--कविता कृष्णपल्लवी
दलित नेता उदित राज का (ये जे.एन.यू. में पढ़ते समय एस.एफ.आई. कार्यकर्ता रामराज हुआ करते थे) हिन्दुत्ववादी फासिस्ट भाजपा में जाना और रामविलास पासवान का भाजपा से गठबंधन कर लेना ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है। इसके पहले रामदास आठवले भाजपा-शिवसेना से गलबहियाँ डाल चुके हैं। मायावती भाजपा के साथ मोर्चा बना चुकी हैं। दलित पैंथर विचारक नामदेव ढसाल शिवसेना की गोद में बैठ चुके हैं।
दरअसल सभी दलित पार्टियाँ और नेता पूँजीवादी व्यवस्था के सबसे घृणित टुकड़खोर हैं। सत्ता और धन-लाभ के अतिरिक्त इनका कोई सिद्धान्त नहीं है। दलित आबादी, जिसका 90 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा सर्वहारा है, उससे इनका कोई लेना-देना नहीं। हज़ारों वर्षों से जातिगत उत्पीड़न ने दलितों में अन्य जातियों के प्रति जो घृणा पैदा की है, ये बस उसी को भुनाकर अपना वोट बैंक बनाते हैं। देश भर में जारी दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर कोई आन्दोलन तक खड़ा करने का इनमें बूता नहीं है। संसदमार्गी जड़वामन कम्युनिस्टों के राजनीतिक सामाजिक आचरण और पूरे भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन द्वारा जाति प्रश्न पर व्यापक सामाजिक आन्दोलन न खड़ा कर पाने के कारण आमूलगामी परिवर्तन के प्रति दलित आबादी में जो निराशा पैदा हुई, ये चुनावी दलित पार्टियाँ और नेता आज उसी को भुना रहे हैं।
अम्बेडकर इन सबके लिए देवता हैं। दलितों के मुक्ति के प्रति अम्बेडकर के सरोकार पर कोई सवाल नहीं है, पर देखना होगा कि जाति नाश का स्वयं अम्बेडकर का प्रोजेक्ट क्या था और उनकी राजनीति क्या थी! देश के 11प्रतिशत कुलीनों द्वारा चुनी गयी संविधान सभा ने देश का संविधान पारित किया। 1935 के भारत सरकार क़ानून के ढाँचे पर उसका पहला मसौदा सिविल सर्विस के दो अफसरों ने तैयार किया था, जिसे अम्बेडकर ने अंतिम रूप दिया। अम्बेडकर की आर्थिक नीतियाँ नेहरू की आर्थिक नीतियों से भिन्न नहीं थीं। वे स्वयं मानते थे कि उनके राजनीतिक सिद्धान्त बुर्ज़ुआ व्यवहारवादी जॉन डेवी से प्रभावित थे। दलितों के हित में कभी उन्होंने दलितों के अलग गाँव बसाने की बात कही, कभी शहरीकरण का विकल्प सुझाया, कभी आरक्षण का फार्मुला दिया और अंत में धर्मांतरण का मार्ग दिखाया। आज तक के आरक्षण ने बस एक छोटा सा दलित मध्यवर्ग पैदा किया है, जिसका दलित सर्वहारा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। व्यापक शहरीकरण के बावजूद दलित उत्पीड़न आज भी मौजूद है। धर्मान्तरण का रास्ता कहीं काम नहीं आया। नवबौद्ध भी दलित ही माने जाते रहे। यह भी याद रखना होगा कि जमींदारी उन्मूलन की प्रक्रिया पर और सामंतों को मुआवज़े देने के प्रावधान पर भी अम्बेडकर की पूरी सहमति थी। दरअसल अम्बेडकर एक कट्टर संविधानवादी थे, जबकि दलित मुक्ति और जाति उन्मूलन का रास्ता आमूलगामी सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति के एजेण्डे का ही एक अंग हो सकता है।
यह ग़ौरतलब है कि 1960-70 तक देश की दलित आबादी का बहुलांश कम्युनिस्ट आन्दोलन के साथ था। फिर संशोधनवाद की पतलशीलता उजागर होने के साथ ही उसका मोहभंग होता चला गया। जब मा-ले आन्दोलन खड़ा हुआ तो गाँवों के दलितों में ही उसका मुख्य आधार था। पर इस आन्दोलन के विघटन ने भी दलित आबादी को मायूस किया। आज बहुत सारे कम्युनिस्ट भी 'अम्बेडकर ग्रन्थि' के शिकार हैं, और अम्बेडकर के राजनीतिक विचारों पर लीपापोती करते हुए, उनके कुछ उद्धरणों को छाँट-बीन कर मार्क्स और अम्बेडकर में संगम कराने की कोशिश करते हैं। जाति-नाश का सही सकारात्मक प्रोग्राम प्रस्तुत करने के बजाय वे थोड़ा ''अम्बेडकरवादी'' बनकर दलितों का ''दिल जीतना'' चाहते हैं। इस मौक़ापरस्ती से कुछ हाथ नहीं लगेगा। सच को सच की तरह ही लेना और कहना पड़ेगा। विज्ञान में बेईमानी, अंधपूजा और मौक़ापरस्ती की कोई गुंजाइश नहीं होती।
