--कविता कृष्णपल्लवी
लेखक यू.आर.अनंतमूर्ति ने पिछले दिनों इस आशय का बयान दिया था कि यदि संघ परिवार के मंसूबे सफल हो गये तो 'मोदी के भारत' में वे नहीं रहना चाहेंगे। उनके इस वक्तव्य पर कवि असद ज़ैदी ने भी अपने वॉल पर टिप्पणी की थी। यह सही है कि 1930 के दशक में बहुत सारे लेखकों, कलाकारों, संगीतकारों, वैज्ञानिकों को फासिस्टों के कहर से बचने के लिए जर्मनी, इटली और स्पेन से पलायन करना पड़ा था। यदि कोई उन्हें पलायनवादी कहे, तो यह सस्ती फतवेबाज़ी होगी। यूरोप के अन्य देशों या अमेरिका में रहते हुए इन बुद्धिजीवियों ने फासीवाद के विरुद्ध जनमत तैयार करते हुए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। यह अपनी भूमिका के व्यक्तिगत चयन का सवाल था। पर हमें उन बुद्धिजीवियों को भी नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने अपनी दूसरे ढंग की भूमिका चुनी थी। जर्मनी में जिन कम्युनिस्ट संगठनकर्ताओं ने नात्सी गिरोहों से सड़कों पर दो-दो हाथ करने के लिए मज़दूरों के 'फैक्ट्री ब्रिगेड' संगठित किये थे, उनमें कई बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार भी थे। इटली में भी फासिस्टों से लड़ने वाले कम्युनिस्टों में बड़ी तादाद में बुद्धिजीवी पृष्ठभूमि के लोग थे। और फिर फ्रांको के विरुद्ध स्पेनी गृहयुद्ध में 'इण्टरनेशनल ब्रिगेड' बनाकर लड़ने वाले और कुर्बानी देने वाले उन लेखकों-कलाकारों को कैसे भूला जा सकता है, जिनमें क्रिस्टोफर कॉडवेल, रॉल्फ फॉक्स और डेविड गेस्ट जैसी जानी-मानी हस्तियाँ शामिल थीं। फासिस्ट संगठन ब्रिटेन, फ्रांस तथा पश्चिमी व पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में सक्रिय थे। उनसे जिन कम्युनिस्टों, छात्रों और मज़दूरों ने सड़कों पर मोर्चा लिया था, उनमें बड़ी तादाद में लेखक, कलाकार आदि भी शामिल थे। सोवियत संघ पर नात्सी हमले का सामना करते हुए हजारों लेखक, कलाकार, पत्रकार लाल सेना में और पार्टीजन दस्तों में शामिल हुए थे। यही नहीं, तुर्की और ईरान से लेकर लातिन अमेरिकी देशों तक हज़ारों लेखकों-कलाकारों ने आततायी सत्ताओं के विरुद्ध मोर्चा लिया था, जेल गये थे, यंत्रणायें झेली थीं और शहीद हुए थे।
भारत के कवि-लेखक इस विकल्प के बारे में नहीं सोचते, क्योंकि वे अपने और अपने परिवार के ऊपर कोई जोखिम मोल लेने की सोच तक नहीं सकते। वे फासीवाद के विरुद्ध सिर्फ बौद्धिक दायरे में अतिसीमित सर्कुलेशन वाली पत्रिकाओं में कुछ लिख-पढ़कर, कुछ गर्मागर्म बातें करके, कुछ रो-धोकर, कुछ कराह-बिसूरकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। फासीवादी खतरे और फासिस्टों की जमीनी कार्रवाइयों के बरक्स आम मेहनतक़श जनता में कुछ करने-धरने को सड़क पर उतरने की जहमत वे उठा ही नहीं सकते। उनकी अतिसुविधाभोगी अभिजात जीवन की आदतें उनके लिए सड़क पर उतरना असंभव बना चुकी हैं। बस वे मात्र इतना करते हैं कि अपने को अलग करके वामपंथी राजनीतिक दलों को कोसते-धिक्कारते-फटकारते रहते हैं कि वे फासिस्टों का मुक़ाबला क्यों नहीं कर पा रहे हैं।
दोष सिर्फ इन बुद्धिजीवियों का ही नहीं है। जो संसदमार्गी जड़वामन कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं वे भारतीय पूँजीवादी जनवादी संविधान और संसद की ही ढाल तलवार लेकर फासीवाद का मुक़ाबला करना चाहती हैं। ख्रुश्चोव के ये अनुगामी इस मामले में एकदम काउत्स्की के अनुगामी सामाजिक जनवादियों जैसा ही आचरण कर रहे हैं। कहने को मज़दूरों को बड़ी राष्ट्रीय यूनियनें इनके पास हैं, पूर चूँकि इन्होंने उनको कभी कोई राजनीतिक चेतना दी ही नहीं, सिर्फ अर्थवादी दलदल में धँसाये रखा, इसलिए ये लोग मज़दूर वर्ग को कभी हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के खिलाफ़ लामबंद कर ही नहीं सकते। इनके लिए हिन्दुत्ववादी फासीवाद के विरोध का एकमात्र मतलब है संसद में कथित 'तीसरा मोर्चा' बनाकर भाजपा को सत्तासीन न होने देना। भाजपा सत्तासीन न भी हो, तो भारतीय पूँजीवाद के ढाँचागत संकट और नवउदारवाद की ज़मीन से खाद-पानी पाकर ये फासिस्ट आने वाले दिनों में भारतीय सामाजिक परिदृश्य पर मजबूती से बने रहेंगे और उत्पात मचाते रहेंगे। केवल मेहनतक़शों को जुझारू ढंग से संगठित करके ही इनसे निपटा जा सकता है। भारतीय फासिस्ट हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको नहीं बन सकते, पर भारतीय पूँजीपति वर्ग जंज़ीर से बँधे कुत्ते की तरह इन्हें हरदम तैयार रखेगा।
फासिस्टों का मुक़ाबला क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं। पर फिलहाल मा-ले शिविर भी दक्षिण और ''वाम'' विचलनों के बीच झूल रहा है और लम्बे समय से ठहराव-बिखराव का शिकार है। फिर भी जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुप मज़दूरों के बीच राजनीतिक काम कर रहे हैं, वही आने वाले दिनों में सड़कों पर फासिस्ट बर्बरों का मुक़ाबला करेंगे। हमें याद रखना होगा कि 1980 के दशक में, पंजाब में कॉलेजों के हॉस्टलों और परिसरों से लेकर गाँवो-गाँवों तक में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने ही खालिस्तानियों का मुक़ाबला किया था। भाकपा-माकपा के नेता तो तब घरों में दुबके थे और कमाण्डों-सुरक्षा में चलते थे। केवल पड्डा, मान और पाश ही नहीं, सैकड़ों कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी युवाओं ने जान की कुर्बानी दी पर खालिस्तानियों को सबक भी उन्होंने ही सिखाया। हमें इतिहास से सबक लेना होगा और आने वाले दिनों की जुझारू तैयारी करनी होगी। आखिर कोई कम्युनिस्ट लड़ने और मरने से भला कैसे डरेगा, कबतक डरेगा और क्यों डरेगा?
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