Saturday, March 08, 2014

स्‍वदेश सिन्‍हा का नया ''विद्वत्तापूर्ण'' सूत्रीकरण


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी


फेसबुक पर जो नये-नये चुटपुटिया ''मार्क्‍सवादी'' विश्‍लेषकों की भीड़ दीखती है, इनकी सूक्तियों को पढ़कर अच्‍छे-अच्‍छे विद्वानों को भी चक्कर आ जाये । कहा  जाता है कि सच्‍चा मूर्ख वह होता है जो अपनी मूर्खता के प्रदर्शन से कभी बाज नही आता। दूसरे, मूर्खता में जो मौलिकता होती है वह समझदारी में कभी नहीं होती। मगर अफसोस, जैसा कि लेनिन ने कहा था, मूर्खता से दुनिया का कभी कोई भला नहीं हो सकता।

अभी  कुछ दिनों पहले स्‍वदेश जी ने ये सद्विचार प्रकट किये थे कि भारतीय वामपंथी बेकार ही ''फासीवाद-फासीवाद'' का इतना शोर मचा रहे हैं क्‍योंकि भारत में हिटलर-मुसोलिनी वाला फासीवाद कभी नहीं आ सकता, इसलिए कि नवउदारवाद बुर्जुआ जनवाद को हर हाल में बनाये रखेगा। इस ख़तरनाक और घटिया सामाजिक-जनवादी दृष्टिकोण की आलोचना मैं रख चुकी हूँ।
आज इत्तफ़ाक़ से केजरीवाल के बारे में उनकी कुछ पोस्‍ट्स पर निगाह पड़ी जिसमें कुल मिलाकर वे फरमाते हैं कि केजरीवाल की समस्‍या यह है कि वह बुर्जुआ आदर्शवादी हैं और राजनीति में बुर्जुआ आदर्शवाद का युग बीत चुका है! इस सूत्रीकरण में स्‍वदेश सिन्‍हा का सामाजिक-जनवाद हल्‍दी–चंदन से और निखरकर बास मारते सुधारवाद के रूप में सामने आया है। पिछले दिनों कई अकादमिक मार्क्‍सवादियों तक ने अरविन्‍द केजरीवाल की राजनीति का अच्‍छा विश्‍लेषण किया। प्रभात पटनायक तक ने कहा कि मोदी के ‘स्‍ट्रांग नियोलिबरिज्‍़म’ के बरक्‍स केजरीवाल ‘क्‍लीन  नियोलिबरिज्‍़म’ का मॉडल पेश कर रहे हैं। पर स्‍वदेश सिन्‍हा या तो ऐसे विश्‍लेषण पढ़ते ही नहीं, या ऐसी बातें उनके पल्‍ले ही नहीं पड़ती। इसलिए हम केजरीवाल के ''बुर्जुआ आदर्शवाद'' की  कुछ बानगी पेश कर रहे हैं:
(1) केजरीवाल ने कई जगह व्‍यापारियों को संबोधित करते हुए कहा कि व्‍यापारी तो ईमानदारी से व्‍यापार करना चाहते हैं, सारी समस्‍या सरकारी अमलों का भ्रष्‍टाचार है।
(2) फिक्‍की और सी.आई.आई. की बैठकों में भारतीय पूँजीपतियों को सम्‍बोधित करते हुए केजरीवाल ने कहा कि ‘उद्योग चलाना और नौकरी देना तो आपका काम है, सरकार का नहीं। उद्योगों की तरक्‍की में कोई बाधा न आने देना हमारा दायित्‍व है। हम सिर्फ़ कुछ भ्रष्‍ट पूँजीपतियों के खिलाफ़ हैं, बाकी तो ईमानदारी से देश की तरक्‍की के लिए काम करना चाहते हैं'।