कम्युनिस्ट आंदोलन के नींव से पुनर्निर्माण की इस घड़ी में कम्युनिस्टों को जाति प्रश्न के सामाजिक-आर्थिक स्वरूप और इतिहास को जानना होगा और समग्र अम्बेडकर साहित्य को पढ़कर उसकी समालोचना प्रस्तुत करनी होगी। उन्हें जाति उन्मूलन का अपना सकारात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत करना होगा। हम खुली बहस में उतरने को हर समय तैयार हैं। इस प्रश्न पर संजीदा साथियों से आग्रह है कि वे जाति प्रश्न पर अम्बेडकर के चुनिन्दा लेखन के साथ इन पुस्तकों को अवश्य पढ़ें:
(1) जाति प्रश्न और मार्क्सवाद (चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्तुत आलेख) (प्रकाशक-अरविन्द स्मृति न्यास, लखनऊ)
(2) जाति प्रश्न के समाधान के लिए -- रंगनायकम्मा (प्रकाशक- राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ)
(3) जाति और वर्ग : एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण -- रंगनायकम्मा (राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ)
ये सभी पुस्तकें 'जनचेतना' (डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020) से मँगवाई जा सकती हैं।
राजनीतिक दलों से अलग जो दलित बुद्धिजीवी और साहित्यकार हैं, इनमें से अधिकांश खुशहाल मध्यवर्ग के सुविधाभोगी हैं, जो अपने गुज़रे हुए अतीत को 'भोगे हुए यथार्थ' के रूप में लिखकर अपनी पहचान और प्रतिष्ठा बनाने में संलग्न हैं। ये शब्दों से चाहे जाति व्यवस्था के खिलाफ जितना आग उगल लें, अपने अपार्टमेण्ट्स से बाहर निकलकर दलित उत्पीड़न के किसी प्रश्न पर ये सड़कों पर नहीं उतर सकते। कारख़ानों में खटते और साथ ही जातिगत पार्थक्य का दंश झेलते दलित मज़दूरों से और गाँवों के दक्खिन टोलों के अभिशप्त निवासियों से इन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं। इनका दु:ख सिर्फ यह है कि अच्छी नौकरियों में होते हुए इन्हें भी जातिगत अपमान का बारीकी में सामना करना पड़ता है। इनका दूसरा दु:ख यह है कि अभी भी अकादमिक क्षेत्र, पत्रकारिता, नौकरशाही में दलितों का हिस्सा बहुत कम है और नियुक्तियों में जातिगत पूर्वाग्रह काम करते हैं। यानी 60 वर्षों के आरक्षण के बावजूद यदि यही स्थिति है तब तो किसी वैकल्पिक आमूलगामी बदलाव के प्रोजेक्ट पर सोचना ही होगा। दूसरी बात, यदि इन सफेद कॉलर नौकरियों में (जो अतिसीमित हैं) दलितों की संख्या जातिगत जनसंख्या के अनुपात में हो भी जाये (जो संभव नहीं), तो उससे भी बहुसंख्यक दलित सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी पर क्या फर्क पड़ेगा और जाति पार्थक्य किस हद तक हल होगा? समस्या यह है कि इन दलित बुद्धिजीवियों-लेखकों से इन प्रश्नों पर, अम्बेडकर के विचारों पर कोई बहस नहीं की जा सकती। अपने सीमित तर्कों के समाप्त होते ही ये आप पर सवर्णवादी, जातिवादी आदि-आदि का आरोप लगा देंगे। ये सिद्धान्त और तर्क के क्षेत्र में भी आरक्षण की छूट चाहते हैं, या फिर तर्क की जगह गाली-गलौज से काम चला लेते हैं, क्योंकि न तो ये गम्भीरता से मार्क्स को पढ़े होते हैं, न ही अम्बेडकर को। दलित प्रश्न बहुत बड़ी बौद्धिक आबादी के लिए गहरी चिन्ता का विषय होने के बजाय फैशन और पहचान बनाने का साधन होकर रह गया है।
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