--कविता कृष्णपल्लवी
जब क्रान्तिकारी शक्तियों के पीछे हटने, पराजित होने का बिखरने का दौर होता है, तो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पाँतों में टूट-फूट, बिखराव लाजिमी तौर पर पैदा होता है। जब देश-दुनिया की परिस्थितियों में महत्वपूर्ण बदलाव आते हैं तो भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों में उनके मूल्यांकन और नयी रणनीति के निर्धारण को लेकर तीखे मतभेद और सांगठनिक अलगाव तक पैदा हो जाते हैं। तीखी राजनीतिक बातें होती हैं, व्यंग्य किये जाते हैं, अपने स्टैण्डप्वाइण्ट से प्रतिपक्ष पर श्रेणी-विशेष के विचारधारात्मक-राजनीतिक भटकाव के आरोप लगाये जाते हैं। सांगठनिक फूटों के सरगर्म माहौल में अतिरेकी ग़लतियाँ भी होती हैं। यह सबकुछ कम्युनिस्ट इतिहास और संस्कृति का अंग रहा है, 'आउटसाइडर' इसे नहीं समझ पाते। कम्युनिस्ट विज्ञान के निर्जीव वाहक नहीं, भाव प्रवण लोग होते हैं।
पर राजनीतिक विवादों से व्यक्तिगत गाली-गलौज, कुत्सा प्रचार और अपने अतीत के अन्दरूनी सांगठनिक जीवन की ''रहस्य-रोमांच कथायें'' सुनाना एकदम अलग चीज़ होता है। संजीदा कम्युनिस्टों पर तो इसका प्रभाव नहीं पड़ता, पर निठल्ले बुद्धिजीवी इन चीज़ों का मजा लेते हैं, नये लोग कुछ संशयग्रस्त हो जाते हैं और बुर्ज़ुआ वर्ग की राज्यसत्ता इस गाली-गलौज और रहस्योदघाटनों से अपने काम लायक जानकारी एकत्र करने की कोशिश करती है। पिछले पचास वर्षों के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास बताता है कि ऐसे कई रिटायर्ड भगोड़े सचेतन 'स्टेट एजेंट' तक साबित हुए। कुछ प्रतिशोधवश इतने पतित हुए, तो कुछ राज्यसत्ता के आतंक से टूट गये।
कई बार ऐसा होता है कि जो संगठन राजनीति में आपके सामने टिक नहीं पाता और पेटी-बुर्ज्वा भटकाव के कारण आपकी सफलताओं से कुढ़ता रहता है, वह तब फूले नहीं समाता जब आपके खिलाफ कोई गाली-गलौज या गन्दी अफ़वाहबाजी करता है। कभी-कभी तो वह ऐसे तत्वों को बढ़ावा या शाबासी भी देता है। यह आत्मघाती हरकत है। या तो वह संगठन स्वयं भी पेटी-बुर्ज्वा गलाजत में डूब चुका है या वैचारिक अंधेपन के कारण यह नहीं समझ पा रहा है कि ऐसी संस्कृति और ऐसे तत्वों को शह देना आत्मघाती हरकत है। यह पूरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन को भारी क्षति पहुँचाना है।
लेनिन ने बहुत पहले कहा था कि गाली-गलौज, कुत्सा-प्रचार की भी अपनी राजनीति होती है। यह क्रान्तिकारी राजनीति के विरुद्ध एक वैचारिक हथियार है। 'महान बहस' के दौरान चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने स्पष्ट कहा था कि गाली-गलौज और कुत्सा-प्रचार वे करते हैं जिनकी राजनीति ग़लत होती है या कमज़ोर होती है।
अभी लेनिन का एक बहुत दिलचस्प लेख निगाह में आया, ''बुर्ज़ुआ वर्ग भगोड़ों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है''(लेनिन : कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्युम-30, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1977,पृ. 27-37)। लेख 1919 का है। उसमें बताया गया है कि एक बार ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य साम्राज्यवादी देशों के परस्पर संदेशों को सोवियत संघ के वायरलेस स्टेशनों ने पकड़ा। 13सितंबर के एक संदेश में कार्ल काउत्स्की की नई बोल्शेविज़्म-विरोधी किताब की चर्चा थी, जिस पुस्तक में सैद्धान्तिक आलोचना तो नाम मात्र की थी, सफ़ेद झूठों का अम्बार था। फिर जर्मन सामाजिक अंधराष्ट्रवादियों (लीबनेख्त और रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग के हत्यारे) के अखबार 'वोरवार्ट' के 7 सितंबर का अंक लेनिन को 18 सितंबर को मिला, उसमें काउत्स्की की उक्त नयी पुस्तक 'आतंकवाद और कम्युनिज़्म' परफ्रेडरिक स्टाम्प्फर का एक लेख था, जो 13 सितंबर के वायरलेस संदेश से हैरतअंगेज़ ढंग से मिलता था। यानी उक्त वायरलेस संदेश स्टाम्प्फर के लेख पर आधारित था। ऐसा नहीं था कि काउत्स्की इस बात से अनभिज्ञ था, वह अब अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिज़्म के विरुद्ध संघर्षरत 'एंटेट' के साम्राज्यवादियों और जर्मन साम्राज्यवाद के