मार्क्सवाद को सच्चे मायनों में आत्मसात करने के लिए, हमें उसे न सिर्फ़ किताबों से सीखना चाहिए बल्कि मुख्यतया वर्ग संघर्ष के जरिए सीखना चाहिए, अमली काम के जरिए और मज़दूरों व किसानों के जन-समुदाय के साथ घनिष्ठ सम्पर्क के जरिए सीखना चाहिए। जब हमारे बुद्धिजीवी कुछ मार्क्सवादी किताबें पढ़ने के अलावा मज़दूरों व किसानों के जन-समुदाय के साथ घनिष्ठ सम्पर्क के जरिए और अपने अमली काम के जरिए कुछ समझ प्राप्त कर लेंगे, तो हम सब लोग एक ही भाषा बोलने लगेंगे, न सिर्फ़ देशभक्ति की समान भाषा में और समाजवादी व्यवस्था की समान भाषा में बोलने लगेंगे बल्कि शायद कम्युनिस्ट विश्व-दृष्टिकोण की समान भाषा में भी बोलने लगेंगे। अगर ऐसा हो गया तो यह निश्चित है कि हम सब लोग और अच्छी तरह कार्य कर सकेंगे।
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- डायरी के नोट्स : जो सोचती हूं उनमें से कुछ ही कहने की हिम्मत है और क्षमता भी
- कला-दीर्घा
- कन्सर्ट
- मेरी कविताई: जीवन की धुनाई, विचारों की कताई, सपनों की बुनाई
- मेरे प्रिय उद्धरण और कृति-अंश : कुतुबनुमा से दिशा दिखाते, राह बताते शब्द
- मेरी प्रिय कविताएं: क्षितिज पर जलती मशालें दण्डद्वीप से दिखती हुई
- देश-काल-समाज: वाद-विवाद-संवाद
- विविधा: इधर-उधर से कुछ ज़़रूरी सामग्री
- जीवनदृष्टि-इतिहासबोध
Wednesday, March 19, 2014
मार्क्सवाद को सच्चे मायनों में आत्मसात करने के लिए, हमें उसे न सिर्फ़ किताबों से सीखना चाहिए बल्कि मुख्यतया वर्ग संघर्ष के जरिए सीखना चाहिए, अमली काम के जरिए और मज़दूरों व किसानों के जन-समुदाय के साथ घनिष्ठ सम्पर्क के जरिए सीखना चाहिए। जब हमारे बुद्धिजीवी कुछ मार्क्सवादी किताबें पढ़ने के अलावा मज़दूरों व किसानों के जन-समुदाय के साथ घनिष्ठ सम्पर्क के जरिए और अपने अमली काम के जरिए कुछ समझ प्राप्त कर लेंगे, तो हम सब लोग एक ही भाषा बोलने लगेंगे, न सिर्फ़ देशभक्ति की समान भाषा में और समाजवादी व्यवस्था की समान भाषा में बोलने लगेंगे बल्कि शायद कम्युनिस्ट विश्व-दृष्टिकोण की समान भाषा में भी बोलने लगेंगे। अगर ऐसा हो गया तो यह निश्चित है कि हम सब लोग और अच्छी तरह कार्य कर सकेंगे।
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