैं, जो कोई ऐसी चीज ले लेते हैं जो वास्तविक होता है, जैसे कि वे पत्र, और फिर एक जादुई करतब से वे उसे पूरी तरह से ताजा किसी चीज में रूपांतरित कर देते हैं। गालिआनों के किस्से में चिट्ठियों का वास्तविक अस्तित्व है और सबसे पहले वे उस बूढ़े आदमी की चीजें हैं, लेकिन वे एक अँधेरे तहखाने में अनपढ़ी पड़ी हैं। एक-एक करके डाक से उन्हें वापस लौटाने के सीधे सरल करतब ने चिट्ठियों को नया जीवन दे दिया और उस बूढ़े आदमी को नये विभ्रम। मेरे लिए, गालिआनो के कृतित्व मे यह चीज सराहनीय है: छुपे हुए खजाने को पा लेना, घिसी-पिटी घटनाओं में नयी चमक पैदा कर देना, और थकी हुई आत्मा को अपने भयंकर भावावेग से ऊर्जस्वी बना देना।''
सोचती हूँ, यह कैसी आग है जो लातिन अमेरिकी देशों के सुदूर जंगलों-पर्वतों से लेकर उस पूरे महादेश के बहुतेरे लेखकों के दिलों में और कृतित्व तक में सतत् उद्दाम ज्वाला की तरह धधकती रहती है: होसे मार्ती से लेकर नेरूदा, गालिआनो और इसाबेल अलेन्दे तक में और सैकड़ों ऐसे नामचीन और गुमनाम कवियों और लेखकों तक में जिन्होंने अपनी जनता के दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध लेखनी के साथ बन्दूक भी उठाई, जिन्होंने सच्चाई बयान करने के जुर्म में जेलों में यंत्रणाएँ तक भुगतीं और जानें तक गँवाईं। उनके मुकाबले हमारे देश के कथित वामपंथी लेखक-बुद्धिजीवी कितने कायर, कबूतर दिल, सुविधाभोगी और अवसरवादी दीखते हैं! इन सबका वामपंथ एक मुखौटा है। ये जनता की ज़न्दिगी और संघर्षों से कितने दूर हैं! सच ये उसी हद तक और उस समय तक ही बोलते हैं जबतक कोई जोखिम न हो! और ये ऐसी कूट भाषा में बोलते हैं कि जनता के कुछ भी पल्ले न पड़े और सत्ताधारियों को भी कोई खतरा न महसूस हो। ज्यादातर का जीवन उच्च मध्यवर्गीय है। शराबनोशी, आवारागर्दी और सत्ता के संस्कृति प्रतिष्ठानों के चक्कर लगाना -- यही इनके प्रिय शगल हैं। पुरस्कार और सम्मान पाना और सरकारी अकादमियों में घुस लेना -- यही इनके जीवन का परम लक्ष्य है। जन-संघर्षों में भागीदारी के जोखिम से ये कोसों दूर रहते हैं। बस कभी-कभार कुछ धरना-प्रदर्शनों और हस्ताक्षर अभियानों में शामिल होकर अपनी गर्दन फुला लिया करते हैं। राजनीति और विचारधारा के बारे में इनका अध्ययन या तो शून्य होता है या निहायत सतही, अधकचरा और पल्लवग्राही। इनमें से कई ब्रेष्ट, नेरूदा, नाजिम हिकमत, गालिआनो आदि का अनुवाद भी करते रहते हैं, उनपर लिखते भी रहते हैं, पर उनके जीवन से कुछ भी नहीं सीखते और इन्हें शर्म भी नहीं आती।
यदि कोई लेखक या कवि लिखने के अतिरिक्त जनता के बीच राजनीतिक काम भी करता है तो ये गिरोहबाज उसे बिरादरी बाहर मानते हैं, उसकी रचनाओं को लेकर 'चुप्पी का षड्यंत्र' रचते हैं या उसपर ''राजनीतिक अतिमुखरता'' या ''नारेबाजी'' का ठप्पा लगा देते हैं। ऐसे लोगों को लेकर वे हमेशा कुंठाग्रस्त और ईर्ष्याविदग्ध रहते हैं। कला के आग्रह को लेकर शिक़ायताना अंदाज में भुनभुनाते रहते हैं।
इन दिनों तो स्थिति और भी खराब है। इन कथित वामपंथियों के एक बड़े हिस्से को अज्ञेय, धर्मवीर भारती और निर्मल वर्मा तक में प्रगतिशीलता दीखने लगी है। दलितवादी लेखकों के संकीर्ण अनुभववाद और प्रकृतवाद पर और लम्पट देहमुक्तिवादी कुलीनतावादी नारीवादी लेखन पर भी अनालोचनात्मक ढंग से प्रशंसा-पुष्प बरसाने का चलन आम है। मार्क्सवाद को 'आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स', 'सबआल्टर्न स्टडीज' और उत्तरआधुनिक वैचारिकी के साथ फेंट-फाटकर विचित्र खिंचड़ी परोसी जा रही है। जादुई यथार्थवाद की भोंड़ी प्रहसनात्मक नक़ल भी खूब की जा रही है। लुब्बे लुब्बाब यह कि प्रगतिशीलता और प्रतिगामिता के बीच की सभी विभाजक रेखायें मिटा दी गयीं हैं -- जीवन में भी और लेखन में भी। पूँजीपतियों के प्रतिष्ठानों से यहाँ तक कि गुहा नियोगी के हत्यारों के प्रतिष्ठान से भी पुरस्कार लेने वाले कवि केदारनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ से सम्मान ग्रहण करने वाले उदय प्रकाश, पहले भाजपा के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को अपना पिता बताने वाले और अब कांग्रेस सरकार की हिमालय में बाँध निर्माण की विनाशकारी नीति की वकालत करने वाले लीलाधर जगूड़ी स्त्रियों के बारे में अपने मर्दवादी उदगारों के लिए कुख्यात और म.