वफादार कुत्तों, नकली समाजवादी शीदेमान और नोस्क जैसे लोगों (जर्मन कम्युनिस्टों के हत्यारे) के हाथ का खिलौना बन चुका था। लेनिन ने 'सर्वहारा क्रान्ति और भगोड़ा काउत्स्की' पुस्तक में काउत्स्की को जब बुर्ज़ुआ वर्ग का दुमछल्ला कहा था तब मेंशेविक और बर्न इण्टरनेशलन के प्रतिनिधि एकदम भड़क उठे थे। लेनिन ने यह प्रश्न उठाया है कि अब ऐसे लोग क्या कहेंगे जब ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं कि काउत्स्की का इस्तेमाल बुर्ज़ुआ वर्ग विश्व-बोल्शेविज़्म के विरुद्ध संघर्ष में एक हथियार के रूप में कर रहा है। आगे लेनिन ने काउत्स्की जैसे ''महापण्डित'' द्वारा प्रस्तुत झूठों और कुत्सा प्रचारों की तफसील से चर्चा की है। फिर लेनिन ने बताया है कि काउत्स्की के अतिरिक्त त्रोएल्स्त्रा जैसे बहुतेरे भगोड़े किस प्रकार बुर्ज़ुआ वर्ग द्वारा कम्युनिस्ट आन्दोलन के खिलाफ इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
कार्ल काउत्स्की तो कम्युनिस्ट आन्दोलन की एक हस्ती था, पर उसके साथ भी इतिहास का यह तर्क लागू हुआ कि भगोड़ा होने के बाद वह बुर्जुआ वर्ग के हाथों का खिलौना बन गया, तो आप ही सोचिये कि जो ऐरे-गैरे इन दिनों वाम दायरे में कुत्सा-प्रचार की राजनीति कर रहे हैं, क्या संदिग्ध तत्व नहीं हैं? यहाँ इतिहास के एक और तथ्य से लगे हाथों परिचित हो लेना चाहिए। लासाल और बाकुनिन जब प्रथम इण्टरनेशलन में राजनीतिक संघर्ष में षड्यंत्र और छल-नियोजन का घटिया ढंग से इस्तेमाल कर रहे थे तो मार्क्स ने निजी खतों-किताबत नेएंगेल्स से एक संदेह प्रकट किया था। लगभग 70-75 वर्षों बाद अभिलेखागार खुलने पर ज्ञात हुआ कि लासालऔर बाकुनिन में से एक को फ्रांसीसी और दूसरे को जर्मन बुर्ज़ुआजी से नियमित पैसा मिलता था।
अभी सोवियत अभिलेखागार खुलने के बाद, पिछले 23 वर्षों में तमाम ऐसे ऐतिहासिक तथ्य पता चले हैं, जिनके बारे में पहले पता ही नहीं था। स्तालिन-विरोधी सभी प्रचारों को ग्रोवर फर, मारियो सूसा, लूडो मार्टेन्स आदि ने इन नये तथ्यों के आधार पर सफेद झूठ सिद्ध किया है। इण्टरनेट पर कोई भी व्यक्ति ग्रोवर फर की ऑफिशियल वेबसाइट देख सकता है। आप यह जानकर हैरत में पड़ जायेंगे कि क्रान्ति का भगोड़ा त्रात्स्की नात्सियों के साथ हाथ मिलाकर उनका एजेण्ट बन चुका था। यही नहीं, किरोव की हत्या भी इसी पार्टी-विरोधी गिरोह का कुकर्म था! दस्तावेजी प्रमाण हैं, अब क्या कहेंगे स्तालिन विरोधी कुत्सा-प्रचारक? हाँ, वे कुछ कहते ही रहेंगे, क्योंकि विश्व मीडिया पर उनकी इजारेदारी है!
एक और तथ्य की चर्चा जो कभी एक बुजुर्ग कॉमरेड ने बताया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक शहर गोरखपुर में दो पत्रकार थे। एक तो अपने को क्रान्तिकारी वामपंथी मानता था, दूसरा एक संशोधनवादी पार्टी का सदस्य था। आपातकाल लगने पर वहाँ जितनी गिरफ्तारियाँ हुईं, उनमें से अधिकांश के लिए यही दो जिम्मेदार थे। इनमें से एक की अतिरिक्त जिम्मेदारी सीमापार से आने वाले नेपाली कम्युनिस्टों पर निगाह रखने और उनके अड्डों की निगरानी की भी थी। आपातकाल के बाद उन बुजुर्ग कॉमरेड को यह जानकारी शायद उनके शिष्य रह चुके सत्ता तंत्र के किसी अधिकारी से मिली थी, पर समझदार संजीदा लोग उन दो कमीनों पर पहले से ही शक़ करते थे। यह कौन नहीं जानता कि बहुत सारे टूटे और भागे हुए लोग अतीत में 'स्टेट एजेंट' की भूमिका निभाते रहे हैं।
क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन में, विशेषकर बौद्धिक दायरों के ज़रिए एन.जी.ओ. घुसपैठ को छोटी-मोटी चीज मत समझिये। केवल राजनीतिक षड्यंत्र ही नहीं, यह एक राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों का खुफिया षड्यंत्र भी हो सकता है। पिछले दिनों मुझे भारत में जाति प्रश्न पर एक विख्यात अन्तरराष्ट्रीय एन.जी.ओ. की अन्दरूनी रिपोर्ट देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आश्चर्य तब हुआ जब बैठे ठाले बौद्धिकों के एक विमर्शवादी ''क्रान्तिकारी'' वाम संगठन के घोषणापत्र में जाति प्रश्न पर प्रस्तुत अवस्थिति न केवल उक्त रिपोर्ट की अवस्थिति से मेल खाती थी बल्कि शब्दावली तक की समानता थी!