(3) केजरीवाल जब दिल्‍ली में सरकार चला रहे थे तो दिल्‍ली के दो हज़ार असंगठित मज़दूरों ने सचिवालय पहुँचकर उनसे मिलने की माँग की। उनकी मात्र इतनी मांग थी कि ठेका प्रथा खतम करने के अपने चुनाव-पूर्व वायदे को पूरा करने की दिशा में केजरीवाल कोई ठोस कदम उठायें और श्रम विभाग के भ्रष्‍टाचार पर भी अंकुश लगायें ताकि मज़दूरों को न्‍यूनतम मज़दूरी और अन्‍य क़ानून द्वारा हासिल सुविधाएँ मिल सकें। केजरीवाल मज़दूरों से मिलने तक नहीं आये और जब उनका श्रम मंत्री गिरीश सोनी (जो ख़ुद चमड़ा कारखानों का मालिक है) आया तो ठेका प्रथा के प्रश्‍न पर उसने साफ़ कहा कि हम ऐसा नहीं कर सकते क्‍योंकि हमें कारखाना मालिकों का भी हित देखना होगा। केजरीवाल ने राज्‍य के अस्‍थायी शिक्षकों-कर्मचारियों को सत्ता में आते ही स्‍थायी करने का वायदा किया था लेकिन एक पखवारे तक धरने पर बैठै शिक्षकों से वह मिलने तक नहीं आये और डी.टी.सी. के अस्‍थायी कर्मचारियों की हड़ताल धमकी देकर तुड़वा दी गयी।
(4) वोट बैंक के चक्‍कर में केजरीवाल बरेली के धार्मिक कट्टरपंथी नेता मौलाना तौक़ीर रज़ा खान से मिलने गये, जो सपा से नाराज़ चल रहे थे।
(5) केजरीवाल और योगेन्‍द्र यादव खाप पंचायतों को सांस्‍कृतिक संगठन मानते हैं और उन्‍हें बनाये रखने के पक्षधर हैं।
(6) केजरीवाल ने कई टी.वी. साक्षात्‍कारों से पहले यह पूर्व शर्त रखी कि उतर-पूर्व में व कश्‍मीर में ए.एफ.एस.पी.ए. और छत्तीसगढ़ में राजकीय दमन जैसे प्रश्‍नों पर उनसे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए। एक साक्षात्‍कार में बहुत कोंचे जाने पर कश्‍मीरी जनता पर जारी कहर के मुद्दे से बचते हुए उन्‍होंने कहा कि कश्‍मीर भारत का अविभाज्‍य अंग है और उसके लिए हम कई बार सर कटा सकते हैं। उन्‍होंने यह भी कहा कि हमें कश्‍मीर में ऐसा काम करना चाहिए कि पाकिस्‍तान अधिकृत कश्‍मीर के लोग भी उसमें आकर शामिल हो जायें। अफज़़ल गुरू को फांसी और बाटला हाउस काण्‍ड जैसे प्रश्‍नों पर स्‍टैण्‍ड लेने से केजरीवाल हमेशा बचते रहे।
(7) केजरीवाल और उनके सभी ख़ास सहयोगी दशकों से फोर्ड फाउण्‍डेशन और साम्राज्‍यवादी एजेंसियों से वित्तपोषित एन.जी.ओ. चलाते रहे। आज औपचारिक तौर पर भले ही वे इन एन.जी.ओ. से अलग हो गये हों, पर लग्‍गू-भग्गूओं के जरिए इनका नियंत्रण उन्‍हीं के हाथों में है।
तथ्‍य दर्जनों और भी दिये जा सकते हैं और केजरीवाल टीम के अग्रणी सदस्‍यों का बायोडाटा और राजनीतिक अतीत भी देखा जा सकता है, पर केजरीवाल को स्‍वदेश सिन्‍हा द्वारा दिये गये ''बुर्जुआ आदर्शवादी’’ के तमगे की कलई उतारने के लिए इतने तथ्‍य काफ़ी है।
वैसे बुर्जुआ आदर्शवादी तो अन्‍ना हजारे को भी नहीं कहा जा सकता जो आज भ्रष्‍ट, निरंकुश और हत्‍यारी ममता बनर्जी की पार्टी का चुनाव-प्रचार कर रहे हैं। उन्‍होंने महाराष्‍ट्र में विलासराव देशमुख के भ्रष्‍टाचार पर कभी मुँह नहीं खोला क्‍योंकि उनसे उनके क़रीबी रिश्‍ते थे।
