Saturday, March 08, 2014

क्रान्तिकारी संकट का दौर और राजनीतिक लफंगे



--कविता कृष्‍णपल्‍लवी
'दूसरे इण्‍टरनेशनल का पतन' शीर्षक अपनी प्रसिद्ध रचना में लेनिन ने क्रान्तिकारी परिस्थिति के जो तीन लक्षण गिनाये हैं, उनके अनुसार देखें तो आज की दुनिया और आज का भारत निश्‍चय ही एक क्रान्तिकारी परिस्थिति के दौर से गुजर रहे हैं। यहाँ लेनिन का यह कथन भी याद रखना ज़रूरी है कि हर क्रान्तिकारी संकट क्रान्ति को जन्‍म नहीं देता। जबतक क्रान्तिकारी वर्ग क्रान्तिकारी जनकार्रवाई के द्वारा व्‍यवस्‍था को तोड़ देने में सक्षम न हो, तबतक क्रान्तिकारी संकट या क्रान्तिकारी परिस्थिति क्रान्ति को जन्‍म नहीं दे सकती। कहा जा सकता है कि क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त से लैस एकीकृत हिरावल पार्टी के बिना क्रान्ति की वस्‍तुगत ज़मीन तैयार होने पर भी क्रान्ति नहीं हो सकती।
क्रान्तिकारी परिस्थिति के सवाल पर गद्दार काउत्‍स्‍की के रुख का वर्णन करते हुए उसी दौर की अपनी दूसरी प्रसिद्ध रचना 'सर्वहारा क्रान्ति और गद्दार काउत्‍स्‍की' में लेनिन ने लिखा है कि अगर क्रान्तिकारी संकट आ खड़ा होगा ''तो वह भी क्रान्तिकारी बनने के लिए तैयार हो जायेगा! लेकिन तब तो हमारे ख़याल में हर लफंगा अपने को क्रान्तिकारी कहने लगेगा। अगर क्रान्तिकारी संकट न आया, तो काउत्‍स्‍की क्रान्ति से मुँह मोड़ लेगा।'' लेनिन ने आगे लिखा है कि काउत्‍स्‍की एक अधकचरा आदमी था; तथा एक क्रान्तिकारी मार्क्‍सवादी और एक अधकचरे आदमी में फ़र्क यह है कि मार्क्‍सवादी में ''सर्वहारा वर्ग और तमाम मेहनतक़श और शोषित जनता को इसके (क्रान्ति के) लिये तैयार करने'' का साहस होता है।
भारत भी इस समय वस्‍तुगत तौर पर क्रान्तिकारी संकट के एक दौर से गुज़र रहा है(जो इसके ढाँचागत आर्थिक संकट का उत्‍पाद है), पर मनोगत क्रान्तिकारी हिरावल शक्ति अभी तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में, बहुत सारे लफंगे, शराबखोर, निठल्‍ले फिलिस्‍टाइन बुद्धिजीवी ''क्रान्तिकारी'' बन गये हैं। जनता को क्रान्ति के लिए तैयार करने का साहस तो इनमें है नहीं, मेहनतक़शों के बीच उतरने में तो नानी मरती है, पर इससे क्‍या फ़र्क पड़ता है? नकली 'बूँदी का किला'  बनाकर वर्ग-युद्ध जारी है! कॉफी हाउस में, संगोष्‍ठी कक्षों और ड्राइंग रूमों में अध्‍ययन चक्र और व्‍याख्‍यान हो रहे हैं। कौन हैं ये लोग? एन.जी.ओ. और मीडिया प्रतिष्‍ठानों के मुलाज़ि‍म, प्रोफेसर, सरकारी अफ़सर... .... लाखों नहीं, करोड़ों की सम्‍पत्ति है, कई शहरों में फ्लैट-बंगले हैं, बाल-बच्‍चे यदि हैं तो विदेशों में हैं या देशी उच्‍च प्रतिष्‍ठानों में व्‍यवस्थित हैं! इनमें से अधिकांश कभी किसी कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी संगठन में काम करते थे और अब रिटायर होकर खुशहाल घरबारू जीवन बिता रहे हैं। सिद्धान्‍त-चर्वण के अतिरिक्‍त यह जमात दिल्‍ली बलात्‍कार या मुजफ्फरनगर जैसी घटनाओं पर कुछ रस्‍मी धरना-प्रदर्शन भी कर देती है। इनकी हर कार्रवाई 1920 और 1930 दशक के उन यूरोपीय सामाजिक जनवादियों की याद दिलाती है जो निर्णायक समय में फासिस्‍टी डण्‍डे के डर से या तो घरों में दुबक गये थे या फिर पूरी तरह से घुटने टेक दिये थे।
जो भी सच्‍चे क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट हैं, वे भरसक इन गलीज तत्‍वों से अलग रहते हुए, आने वाले समय की चुनौतियों को देखते हुए मेहनतक़शों को संगठित करने और उन्‍हें (मुख्‍यत : फासीवाद विरोधी) क्रान्तिकारी चेतना देने का काम कर रहे हैं। सामाजिक जनवादियों के विरुद्ध वे तभी कोई राजनीतिक-सैद्धान्तिक बात लिखते हैं, जब ये राजनीतिक लफंगे सार्वजनिक तौर पर सिरे से किसी नुकसानदेह लाइन का प्रचार करते हैं। लेकिन ये राजनीतिक लफंगे क्‍या करते हैं? ये तरह-तरह के कुत्‍सा प्रचार करके मज़दूरों में काम करने वालों और मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद का प्रचार करने वालों के खिलाफ अफ़वाहें फैलाने, कुत्‍सा प्रचार करने और यहाँ तक कि सार्वजनिक मंचों पर अन्‍दरूनी सांगठनिक तौर-तरीकों की बातें करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते! ये कौन लोग हैं? इनकी ज़ि‍न्‍दगी क्‍या है? इनके काम क्‍या हैं? -- यह जानना होगा। मुखौटों के पीछे के चेहरों की शिनाख्‍़त करनी होगी।

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