इन सभी तथ्यों के आधार पर क्या ऐसा नहीं लगता कि क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को बाधित करने और तरह-तरह के संशय-विभ्रम पैदा करने के लिए परदे के पीछे कहीं कोई गहरी साजिश चल रही है जिसमें बहुत सारे छद्म वामपंथी बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी, एन.जी.ओ. के लोग, बैठे ठाले लोगों के विमर्शवादी ''वाम'' संगठन, टूटते-बिखरते ग्रुपों के निराशाग्रस्त विमानवीकृत लोग, अकादमिक संस्थानों के लोग और कथित प्रगतिशील वाम बौद्धिक नौकरशाह -- यानी रात के अँधेरे में डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में चलते सभी लोग (संदर्भ:मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में')शामिल हैं?
साथियो, इस आकलन को निरा संदेह या 'कांस्पिरेसी थियरी' कहकर आप खारिज कर सकते हैं! कर दीजिये, पर पूरी संजीदगी के साथ सोचने-विचारने के बाद ही कीजियेगा!
हमारी धारा के साथी पिछले 25 वर्षों से अपनी जो भी समझ है, उसके हिसाब से छात्रों-युवाओं, संस्कृति-विचार, मज़दूरों, स्त्रियों और बच्चों के मोर्चे पर काम करते रहे हैं, मज़दूरों, छात्रों-युवाओं के लिए पत्र-पत्रिकाएँ निकालते रहे हैं और इन सबके साथ, आमूलगामी परिवर्तन का अपरिहार्य काम मानते हुए वैकल्पिक मीडिया परियोजना की एक दूरगामी सोच के तहत, (बुर्जुआ जनवाद के अन्तर्गत काम करने की अपनी विश्व-ऐतिहासिक परम्परा से सीखकर) बाक़ायदा पंजीकृत संस्थाएँ बनाकर पुस्तक प्रकाशन और वितरण का तंत्र (राहुल फाउण्डेशन, जनचेतना), बच्चों के कार्यक्रम और पत्रिका (अनुराग ट्रस्ट) और मार्क्सवादी शोध-अध्ययन-संगोष्ठी और वृत्तचित्र निर्माण (अरविन्द स्मृति न्यास, ह्यूमन लैण्डस्केप प्रोडक्शन) आदि का काम चलाते हैं। यह सब पहले ही दिन से नहीं है। पच्चीस वर्षों का विस्तार है। हर संस्थान का सामूहिक प्रबंधन है और 'कोई संस्थागत अनुदान नहीं कोई वेतनभोगी नहीं, सिर्फ जनसहयोग सिर्फ स्वैच्छिक श्रम' के सिद्धान्त को लागू किया जाता है।
दुनिया में ऐसी कोई भी परियोजना या आन्दोलन नहीं होगा, जिससे कुछ लोग पीछे न हटते हों। हम लोगों के साथ भी यही हुआ। कुछ वाम विचारधारा से मोहभंग या थक जाने के कारण, कुछ निजी पारिवारिक कारणों से पीछे हटे तथा कुछ कैरियरवादी होने, कुछ घोर व्यक्तिवादी होने, कुछ नैतिक अध:पतन होने, कुछ अर्थवादी-सुधारवादी भटकाव का शिकार होने और कुछ घपले करने के कारण, या तो चले गये या निकाल दिये गये (कुछ राजनीतिक मतभेद के चलते गये और आज अपना काम कर रहे हैं, उनसे कोई शिकायत होने का कारण नहीं)। इनमें से विगत बीस वर्षों के दौरान, अलग-अलग समय पर, अलग-अलग कारणों से स्वयं गये या निकाले गये लोगों में से तकरीबन छ:-सात सक्रिय और पंद्रह-बीस समर्थक लोगों का गिरोह सा बन गया है जो ब्लॉग फेसबुक पर लिखकर, दर्जनों फेक आई.डी. बनाकर अपने ही पोस्ट्स पर कमेण्ट्स डालकर, बाकायदा पर्चे निकालकर, ई-मेल, पत्र आदि भेजकर हमलोगों की पूरी परियोजना के विरुद्ध बहुत घृणित दुष्प्रचार करता रहा है। जैसे, 'ये सभी प्रतिष्ठान करोड़ों की कमाई के धन्धे हैं, इनपर एक परिवार-विशेष और कुछ लग्गू-भग्गुओं की इजारेदारी है, हमलोग सम्पत्ति कब्जा करते हैं'... आदि-आदि। ऐसी बातों का कोई राजनीतिक प्रतिवाद कैसे कर सकता है? इस बदमाशी पर स्वयं कोई दण्ड दिया जाता तो भी संस्कारी सज्जन साथियों का कोप झेलना पड़ता। फिर पाँच वर्षों तक चुपचाप काम करते हुए हमलोगों ने यह प्रमाणित किया कि ऐसे प्रचारों से हमलोगों के काम पर कोई अहम प्रभाव नहीं पड़ेगा। हमलोगों ने पाँच वर्ष बाद अगला निर्णय यह किया कि जब ये सभी संस्थाएँ और इनसे जुड़े लोग बुर्जुआ जनवादी समाज के विधिसम्मत दायरे में नागरिक के रूप में काम कर रहे हैं और कुत्सा प्रचारक बुर्जुआ मीडिया में ही हमें लगातार गाली दे रहे हैं तो इस लड़ाई का नया चरण यह होना चाहिए कि मानहानि का दावा करके इनमें से कुछ अग्रणी तत्वों को अदालत में घसीटा जाये। इसके अगले चरण के बारे में बाद में सोचा जायेगा।