गा.हि.वि.वि. में दारोगा की तरह कुलपतिगीरी कर चुके विभूति नारायण राय, म.गा.हि.वि.वि. कोई पद या शोधवृत्ति लेकर मस्ती काटने वाले दर्जनों वामपंथी लेखक-कविगण, विभूति नारायण राय से उपकृत होने के बाद पटना जाकर नीतीश कुमार की सरकार द्वारा सरकारी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान के अध्यक्ष पद से नवाजे जाने वाले अग्निमुखी कवि आलोकधन्वा, आर.एस.एस. के राममाधव से लेकर गुण्डा नेता पप्पू यादव तक की पुस्तकों का विमोचन करने वाले नामवर सिंह, भाजपा सांसद विद्यानिवास मिश्र के जन्मदिन पर स्वामी करपात्री के आश्रम धर्मसंघ शिक्षा मंडल में विद्याश्री न्यास के तत्वावधान में तीन दिवसीय राष्ट्रीय लेखक शिविर के आयोजन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले जलेस, प्रलेस और जसम की वाराणसी इकाई के कर्ताधर्ता गण, शोध छात्रा के यौन उत्पीड़न के आरोपी अजय तिवारी, और ऐसे तमाम लोग कुछ दिनों की आलोचना और शिकायतों के बाद वामपंथी लेखकों-कवियों-आलोचकों की बिरादरी में फिर से स्वीकार्य हो जाते हैं। जो आज किसी पर उँगली उठाता है, कल वह भी वैसा ही धतकरम करते हुए धरा जाता है। कौन किसका हुक्का-पानी बंद करेगा, जब सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। जो अभी सदाचार का ताबीज बाँट रहा है, वह इसलिए कि अभी तक उसके सामने कोई आकर्षक, प्रलोभनकारी प्रस्ताव नहीं आया है। जो असंतुष्ट है, वह विद्रोही है, बाकी सब चुप हैं। असंतुष्ट भी जब संतुष्ट हो जाता है तो डोमाजी उस्ताद के पीछे चल रहे कलाकोविदों के जुलूस में शामिल हो जाता है। युवा कवियो-लेखकों की ऐसी लम्पट, फिलिस्टाइन, छैलों की मण्डलियाँ भी हैं, जो युवा तुर्क की मुद्रा में तभी तक मठ और गढ़ तोड़ने के ओजस्वी नारे लगाती हैं जबतक पुराने मठाधीशों से मान्यता की पुचकार नहीं मिलती। पुचकार मिलते ही ऐसे जन्तु पूँछ दबाकर सिर झुकाकर दूध पीने लगते हैं। मान्यता यदि नहीं ही मिले, तो ये लोग अपना नया मठ बना लेते हैं, एक-दूसरे की कविताओं-कहानियों को सराहने-प्रचारित करने लगते हैं, अपने में से ही कुछ को आलोचक भी बना लेते हैं, दंद-फंद करके विज्ञापन जुटाकर पत्रिका निकाल लेते हैं और कभी-कभी तो प्रकाशन भी खोल लेते हैं। ये नकली युवा तुर्क इस मामले में अधिक शातिर हैं कि राजनीतिक दिखने का महत्व समझते हैं। इसलिए प्राय: पत्रिकाओं में राजनीतिक-आर्थिक विषयों पर कुछ लेख आदि भी लिखते रहते हैं। पर इनकी राजनीति विचार गोष्ठियों-संगोष्ठियों से आगे कहीं नहीं जाती। ये सभी अधिकांशत: प्राध्यापक, सरकारी अफसर, एन.जी.ओ. कर्मी या यू.जी.सी. की शोधवृत्ति पाने वाले प्राध्यापक पदाकांक्षी युवा होते हैं, जो अपने कैरियर और जीवन सुविधाओं को जोखिम में डालने को लेकर हरदम सतर्क रहते हैं।
इन पतित और अवसरवादी लोगों से जनता के क्रांतिकारी साहित्य के किसी प्रकार के नवोन्मेष की अपेक्षा कत्तई नहीं की जा सकती। वाम साहित्य-कला-संस्कृति के इस अंधकार युग को समाप्त करने के लिए जन संघर्षों के बीच से आने वाले नये लोगों से ही उम्मीद पाली जा सकती है। फिलहाल तो अंधकार युग जारी है।
बहुत सुंदर आलेख अक्षरस सत्य :)
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