Thursday, March 20, 2014

चाय वालों के कुछ किस्‍से और ख़ूनी चाय की तासीर



--कविता कृष्‍णपल्‍लवी


मेरे बचपन में, गोरखपुर की एक पुरानी बस्‍ती में एक चाय वाला चाय बेचता था। उसकी चाय में कुछ अलग ही स्‍वाद था। वह चाय बनाकर भी बेचता था और बुरादा चाय के पैकेट भी। एक दिन मुहल्‍ले के लोगों ने उसे पकड़कर खूब पीटा। पता चला कि वह चाय में गधे की लीद सुखाकर मिलाता था। 
कुछ वर्षों पहले सुल्‍तानपुर कचहरी के बाहर चाय बेचने वाले एक 'राजनीतिक प्राणी' से सम्‍पर्क हुआ था। उसके ठीहे पर दिन भर चाय पीकर जो लोग कुल्‍हड़ फेंकते थे, उन्‍हें वह रात में बटोर लेता था और अगले दिन फिर उन्‍हीं में ग्राहकों को चाय देता था।
गोरखपुर में हिन्‍दू-मुसलमान की मिली-जुली आबादी वाली एक बस्‍ती में तीन चाय की दुकानें इत्‍तफ़ाक से मुसलमानों की थी। एक हिन्‍दू चाय वाले ने वहाँ दुकान खोली और हफ्ते भर के सघन मुँहामुँही प्रचार से उसने 'हिन्‍दू चाय' और 'मुस्लिम चाय' के आधार पर ग्राहकों का ध्रुवीकरण कर दिया।
जयपुर में सामाजिक कामों के दौरान एक चाय वाले का पता चला जो छोटे-छोटे बच्‍चों से (मुख्‍यत: नेपाली) पास के बैंकों, बीमा दफ़्तर और दुकानों में चाय भिजवाता था, फिर जब महीने की पगार देने की बात आती थी तो उनपर चोरी का इलज़ाम लगाकर मार पीटकर भगा देता था।
बहुत पहले, गोरखपुर से लखनऊ जाते समय जाड़े की एक रात में, किसी छोटे स्‍टेशन पर चाय की तलब लगी। खिड़की से चाय का कुल्‍हड़ पकड़ ही रही थी कि ट्रेन चल दी। चाय वाला चाय देना छोड़कर फट मेरे हाथ से घड़ी नोचकर भाग गया। मैं देखती ही रह गयी। तो साधो, इन सभी किस्‍से का लुब्‍बेलुब्‍बाब यह कि सभी चाय वाले बड़े ईमानदार और भलेमानस होते हों, यह ज़रूरी नहीं। और राजनीति में आकर वे चाय वालों जैसे सभी आम लोगों के शुभेच्‍छु बन जायें, लोकहित की राजनीति करने लगें, यह तो एकदम ज़रूरी नहीं।
ज़रूरी नहीं कि कोई चाय वाला होने के नाते जनता का भला सोचे ही! उनकी मानसिकता छोटे मिल्‍की की भी हो सकती है। यह छोटा मिल्‍की बड़ा बेरहम और ग़ैर जनतांत्रिक होता है। हर छोटा व्‍यवसायी बड़ा होटल मालिक बनने का ख्‍़वाब पालता है। लाल किले तक नहीं पहुँच पाता तो मंच पर ही लाल किला बना देता है। चायवाले से इतनी हमदर्दी भी ठीक नहीं कि उससे इतिहास-भूगोल सीखना शुरू कर दिया जाये। यह कैसे मान लिया जाये कि कोई आदमी महज चाय बेचने के चलते देश का प्रधानमंत्री बनने योग्‍य है! हर चायवाला सभी चायवालों के हितों का प्रतिनिधि हो, यह भी ज़रूरी नहीं। एक रंगाई-पुताई करने वाले (हिटलर) ने और एक लुहार के बेटे (मुसोलिनी) ने अभी 70-75 वर्षों पहले ही अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में ग़जब की तबाही और क़त्‍लो-गारत का कहर बरपा किया था। यह आर्यावर्त का चायवाला उतनी बड़ी औक़ात तो नहीं रखता, पर 2002 में पूरे गुजरात में इसने ख़ूनी चाय के जो हण्‍डे चढ़वाये थे, उनको याद किया जाये और आज के मुजफ़्फरनगर को देखा जाये तो इतना साफ हो जाता है कि यह पूरे हिन्‍दुस्‍तान को ख़ून की चाय पिला देना चाहता है। ख़ूनी चाय की तासीर से राष्‍ट्रीय गौरव की भावना पैदा होती है और देश ''गौरवशाली अतीत'' की ओर तेजी से भागता हुआ अनहोनी रफ़्तार से तरक्‍क़ी कर जाता है, ऐसा इस चायवाला का दावा है।

3 comments:

  1. सटीक आलेख !


    सादर

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  2. आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएँ !
    कल 23/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  3. राजनीति जो न करवाए कम है...

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