यह तो किंचित अवांतर प्रसंग करते हुए हमने अपने से जुड़े कुछ तथ्यों की चर्चा की है। हमने चर्चा लेनिन के एक लेख से की थी कि ''बुर्ज़ुआ वर्ग भगोड़ों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है।'' फिर हमने भारतीय क्रान्तिकारी वाम राजनीति के कुछ घटना-सन्दर्भों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट संदेह प्रकट किया कि कुछ बौद्धिक एजेण्टों और घुसपैठियों के जरिए क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन के पुनर्निर्माण और पुनर्गठन के विरुद्ध निश्चित तौर पर कोई गहरा व्यवस्था-प्रायोजित षड्यंत्र चल रहा है, जिसके शिकार अलग-अलग ढंग से बहुतेरे लोग हैं और हम लोग भी हैं। षड्यंत्रकारियों की बहुआयामी परियोजना का मूल लक्ष्य है अविश्वास, संशय, परस्पर-विवाद का माहौल पैदा करना और भीतर घुसकर हासिल ज़रूरी सूचनाओं से राज्य मशीनरी की मदद करना।
हम इस बात को अतीत के अनुभवों की कसौटी के आधार पर काफी हद तक प्रमाणित कर सकते हैं। जैसे, हमलोगों की परियोजनाओं को लांछित करने वाले कुत्सा प्रचारकों के गिरोह के 'कम्पोजीशन' पर ज़रा निगाह डालें। इनमें से पाँच-छ: ऐसे हैं जो किसी न किसी एन.जी.ओ. से जुड़े हैं, दो अखबारों में काम करते हैं, एक घोर अराजनीतिक पियक्कड़ ठेकेदार है, एक धनी व्यापारी परिवार का निठल्ला है, तीन-चार सरकारी अधिकारी हैं(एक कस्टम या आबकारी का भ्रष्ट पतित करोड़पति पियक्कड़ अफसर है), दो ट्रेड यूनियन के धंधेबाज हैं, एक वकील है। इनमें से अधिकांश किसी सुनिश्चित लाइन के तहत, किसी सांगठनिक अनुशासन के तहत काम नहीं करते, अपना घर और कैरियर सँवारते हैं। दो अपना-अपना धंधा करते हुए एक ऐसे संगठन से जुड़ा बताते हैं, जो उच्च मध्यवर्गीय एन.जी.ओ.पंथियों का अड्डा है। एक ट्रेड यूनियन धंधेबाज ऐसे संगठन से जुड़ा है जो स्वयं ही अराजकतावादी संघाधिपत्यवादियों का संघ है और विसर्जन की ओर अग्रसर है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इनमें रंचमात्र भी राजनीतिक एकता नहीं है। इनमें से एक कल तक माओवादी समर्थक था अब उन्हें गाली देता है। एक त्रात्स्कीपंथी है। एक घोर ट्रेडयूनियनवादी है। दो एन.जी.ओ.पंथी ''उत्तर मार्क्सवादी'' है। एक है जो मार्क्सवाद को 'पर्सनैलिटी डेवलपमेण्ट प्रोजेक्ट' के गंदे बुर्जुआ धंधे के साथ मिलाकर कुछ लोगों को मूँड़कर अपनी रोजी-रोटी चलाता है। शेष की कोई राजनीति नहीं है। समाज में हमलोगों के खिलाफ इनकी एकता घोर भाजपाई परिवारों तक से है।
तय है कि बदमाशों की यह सतमेल खिंचड़ी किसी ''उदात्त क्रान्तिकारी प्रयोजनवश'' लगातार हमलोगों पर कींचड़ नहीं उछाल रही है। इनका कोई साझा राजनीतिक प्रयोजन भी सम्भव नहीं लगता। और गौरतलब बात यह है कि यह काम यह पूरा विचित्र गिरोह निरंतरता और सुसंगति के साथ विगत पाँच वर्षों से चला रहा है। तब क्या यह संदेह करना अनुचित होगा कि इसके पीछे कोई गहरी व्यवस्था-प्रायोजित साजिश है? यदि ऐसा न हो, तो भी, इतना तो तय है कि यह एक धुरप्रतिक्रियावादी गिरोह है, जो किसी एक प्रवृत्ति को नहीं बल्कि पूरी धारा को गम्भीर नुकसान पहुँचा रहा है।
यह सारा गंदा धंधा फेसबुक पर भी लगातार चलता रहता है। समस्या यह है कि फेसबुक पर वामपंथियों में भी एक ऐसी अगंभीर, ठिठोलीबाज, मजे लेने की या तटस्थता की संस्कृति संक्रामक रूप से सर्वव्याप्त है कि जो थोड़े गम्भीर और ईमानदार लोग हैं, वे भी इन बातों पर तार्किक ढंग से नहीं सोचते, चाहे जितने तर्क उनकी नाक के नीचे रख दिये जायें। यह तटस्थता या असम्पृक्तता भी लोगों के अंदर गहराई तक पैठी निराशा की ही अभिव्यक्ति है। एक संस्कृति पैस्सिव रैडिकल वामपंथ की यह भी है कि 'भई, हमें क्या लेना-देना, सबसे गुडी-गुडी चलाते रहो।' कुछ लोग सही-ग़लत तय किये बगैर दोनो पक्षों को बराबरी पर रखकर ''झगड़े में पंच'' की भूमिका निभाने लगते हैं। यह भी एक सामाजिक-जनवादी प्रवृत्ति है। कुछ लोग सच्चाई समझकर भी चुप रहते हैं, क्योंकि सच बोल देने से उनके किसी हित या महत्वाकांक्षा को क्षति पहुँचने का अंदेशा रहता है।पक्ष तो लेना पड़ेगा कामरेड! और पैमाना वैज्ञानिक तर्कणा ही सकता है। हमारी अपील है कि लेनिन का यह लेख ज़रूर, ज़रूर पढ़िये : ''बुर्जुआ वर्ग भगोड़ों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है!''
