--कविता कृष्णपल्लवी
क्या आपको पता है, कुछ ऐसे भी मार्क्सवादी हैं जिन्हें इस बात की शिकायत है कि मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बन जाने को लेकर संसदीय वामपंथी से लेकर माओवादी तक 'फासीवाद-फासीवाद' का हल्ला कुछ ज्यादा ही मचा रहे हैं! ऐसे एक मार्क्सवादी सज्जन स्वदेश सिन्हा हैं जिन्होंने 14 फरवरी को ऐसी ही एक पोस्ट फेसबुक पर डाली है। उनका तर्क यह है कि हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको जैसा फासिस्ट शासन आज की दुनिया में नहीं आ सकता क्योंकि भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व पूँजीवाद की पहली पसंद पूँजीवादी जनवाद है। स्वदेश जी के अनुसार 'गुजरात-2002' को पूरे देश में दुहराया नहीं जा सकता और मुजफ्फरनगर जैसे दंगे तो पूरे देश में आज़ादी के बाद होते ही रहे हैं। यह समझना कठिन नहीं है कि यह सोच कितनी ख़तरनाक है।
(1) पहली बात, यह कोई नहीं कहता कि आज का फासीवाद हूबहू हिटलर-मुसोलिनी जैसा ही होगा। फासीवादी ताकतें यदि सत्तासीन हो भी जायें तो वे यहूदियों के सफाये जैसी घटनाएँ नहीं कर सकतीं, लेकिन अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और उन्हें दोयम दर्जें का नागरिक बनाने में वे कोई कोर-कसर नहीं उठा छोड़ेंगी। इससे भी अहम बात यह है कि फासीवाद का मुख्य हमला मेहनतक़श हैं (गुजरात के मज़दूरों की स्थिति इसका उदाहरण है)। उनकी यूनियनों और आंदोलनों को फासिस्ट शासन बर्बर ढंग से कुचल देगा।
(2) गुजरात जैसे नरसंहार हों, तभी हम फासीवाद से चेतें, यह भी अजीब बात है। मुजफ्फरनगर दंगों को आज़ादी के बाद होने वाले तमाम दंगों जैसा मानना भी मानसिक दिवालियापन ही है। स्वदेश सिन्हा जी को तथ्यों का ठीक से अध्ययन करना चाहिए। फासिस्ट ऐसी स्थिति अफवाहों और उकसावेबाजी से मऊ, आजमगढ़, बनारस, अम्बेडकरनगर, भागलपुर कहीं भी पैदा कर सकते हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी के बाद के अधिकांश दंगे आर.एस.एस. परिवार के ही कुकर्म हैं, भले ही उनमें पुलिस तंत्र की भी भूमिका रही हो और दंगों की आंच पर अन्य पार्टियों ने भी रोटियाँ सेंकी हों।
(3) फासीवाद तभी ख़तरनाक माना जाए जब गुजरात जैसे नरसंहारों या दंगों की सम्भावना हो, यह भी वही कह सकता है जो राजनीतिक परममूर्ख हो। बिना दंगा किये फासीवाद यदि धार्मिक-जातीय अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर एक आतंकराज में जीने को विवश कर देता है (जैसे 2002 के बाद के गुजरात में), यदि वह सभी जनवादी अधिकारों को रस्मी बनाकर प्रतिरोध की हर आवाज़ को कुचल देता है, यदि वह पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा देता है और लेखकों-कलाकारों की आवाज़ को कुचलने की कोशिश करता है (जिसकी ताजा बानगी उन्होंने सुभाष गाताड़े और मैनेजर पाण्डेय के साथ इस विश्व पुस्तक मेले में पेश की), यदि वह मज़दूरों को 'पुलिस स्टेट' जैसी स्थिति बनाकर कुचल देता है, तो भी वह उतना ही ख़तरनाक और विरोध योग्य है।
