--कविता कृष्णपल्लवी
हिन्दुत्ववादियों के बहुसंख्यावादी फासीवाद के विरोध को केवल मोदी के विरोध तक सीमित किया जाना सिद्धांतत: एक ग़लत राजनीतिक प्रवृत्ति है जो नुकसानदेह है। यह व्यक्तिकेन्द्रित विरोध फासीवाद के व्यापक और दूरगामी ख़तरे एवं चुनौती को दृष्टिओझल करने का ही काम करेगा।
सोशल मीडिया पर मोदी की मूर्खताओं, बड़बोलेपन, झूठ और व्यक्तिगत चारित्रिक पाखण्ड की खिल्ली उड़ाने वाली सामग्री की भरमार रहती है। लेकिन इससे हमले का असली निशाना चूक जाता है। मोदी के चलते हिन्दुत्ववादी फासीवाद नहीं है। उग्र हिन्दुत्ववाद का आज का प्रतिनिधि मोदी है। इस व्यक्ति नायक की ''विकास पुरुष'' की आधुनिक छवि संकटग्रस्त पूँजीवाद की आज की जरूरत के हिसाब से गढ़ी गयी है। नवउदारवादी नीतियों को एक सर्वसत्तावादी निरंकुश राज्यतंत्र की जरूरत है। जो भी बुर्जआ पार्टी सत्ता में आयेगी, उसे निजीकरण-उदारीकरण और मज़दूरों से अतिलाभ निचोड़ने की नीतियों को बेरहमी से लागू करना ही होगा। संकटग्रस्त पूँजीवाद की स्वाभाविक गति से भारत में रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की परिधि को सिकुड़ना-छीजना ही है। लेकिन चूँकि इस काम को फासीवादी ज्यादा कुशलता से कर सकते हैं, इसलिए भारतीय पूँजीपति वर्ग इस समय मुख्य दाँव मोदी और भाजपा पर लगा रहा है। उसका दूसरा विकल्प कांग्रेस है। संसदीय वाम की भूमिका दूसरी सुरक्षा पंक्ति की है। तथाकथित तीसरा मोर्चा बस 'स्टेपनी' और 'स्टॉप गैप अरेंजमेण्ट' की भूमिका निभाने के लिए है। आप पार्टी और केजरीवाल की भूमिका मात्र सेफ्टीवाल्व और पैबन्दसाज़ की है।
हिन्दुत्ववादी फासीवाद तो भारत में एक राजनीतिक रुझान के रूप में 1925 से ही मौजूद रहा है, बस समय-समय पर यह अपने मुखौटे बदलता रहा है। केवल रथयात्रा और बाबरी मस्जिद ध्वंस से भाजपा मुख्य संसदीय विपक्षी दल बन ही नहीं सकती थी, यदि नवउदारवाद के दौर ने पूँजीपति वर्ग को इस घोड़े पर भी दाँव लगाने के लिये मजबूर नहीं किया होता और ज्यादा से ज्यादा रुग्ण होते बुर्जुआ समाज में फासीवादी प्रवृत्तियों के फलने फूलने की माकूल ज़मीन नहीं तैयार हुई होती। इसलिये हमारा कहना है कि केवल मोदी को हमलों और उपहास का निशाना बनाने के बजाय हिन्दुत्ववादी फासीवाद की पूरी धारा को बेनक़ाब किया जाना चाहिए और उस व्यापक जनता को शिक्षित किया जाना चाहिए, जिसे फासीवाद के विरोध में लामबंद करना ही एकमात्र कारगर विकल्प है।
मोदी को हमले का निशाना बनाते हुए कुछ लोग अक्सर यह भी चर्चा करते हैं कि कैसे उसने आडवाणी-जोशी-जसवंत-केशुभाई जैसे बुर्जुगों को ठिकाने लगा दिया और सुषमा आदि प्रतिस्पर्धियों को किनारे बैठा दिया। यह भी चर्चा की जाती है कि 'गुजरात-2002' के समय मोदी को राजधर्म निभाने की नसीहत देने वाले वाजपेयी अपेक्षतया उदार और सबको जोड़कर चलने वाले व्यक्ति थे। ये सारी बातें भ्रामक और मूर्खतापूर्ण हैं। भापजा के ''मोदी युग'' की ज़मीन 1989 से तैयार करने का काम आडवाणी की अगुवाई में ही शुरू हुआ था, जिसमें जोशी आदि अनन्य सहयोगी थे। वाजपेयी का ''उदारवादी'' मुखौटा इस पूरे कपट प्रपंच का एक अंग मात्र था। जब इन लोगों की भूमिका समाप्त हो गयी तो ये हाशिये पर धकेल दिये गये। ये सभी हमदर्दी के पात्र नहीं, बल्कि इतिहास के उतने ही बड़े अपराधी हैं, जितना कि मोदी।