जब क्रान्तिकारी शक्तियों के पीछे हटने, पराजित होने का बिखरने का दौर होता है, तो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पाँतों में टूट-फूट, बिखराव लाजिमी तौर पर पैदा होता है। जब देश-दुनिया की परिस्थितियों में महत्वपूर्ण बदलाव आते हैं तो भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों में उनके मूल्यांकन और नयी रणनीति के निर्धारण को लेकर तीखे मतभेद और सांगठनिक अलगाव तक पैदा हो जाते हैं। तीखी राजनीतिक बातें होती हैं, व्यंग्य किये जाते हैं, अपने स्टैण्डप्वाइण्ट से प्रतिपक्ष पर श्रेणी-विशेष के विचारधारात्मक-राजनीतिक भटकाव के आरोप लगाये जाते हैं। सांगठनिक फूटों के सरगर्म माहौल में अतिरेकी ग़लतियाँ भी होती हैं। यह सबकुछ कम्युनिस्ट इतिहास और संस्कृति का अंग रहा है, 'आउटसाइडर' इसे नहीं समझ पाते। कम्युनिस्ट विज्ञान के निर्जीव वाहक नहीं, भाव प्रवण लोग होते हैं।
पर राजनीतिक विवादों से व्यक्तिगत गाली-गलौज, कुत्सा प्रचार और अपने अतीत के अन्दरूनी सांगठनिक जीवन की ''रहस्य-रोमांच कथायें'' सुनाना एकदम अलग चीज़ होता है। संजीदा कम्युनिस्टों पर तो इसका प्रभाव नहीं पड़ता, पर निठल्ले बुद्धिजीवी इन चीज़ों का मजा लेते हैं, नये लोग कुछ संशयग्रस्त हो जाते हैं और बुर्ज़ुआ वर्ग की राज्यसत्ता इस गाली-गलौज और रहस्योदघाटनों से अपने काम लायक जानकारी एकत्र करने की कोशिश करती है। पिछले पचास वर्षों के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास बताता है कि ऐसे कई रिटायर्ड भगोड़े सचेतन 'स्टेट एजेंट' तक साबित हुए। कुछ प्रतिशोधवश इतने पतित हुए, तो कुछ राज्यसत्ता के आतंक से टूट गये।
कई बार ऐसा होता है कि जो संगठन राजनीति में आपके सामने टिक नहीं पाता और पेटी-बुर्ज्वा भटकाव के कारण आपकी सफलताओं से कुढ़ता रहता है, वह तब फूले नहीं समाता जब आपके खिलाफ कोई गाली-गलौज या गन्दी अफ़वाहबाजी करता है। कभी-कभी तो वह ऐसे तत्वों को बढ़ावा या शाबासी भी देता है। यह आत्मघाती हरकत है। या तो वह संगठन स्वयं भी पेटी-बुर्ज्वा गलाजत में डूब चुका है या वैचारिक अंधेपन के कारण यह नहीं समझ पा रहा है कि ऐसी संस्कृति और ऐसे तत्वों को शह देना आत्मघाती हरकत है। यह पूरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन को भारी क्षति पहुँचाना है।
लेनिन ने बहुत पहले कहा था कि गाली-गलौज, कुत्सा-प्रचार की भी अपनी राजनीति होती है। यह क्रान्तिकारी राजनीति के विरुद्ध एक वैचारिक हथियार है। 'महान बहस' के दौरान चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने स्पष्ट कहा था कि गाली-गलौज और कुत्सा-प्रचार वे करते हैं जिनकी राजनीति ग़लत होती है या कमज़ोर होती है।
अभी लेनिन का एक बहुत दिलचस्प लेख निगाह में आया, ''बुर्ज़ुआ वर्ग भगोड़ों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है''(लेनिन : कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्युम-30, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1977,पृ. 27-37)। लेख 1919 का है। उसमें बताया गया है कि एक बार ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य साम्राज्यवादी देशों के परस्पर संदेशों को सोवियत संघ के वायरलेस स्टेशनों ने पकड़ा। 13सितंबर के एक संदेश में कार्ल काउत्स्की की नई बोल्शेविज़्म-विरोधी किताब की चर्चा थी, जिस पुस्तक में सैद्धान्तिक आलोचना तो नाम मात्र की थी, सफ़ेद झूठों का अम्बार था। फिर जर्मन सामाजिक अंधराष्ट्रवादियों (लीबनेख्त और रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग के हत्यारे) के अखबार 'वोरवार्ट' के 7 सितंबर का अंक लेनिन को 18 सितंबर को मिला, उसमें काउत्स्की की उक्त नयी पुस्तक 'आतंकवाद और कम्युनिज़्म' परफ्रेडरिक स्टाम्प्फर का एक लेख था, जो 13 सितंबर के वायरलेस संदेश से हैरतअंगेज़ ढंग से मिलता था। यानी उक्त वायरलेस संदेश स्टाम्प्फर के लेख पर आधारित था। ऐसा नहीं था कि काउत्स्की इस बात से अनभिज्ञ था, वह अब अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिज़्म के विरुद्ध संघर्षरत 'एंटेट' के साम्राज्यवादियों और जर्मन साम्राज्यवाद के वफादार