(4) आज प्रश्न भाजपा के सत्ता में आने-न आने या मोदी के प्रधानमंत्री बनने-न बनने का है ही नहीं। 'नमो परिघटना' इस बात की सूचक है कि दुनिया के कई अन्य देशों की तरह भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर भी फासीवाद की धारा लगातार मजबूत हो रही है, उसके नये सामाजिक अवलम्ब विकसित हुए हैं और सामाजिक आधार विस्तारित हुआ है। फासीवादी सत्ता में आयें या न आयें, उत्पात और आतंक मचाने की इनकी ताक़त बढ़ रही है। पूँजीपति वर्ग (मुख्यत: मज़दूरों के सम्भावित प्रतिरोधों के विरुद्ध) फासीवाद को आज जंजीर में बँधे कुत्ते की तरह इस्तेमाल के लिए तैयार रखता है। और इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह कुत्ता जंजीर छुड़ाकर कुछ उत्पात भी मचा दे।
(5) नवउदारवाद के साथ फासीवाद के अन्तर्सम्बन्ध की स्वदेश सिन्हा की समझ एकदम दिवालिया है। यह सही है कि नवउपनिवेशों की सैनिक जुण्टाओं की फासिस्ट तानाशाहियों के अनुभव के आधार पर साम्राज्यवादी और देशी पूँजीपति चाहते यही हैं कि बुर्ज़ुआ जनवाद का खेल चाहे जैसे भी हो, चलता रहे। पर अतिलाभ निचोड़ने की हवस, व्यवस्था के ढाँचागत संकट का दबाव एक वस्तुगत उपादान है, जो पूँजीपति वर्ग की इच्छा से स्वतंत्र है। इसी वस्तुगत उपादान के चलते आज पश्चिमी देशों तक में पूँजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच की दूरी सिमट रही है, सामाजिक ताने-बाने के भीतर निहित जनवादी मूल्य क्षरित-विघटित हो रहे हैं और इटली, स्पेन, ग्रीस से लेकर उक्रेन तक कमोबेश पूरे पश्चिम से लेकर पिछड़े पूँजीवादी देशों तक में तरह-तरह की फासीवादी ताकतों का उभार हो रहा है। यह दुनिया के सभी मार्क्सवादी अर्थशास्त्री और राजनीतिशास्त्री मानते हैं कि नवउदारवादी नीतियों पर अमल एक निरंकुश सर्वसत्तावादी राज्यसत्ता की ओर ही ले जायेगा और ऐसा समाज तमाम फासीवादी शक्तियों के फलने-फूलने का माकूल माहौल तैयार करेगा। नवउदारवाद के दौर में पूँजीवादी जनवाद के पूर्व रूप में मौजूद रहने की स्वदेश सिन्हा की सोच राजनीतिक अर्थशास्त्र की ऐसी-तैसी करती है।
(6) बिल्कुल आज ज़रूरत इसी बात की है कि मोदी-उभार की परिघटना को इसी रूप में समझा जाये, समूची बुर्ज़ुआ जनवादी संसदीय राजनीति के साथ ही, सबसे अधिक ज़ोर देकर हिन्दुत्ववादी फासीवाद के विरुद्ध (चाहे मोदी सत्ता में आये न आये) जनमत तैयार किया जाये और प्रतिरोध की ज़मीनी तैयारी की जाये।
जो लोग समझ रहे हैं और कह रहे हैं कि फासीवाद का शोर कुछ ज्यादा ही मचाया जा रहा है, वे लोग वस्तुगत तौर पर एक घोर जनविरोधी, प्रतिक्रियावादी बात कर रहे हैं। वे लोग जनता की क्रान्तिकारी चौकसी और लामबंदी को मजबूत बनाने के बजाय कमजोर बनाने की अक्षम्य ग़लती कर रहे हैं। इनकी सोच 1820 और 1830 के दशक के यूरोपीय सामाजिक जनवादियों से मिलती-जुलती है। स्वदेश सिन्हा तो एक राजनीतिक धारा से जुड़े हैं, उनके साथियों को समझाना चाहिए कि वे ऐसी पागलपन भरी बकवास कम से कम सार्वजनिक तौर पर न करें।
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