वैसे यह बुर्जुआ आदर्शवाद होता क्‍या है और इसका युग कब से कब तक थाॽ केवल भ्रष्‍टाचार न करने और ‘’सादा जीवन’’ बिताने से निजी जीवन में कोई बुर्जुआ आदर्शवादी हो सकता है, राजनीति में इस मानक की गुंजाइश नहीं होती। सही शब्‍द बुर्जुआ मानवतावाद है, पश्चिम में राजनीति में इसका युग उन्‍नीसवी शताब्‍दी में ही बीत चुका था, व्‍यक्तियों के रूप में कुछ अवशेष बीसवीं शताब्‍दी में बचे थे। और ऐसे जो भी बुर्जुआ मानवतावादी विचारक और राजनीतिक थे, वे सभी मार्क्‍सवादी नहीं होते हुए भी साम्राज्‍यवादी-पूँजीवादी अत्‍याचारों, युद्धों और लुटेरी आर्थिक नीतियों के रैडीकल विरोधी थे। उपनिवेशों में राष्‍ट्रीय आन्‍दोलनों के दौरान बीसवीं शताब्‍दी में भी बुर्जुआ मानवतावाद के कई शेड्स देखने को मिलते हैं। जैसे गाँधी बुर्जुआ मानवतावाद के ‘टिपिकल’ भारतीय संस्‍करण थे, पर उनका मानवतावादी यूटोपिया भी अतीतोन्‍मुखता और धार्मिक अतार्किकता की गंद में लिथड़ा हुआ था। हर-हमेशा जनता के हर संघर्ष के विरूद्ध सचेतन तौर पर राज्‍य-प्रायोजित सुधारवाद की परियोजना लेकर खड़े होने वाले जय प्रकाश नारायण, आपातकाल को ‘शान्तिपर्व’ मानने वाले विनोबा भावे, तमाम सजातीय माफिया सरदारों को प्रश्रय देने वाले चन्‍द्रशेखर, उ.प्र. के मुख्‍यमंत्रित्‍वकाल में पुलिसिया ‘एनकाउण्‍टर राज’ चलाने वाले वी.पी. सिंह — इनमें से कोई भी बुर्जुआ मानवतावादी या कथित आदर्शवादी नहीं था। ये अलग-अलग भूमिका निभाने वाले, बुर्जुआ वर्ग के घाघ प्रतिनिधि थे।
यह चर्चा अवांतर प्रसंग करके किंचित विस्‍तार से इसलिए कर दी गयी है ताकि यह स्‍पष्‍ट हो सके कि हर राजनीतिक शब्‍दावली का निहितार्थ उसकी ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि और परिप्रेक्ष्‍य से तय हुआ है। राजनीतिक विमर्शों में यूँ ही टाँग अड़ाने वाले और राजनीतिक घटनाओं पर यूँ ही अनडब्‍बू टिप्‍पणी करने वाले स्‍वदेश सिन्‍हा टाइप कूपमण्‍डूक विद्वत्ता-प्रदर्शन के चक्कर में अपनी असलियत तो दिखाते ही हैं, अपनी सामाजिक जनवादी राजनीति को भी सरेआम उघाड़ कर रख देते हैं। स्‍वदेश सिन्‍हा जी, अपनी बिरादरी के सारे सामाजिक जनवादियों से शोक में दो मिनट का मौन रखने की अपील कीजिए कि ‘’बुर्जुआ आदर्शवाद’’ का युग बीत गया ! अफसोस ! अन्‍यथा ‘’बुर्जुआ आदर्शवादी’’ केजरीवाल कुछ तो कमाल कर ही दिखाते !

1 comment:

  1. कल 13/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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