कुत्तों, नकली समाजवादी शीदेमान और नोस्क जैसे लोगों (जर्मन कम्युनिस्टों के हत्यारे) के हाथ का खिलौना बन चुका था। लेनिन ने 'सर्वहारा क्रान्ति और भगोड़ा काउत्स्की' पुस्तक में काउत्स्की को जब बुर्ज़ुआ वर्ग का दुमछल्ला कहा था तब मेंशेविक और बर्न इण्टरनेशलन के प्रतिनिधि एकदम भड़क उठे थे। लेनिन ने यह प्रश्न उठाया है कि अब ऐसे लोग क्या कहेंगे जब ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं कि काउत्स्की का इस्तेमाल बुर्ज़ुआ वर्ग विश्व-बोल्शेविज़्म के विरुद्ध संघर्ष में एक हथियार के रूप में कर रहा है। आगे लेनिन ने काउत्स्की जैसे ''महापण्डित'' द्वारा प्रस्तुत झूठों और कुत्सा प्रचारों की तफसील से चर्चा की है। फिर लेनिन ने बताया है कि काउत्स्की के अतिरिक्त त्रोएल्स्त्रा जैसे बहुतेरे भगोड़े किस प्रकार बुर्ज़ुआ वर्ग द्वारा कम्युनिस्ट आन्दोलन के खिलाफ इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
कार्ल काउत्स्की तो कम्युनिस्ट आन्दोलन की एक हस्ती था, पर उसके साथ भी इतिहास का यह तर्क लागू हुआ कि भगोड़ा होने के बाद वह बुर्जुआ वर्ग के हाथों का खिलौना बन गया, तो आप ही सोचिये कि जो ऐरे-गैरे इन दिनों वाम दायरे में कुत्सा-प्रचार की राजनीति कर रहे हैं, क्या संदिग्ध तत्व नहीं हैं? यहाँ इतिहास के एक और तथ्य से लगे हाथों परिचित हो लेना चाहिए। लासाल और बाकुनिन जब प्रथम इण्टरनेशलन में राजनीतिक संघर्ष में षड्यंत्र और छल-नियोजन का घटिया ढंग से इस्तेमाल कर रहे थे तो मार्क्स ने निजी खतों-किताबत नेएंगेल्स से एक संदेह प्रकट किया था। लगभग 70-75 वर्षों बाद अभिलेखागार खुलने पर ज्ञात हुआ कि लासालऔर बाकुनिन में से एक को फ्रांसीसी और दूसरे को जर्मन बुर्ज़ुआजी से नियमित पैसा मिलता था।
अभी सोवियत अभिलेखागार खुलने के बाद, पिछले 23 वर्षों में तमाम ऐसे ऐतिहासिक तथ्य पता चले हैं, जिनके बारे में पहले पता ही नहीं था। स्तालिन-विरोधी सभी प्रचारों को ग्रोवर फर, मारियो सूसा, लूडो मार्टेन्स आदि ने इन नये तथ्यों के आधार पर सफेद झूठ सिद्ध किया है। इण्टरनेट पर कोई भी व्यक्ति ग्रोवर फर की ऑफिशियल वेबसाइट देख सकता है। आप यह जानकर हैरत में पड़ जायेंगे कि क्रान्ति का भगोड़ा त्रात्स्की नात्सियों के साथ हाथ मिलाकर उनका एजेण्ट बन चुका था। यही नहीं, किरोव की हत्या भी इसी पार्टी-विरोधी गिरोह का कुकर्म था! दस्तावेजी प्रमाण हैं, अब क्या कहेंगे स्तालिन विरोधी कुत्सा-प्रचारक? हाँ, वे कुछ कहते ही रहेंगे, क्योंकि विश्व मीडिया पर उनकी इजारेदारी है!
एक और तथ्य की चर्चा जो कभी एक बुजुर्ग कॉमरेड ने बताया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक शहर गोरखपुर में दो पत्रकार थे। एक तो अपने को क्रान्तिकारी वामपंथी मानता था, दूसरा एक संशोधनवादी पार्टी का सदस्य था। आपातकाल लगने पर वहाँ जितनी गिरफ्तारियाँ हुईं, उनमें से अधिकांश के लिए यही दो जिम्मेदार थे। इनमें से एक की अतिरिक्त जिम्मेदारी सीमापार से आने वाले नेपाली कम्युनिस्टों पर निगाह रखने और उनके अड्डों की निगरानी की भी थी। आपातकाल के बाद उन बुजुर्ग कॉमरेड को यह जानकारी शायद उनके शिष्य रह चुके सत्ता तंत्र के किसी अधिकारी से मिली थी, पर समझदार संजीदा लोग उन दो कमीनों पर पहले से ही शक़ करते थे। यह कौन नहीं जानता कि बहुत सारे टूटे और भागे हुए लोग अतीत में 'स्टेट एजेंट' की भूमिका निभाते रहे हैं।
क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन में, विशेषकर बौद्धिक दायरों के ज़रिए एन.जी.ओ. घुसपैठ को छोटी-मोटी चीज मत समझिये। केवल राजनीतिक षड्यंत्र ही नहीं, यह एक राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों का खुफिया षड्यंत्र भी हो सकता है। पिछले दिनों मुझे भारत में जाति प्रश्न पर एक विख्यात अन्तरराष्ट्रीय एन.जी.ओ. की अन्दरूनी रिपोर्ट देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आश्चर्य तब हुआ जब बैठे ठाले बौद्धिकों के एक विमर्शवादी ''क्रान्तिकारी'' वाम संगठन के घोषणापत्र में जाति प्रश्न पर प्रस्तुत अवस्थिति न केवल उक्त रिपोर्ट की अवस्थिति से मेल खाती थी बल्कि शब्दावली तक की समानता थी!