हिन्दुत्ववादी फासीवादियों के सबसे निकट सहयोगी वे इस्लामी कट्टरपंथी फासीवादी हैं, जिनकी कथनी और करनी के हवाले दे-देकर हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी आम जनता में साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह और जुनून पैदा करने की कोशिश करते हैं। इस्लामी कट्टरपंथियों का फासीवाद आम मुस्लिम आबादी को हिन्दुत्ववादियों का शिकार बनाने और हिन्दुत्ववाद का सामाजिक आधार मजबूत करने के अलावा और कुछ भी नहीं करता। व्यापक आम मुस्लिम आबादी के लिए सबसे ज़रूरी यह है कि वह राजनीतिक-सामाजिक-व्यक्तिगत दायरों में मुल्लाओं-मौलवियों-इमामों और धार्मिक संगठनों की दखलंदाज़ी को सिरे से खारिज कर दे। धर्म एक निजी विश्वास का मसला है। धार्मिक आधार पर की जाने वाली हर सामाजिक - राजनीतिक गोलबंदी हर हाल में आम ग़रीब जनता की एकता को तोड़ती है और शोषक वर्गों की सत्ता को मजबूत बनाती है। याद रखना होगा कि किसी भी देश में धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी सुरक्षा और स्वतंत्रता के साथ तभी रह सकती है जब राजनीति और समाज के ताने-बाने में वास्तविक धर्म निरपेक्षता हो, यानी सभी को निजी धार्मिक-अधार्मिक विश्वास की आजादी हो और राजनीतिक-सामाजिक मामलों में धर्म की कोई दखल न हो। धार्मिक आधार पर सुरक्षात्मक लामबंदी या प्रतिकार धार्मिक अल्पसंख्यकों को और अधिक असुरक्षित बनाता है और बहुसंख्यावादी फासीवादियों के हाथ मजबूत करता है। इस्लामी कट्टरपंथ का विरोध करने के लिए सबसे आगे आम मुस्लिम आबादी को ही आना होगा और समूची मेहनतक़श जनता को हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपंथ का विरोध करना होगा।
अपने आप को मुसलमानों के हित रक्षक के रूप में पेश करने वाली सपा जैसी पार्टियाँ हों या कांग्रेस, ये भी मुसलमानों की असुरक्षा को भुनाने और उन्हें महज एक वोट बैंक के रूप में ही देखने का काम करती हैं। दंगों की आँच पर सपा(और बसपा की भी) रोटियाँ उतनी ही सिंकती हैं, जितनी भाजपा की। इन पार्टियों ने आम मुस्लिम ग़रीबों की बेहतरी के लिए वास्तव में कभी कुछ नहीं किया है।
जो संसदीय वामपंथी हैं, उन्होंने हिन्दुत्ववादी फासीवाद के विरुद्ध व्यापक मेहनतक़श आबादी की शिक्षा और लामबंदी के बजाय केवल चुनावी जोड़-तोड़ करके भाजपा को सत्ता में आने से रोकना ही अपना परम लक्ष्य बना रखा है। साम्प्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध वे केवल संसद में गत्ते की तलवारें भाँजते है और संसद के बाहर कुछ नपुंसक रस्मी कवायदें करते रहते हैं। जिन क्षेत्रीय दलों को लेकर वे तथाकथित 'सेक्युलर फ्रण्ट' बनाते रहते हैं, उनमें से कई भाजपा के पूर्व सहयोगी होते हैं और सत्ता सुख की सम्भावना देखते ही फिर छिटककर भाजपा गठबंधन में शामिल हो जाते हैं। सवाल केवल भाजपा को सत्ता से दूर रखने का ही नहीं है। सत्ता से दूर रहकर भी हिन्दुत्ववादी फासीवाद सड़कों पर उत्पात मचाता रहेगा और मेहनतक़श जनता की एकता को तोड़ता रहेगा। दंगे और रक्तपात होते रहेंगे। धार्मिक अल्पसंख्यकों में असुरक्षा बोध बना रहेगा।
रास्ता सिर्फ एक ही है, चाहे वो जितना कठिन और लम्बा लगे। धार्मिक कट्टरपंथ और जाति की राजनीति के विरुद्ध तृणमूल स्तर पर व्यापक मेहनतक़श आबादी को संगठित करना होगा। मज़दूर आन्दोलन का क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण करते समय इस पहलू पर विशेष बल देना होगा। क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन के एजेण्डे पर भी इस मुद्दे को प्रमुखता के साथ स्थान देना होगा।
धार्मिक कट्टरपंथी फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष पूँजीवादी व्यवस्था विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष का ही एक अंग है।
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