--कविता कृष्णपल्लवी
भारत के महानगरों के कुलीन उच्च शिक्षा संस्थानों को छोड़ दें तो देश के जो भी शेष उच्च शिक्षा के केन्द्रों -- छोटे शहरों के विश्वविद्यालयों-कॉलेजों से बी.ए.-एम.ए. पढ़े हुए छात्रों का बोलने-सोचने-लिखने का माध्यम हिन्दी या कोई अन्य भारतीय भाषा होता है। उनमें से कुछ बहुत लगनशील होते हैं जो बुर्जुआ प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ने या ज्ञान-क्षुधा-तृप्ति के लिए जान लड़ाकर अंग्रेजी लिखना-बोलना सीख लेते हैं(क्योंकि हर शाखा का स्तरीय साहित्य अंग्रेजी में ही है और जो अनुवाद हैं वो घटिया है) पर ऐसे लोगों का प्रतिशत अनुपात कम ही होता है। अंग्रेजी आज भारत में साम्राज्यवाद की नहीं, देशी बुर्ज़ुआ वर्ग और कुलीन बुद्धिजीवियों की भाषा है, उनके सामाजिक हैसियत का प्रतीक चिन्ह है। इससे बड़ी विडम्बना क्या है कि भारत के सभी दिग्गज मार्क्सवादी इतिहासकार और अर्थशास्त्री अंग्रेजी में ही लिखते-बोलते-सोचते हैं। ये इग्लैण्ड या अमेरिका क्यों नहीं चले जाते? यदि ये मार्क्सवादी हैं तो मज़दूर-किसान दूर, अपने देश की आम उच्च या मध्यम शिक्षा प्राप्त आबादी तक की भाषा में अभिव्यक्ति या उसे शिक्षित करने के बारे में क्यों नहीं सोचते हैं? ये उससे संवाद करने की सोचते या सरोकार रखते, तो खासकर एक उत्तर-औपनिवेशिक समाज में वे अंग्रेजी में पढ़ने के बावजूद किसी भारतीय भाषा में सोचने और लिखने की आदत डालते। इसे अपनी अहम सामाजिक जिम्मेदारी समझते। कम्युनिस्ट भी जब सचेतन प्रयास से ऐसा नहीं करते तो मैं मन ही मन उन्हें व्यक्तिवादी और कुलीनतावादी मानती हूँ। अंग्रेजों के ज़माने से लेकर आजतक अदालतों की भाषा नीचे जटिल फारसी मिश्रित हिन्दुस्तानी और ऊपर अंग्रेजी ही बनी रही है, ताकि ग़रीब अपनी किस्मत का फैसला भी वकील नामक कानूनी दलाल से जाने-समझे। बौद्धिक कम्युनिस्टों की अंग्रेजियत कहीं न कहीं दक्षिणपंथियों के पक्ष में कुछ अंक दे देती है। यह सारी बातें इसलिये इसलिए लिख रही हूँ कि अभी एक मज़दूर साथी ने कहा कि 'मीटिंग-सभा में, कहीं भी अपना कोई साथी बहुत अधिक अंग्रेजी के शब्द बोलता है तो वह मुझे अचानक बेगाना लगने लगता है, मुझे झुँझलाहट और ऊब सी होती है, मन करता है उठकर बाहर चला जाऊँ, निराशा सी आने लगती है।' तबसे मैं सोच रही हूँ कि हमारे अंग्रेजीदाँ साथी इतना प्रयास क्यों नहीं करते कि हिन्दी में सोचें, लिखें, बोलें। मैं अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग भी ग़लत लिखती हूँ और ग़लत उच्चारण भी करती हूँ। फेसबुक पर एक एन.जी.ओ. वाले ने बहस के दौरान चुटकी लेते हुए मेरी स्पेलिंग की ग़लती बताई, तुरत मैंने उसे लिखा कि 'तुम्हारी गोरी चमड़ी वाला बॉस जब भारत दौरे पर आता है और उल्टी-सीधी हिन्दी बोलता है तो तू उसे ठीक करता है कमीने!' फिर मैंने यह कमेण्ट हटा दिया, यह सोचकर कि पूरी बात ही दूसरी ओर मुड़ जायेगी।
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