इन सभी तथ्यों के आधार पर क्या ऐसा नहीं लगता कि क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को बाधित करने और तरह-तरह के संशय-विभ्रम पैदा करने के लिए परदे के पीछे कहीं कोई गहरी साजिश चल रही है जिसमें बहुत सारे छद्म वामपंथी बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी, एन.जी.ओ. के लोग, बैठे ठाले लोगों के विमर्शवादी ''वाम'' संगठन, टूटते-बिखरते ग्रुपों के निराशाग्रस्त विमानवीकृत लोग, अकादमिक संस्थानों के लोग और कथित प्रगतिशील वाम बौद्धिक नौकरशाह -- यानी रात के अँधेरे में डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में चलते सभी लोग (संदर्भ:मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में')शामिल हैं?
साथियो, इस आकलन को निरा संदेह या 'कांस्पिरेसी थियरी' कहकर आप खारिज कर सकते हैं! कर दीजिये, पर पूरी संजीदगी के साथ सोचने-विचारने के बाद ही कीजियेगा!
हमारी धारा के साथी पिछले 25 वर्षों से अपनी जो भी समझ है, उसके हिसाब से छात्रों-युवाओं, संस्कृति-विचार, मज़दूरों, स्त्रियों और बच्चों के मोर्चे पर काम करते रहे हैं, मज़दूरों, छात्रों-युवाओं के लिए पत्र-पत्रिकाएँ निकालते रहे हैं और इन सबके साथ, आमूलगामी परिवर्तन का अपरिहार्य काम मानते हुए वैकल्पिक मीडिया परियोजना की एक दूरगामी सोच के तहत, (बुर्जुआ जनवाद के अन्तर्गत काम करने की अपनी विश्व-ऐतिहासिक परम्परा से सीखकर) बाक़ायदा पंजीकृत संस्थाएँ बनाकर पुस्तक प्रकाशन और वितरण का तंत्र (राहुल फाउण्डेशन, जनचेतना), बच्चों के कार्यक्रम और पत्रिका (अनुराग ट्रस्ट) और मार्क्सवादी शोध-अध्ययन-संगोष्ठी और वृत्तचित्र निर्माण (अरविन्द स्मृति न्यास, ह्यूमन लैण्डस्केप प्रोडक्शन) आदि का काम चलाते हैं। यह सब पहले ही दिन से नहीं है। पच्चीस वर्षों का विस्तार है। हर संस्थान का सामूहिक प्रबंधन है और 'कोई संस्थागत अनुदान नहीं कोई वेतनभोगी नहीं, सिर्फ जनसहयोग सिर्फ स्वैच्छिक श्रम' के सिद्धान्त को लागू किया जाता है।
दुनिया में ऐसी कोई भी परियोजना या आन्दोलन नहीं होगा, जिससे कुछ लोग पीछे न हटते हों। हम लोगों के साथ भी यही हुआ। कुछ वाम विचारधारा से मोहभंग या थक जाने के कारण, कुछ निजी पारिवारिक कारणों से पीछे हटे तथा कुछ कैरियरवादी होने, कुछ घोर व्यक्तिवादी होने, कुछ नैतिक अध:पतन होने, कुछ अर्थवादी-सुधारवादी भटकाव का शिकार होने और कुछ घपले करने के कारण, या तो चले गये या निकाल दिये गये (कुछ राजनीतिक मतभेद के चलते गये और आज अपना काम कर रहे हैं, उनसे कोई शिकायत होने का कारण नहीं)। इनमें से विगत बीस वर्षों के दौरान, अलग-अलग समय पर, अलग-अलग कारणों से स्वयं गये या निकाले गये लोगों में से तकरीबन छ:-सात सक्रिय और पंद्रह-बीस समर्थक लोगों का गिरोह सा बन गया है जो ब्लॉग फेसबुक पर लिखकर, दर्जनों फेक आई.डी. बनाकर अपने ही पोस्ट्स पर कमेण्ट्स डालकर, बाकायदा पर्चे निकालकर, ई-मेल, पत्र आदि भेजकर हमलोगों की पूरी परियोजना के विरुद्ध बहुत घृणित दुष्प्रचार करता रहा है। जैसे, 'ये सभी प्रतिष्ठान करोड़ों की कमाई के धन्धे हैं, इनपर एक परिवार-विशेष और कुछ लग्गू-भग्गुओं की इजारेदारी है, हमलोग सम्पत्ति कब्जा करते हैं'... आदि-आदि। ऐसी बातों का कोई राजनीतिक प्रतिवाद कैसे कर सकता है? इस बदमाशी पर स्वयं कोई दण्ड दिया जाता तो भी संस्कारी सज्जन साथियों का कोप झेलना पड़ता। फिर पाँच वर्षों तक चुपचाप काम करते हुए हमलोगों ने यह प्रमाणित किया कि ऐसे प्रचारों से हमलोगों के काम पर कोई अहम प्रभाव नहीं पड़ेगा। हमलोगों ने पाँच वर्ष बाद अगला निर्णय यह किया कि जब ये सभी संस्थाएँ और इनसे जुड़े लोग बुर्जुआ जनवादी समाज के विधिसम्मत दायरे में नागरिक के रूप में काम कर रहे हैं और कुत्सा प्रचारक बुर्जुआ मीडिया में ही हमें लगातार गाली दे रहे हैं तो इस लड़ाई का नया चरण यह होना चाहिए कि मानहानि का दावा करके इनमें से कुछ अग्रणी तत्वों को अदालत में घसीटा जाये। इसके अगले चरण के बारे में बाद में सोचा जायेगा।
यह तो किंचित अवांतर प्रसंग करते हुए हमने अपने से जुड़े कुछ तथ्यों की चर्चा की है। हमने चर्चा लेनिन के एक लेख से की थी कि ''बुर्ज़ुआ वर्ग भगोड़ों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है।'' फिर हमने भारतीय क्रान्तिकारी वाम राजनीति के कुछ घटना-सन्दर्भों की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट संदेह प्रकट किया कि कुछ बौद्धिक एजेण्टों और घुसपैठियों के जरिए क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन के पुनर्निर्माण और पुनर्गठन के विरुद्ध निश्चित तौर पर कोई गहरा व्यवस्था-प्रायोजित षड्यंत्र चल रहा है, जिसके शिकार अलग-अलग ढंग से बहुतेरे लोग हैं और हम लोग भी हैं। षड्यंत्रकारियों की बहुआयामी परियोजना का मूल लक्ष्य है अविश्वास, संशय, परस्पर-विवाद का माहौल पैदा करना और भीतर घुसकर हासिल ज़रूरी सूचनाओं से राज्य मशीनरी की मदद करना।
हम इस बात को अतीत के अनुभवों की कसौटी के आधार पर काफी हद तक प्रमाणित कर सकते हैं। जैसे, हमलोगों की परियोजनाओं को लांछित करने वाले कुत्सा प्रचारकों के गिरोह के 'कम्पोजीशन' पर ज़रा निगाह डालें। इनमें से पाँच-छ: ऐसे हैं जो किसी न किसी एन.जी.ओ. से जुड़े हैं, दो अखबारों में काम करते हैं, एक घोर अराजनीतिक पियक्कड़ ठेकेदार है, एक धनी व्यापारी परिवार का निठल्ला है, तीन-चार सरकारी अधिकारी हैं(एक कस्टम या आबकारी का भ्रष्ट पतित करोड़पति पियक्कड़ अफसर है), दो ट्रेड यूनियन के धंधेबाज हैं, एक वकील है। इनमें से अधिकांश किसी सुनिश्चित लाइन के तहत, किसी सांगठनिक अनुशासन के तहत काम नहीं करते, अपना घर और कैरियर सँवारते हैं। दो अपना-अपना धंधा करते हुए एक ऐसे संगठन से जुड़ा बताते हैं, जो उच्च मध्यवर्गीय एन.जी.ओ.पंथियों का अड्डा है। एक ट्रेड यूनियन धंधेबाज ऐसे संगठन से जुड़ा है जो स्वयं ही अराजकतावादी संघाधिपत्यवादियों का संघ है और विसर्जन की ओर अग्रसर है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इनमें रंचमात्र भी राजनीतिक एकता नहीं है। इनमें से एक कल तक माओवादी समर्थक था अब उन्हें गाली देता है। एक त्रात्स्कीपंथी है। एक घोर ट्रेडयूनियनवादी है। दो एन.जी.ओ.पंथी ''उत्तर मार्क्सवादी'' है। एक है जो मार्क्सवाद को 'पर्सनैलिटी डेवलपमेण्ट प्रोजेक्ट' के गंदे बुर्जुआ धंधे के साथ मिलाकर कुछ लोगों को मूँड़कर अपनी रोजी-रोटी चलाता है। शेष की कोई राजनीति नहीं है। समाज में हमलोगों के खिलाफ इनकी एकता घोर भाजपाई परिवारों तक से है।
तय है कि बदमाशों की यह सतमेल खिंचड़ी किसी ''उदात्त क्रान्तिकारी प्रयोजनवश'' लगातार हमलोगों पर कींचड़ नहीं उछाल रही है। इनका कोई साझा राजनीतिक प्रयोजन भी सम्भव नहीं लगता। और गौरतलब बात यह है कि यह काम यह पूरा विचित्र गिरोह निरंतरता और सुसंगति के साथ विगत पाँच वर्षों से चला रहा है। तब क्या यह संदेह करना अनुचित होगा कि इसके पीछे कोई गहरी व्यवस्था-प्रायोजित साजिश है? यदि ऐसा न हो, तो भी, इतना तो तय है कि यह एक धुरप्रतिक्रियावादी गिरोह है, जो किसी एक प्रवृत्ति को नहीं बल्कि पूरी धारा को गम्भीर नुकसान पहुँचा रहा है।
यह सारा गंदा धंधा फेसबुक पर भी लगातार चलता रहता है। समस्या यह है कि फेसबुक पर वामपंथियों में भी एक ऐसी अगंभीर, ठिठोलीबाज, मजे लेने की या तटस्थता की संस्कृति संक्रामक रूप से सर्वव्याप्त है कि जो थोड़े गम्भीर और ईमानदार लोग हैं, वे भी इन बातों पर तार्किक ढंग से नहीं सोचते, चाहे जितने तर्क उनकी नाक के नीचे रख दिये जायें। यह तटस्थता या असम्पृक्तता भी लोगों के अंदर गहराई तक पैठी निराशा की ही अभिव्यक्ति है। एक संस्कृति पैस्सिव रैडिकल वामपंथ की यह भी है कि 'भई, हमें क्या लेना-देना, सबसे गुडी-गुडी चलाते रहो।' कुछ लोग सही-ग़लत तय किये बगैर दोनो पक्षों को बराबरी पर रखकर ''झगड़े में पंच'' की भूमिका निभाने लगते हैं। यह भी एक सामाजिक-जनवादी प्रवृत्ति है। कुछ लोग सच्चाई समझकर भी चुप रहते हैं, क्योंकि सच बोल देने से उनके किसी हित या महत्वाकांक्षा को क्षति पहुँचने का अंदेशा रहता है।पक्ष तो लेना पड़ेगा कामरेड! और पैमाना वैज्ञानिक तर्कणा ही सकता है। हमारी अपील है कि लेनिन का यह लेख ज़रूर, ज़रूर पढ़िये : ''बुर्जुआ वर्ग भगोड़ों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है!''
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