कल मैं सोच रही थी और गिन रही थी कि देश के अलग-अलग हिस्सों में कितनी बड़ी संख्या ऐसे साथियों की है, जो इतने तार्किक और उन्नतचेतस हैं कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति उनका विश्वास कायम है, जो इतने सहृदय हैं कि आम जनसमुदाय की दुर्वह जीवन-परिस्थितियों और पूँजीवादी समाज की रुग्ण बर्बरताओं के बढ़ते घटाटोप के प्रति स्वयं को चिन्तित-परेशान होने से रोक नहीं पाते, जो इतने समझदार हैं कि यह समझते हैं कि इस शताब्दी में मानव सभ्यता के समक्ष बस दो ही विकल्प हैं: बर्बरता और यहाँ तक कि शायद अस्तित्व-विनाश, या फिर समाजवाद। यहाँ मैं उन साथियों की बात कर रही हूँ, जो कभी हमलोगों के साथ मज़दूर बस्तियों, विश्वविद्यालयों-कालेजों में काम भी कर चुके हैं, या अंशत: सक्रिय अथवा समर्थक-हमदर्द रहे हैं। वे अंदर से यह मानते हैं कि मार्क्स से लेकर माओ तक की क्रान्तिकारी विचारधारात्मक शिक्षा के आधार पर, साम्राज्यवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी नयी समाजवादी क्रान्ति की लाइन पर, एक बोल्शेविक इस्पाती साँचे की पार्टी का नयी ज़मीन पर निर्माण करना होगा। वे इस बात से भी मुख्यत: सहमत रहे हैं कि, (अ) विचारधारात्मक-राजनीतिक सैद्धान्तिक कार्यों, वैचारिक प्रचार एवं शिक्षा तथा वैचारिक संघर्ष का मोर्चा (ब) क्रान्ति के विज्ञान के शिक्षा से लैस नयी क्रान्तिकारी पीढ़ी की भरती व शिक्षण-प्रशिक्षण का मोर्चा तथा (स)मज़दूर वर्ग को राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों में गोलबंद और संगठित करने का मोर्चा -- मोटे तौर पर इन तीन स्तम्भों पर क्रान्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन की एक नयी इमारत खड़ी करनी होगी।
फिर भी वे साथी आज हमलोगों के साथ मुहिम पर नहीं हैं! कारण? ज्यादातर ये मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि वाले साथी थे। कुछ आज के दौर की कठिनाइयों और मेहनतक़श जनसमुदाय के बीच पैठ बना पाने में शुरुआती दौर की अपनी असफलताओं से ही पस्तहिम्मत हो गये। कुछ को पार्टी निर्माण और सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करण के भारत जैसे विशाल और जटिल देश में निर्माण का काम दुस्साध्य प्रतीत होने लगा। कुछ साथी रूमानी क्रान्तिकारी थे, वे हमेशा व्यक्तियों और स्थितियों में आदर्श की खोज करते रहते थे तथा आदर्श और यथार्थ के बीच द्वंद्वात्मक संघात को समझ नहीं पाते थे, अत: कभी वे क्षुब्ध हो जाते थे तो कभी किसी से उनका मोहभंग हो जाता था। ऐसे साथी अपने को अलग करके प्राय: स्थितियों और लोगों से आदर्श की अपेक्षा करते हैं। प्राय: ऐसा होता है कि ऐसे साथी स्वयं अपनी कमज़ोरियों को बाहर प्रक्षेपित करके राय बनाते हैं या अपने अंदर की कमज़ोरी-परेशानी को छिपाकर वापस लौटने के लिए बाहर कोई 'एक्स्क्यूज़' ढूँढते रहते हैं। कुछ साथी ऐसे थे जिन्हें अपने घर की कोई परेशानी (माँ या पिता की बीमारी, भाइयों की बेरोजगारी, बहन की शादी, कर्ज़ आदि) ''अपवादस्वरूप गम्भीर '' लगी और वे उन समस्याओं को सुलटाने के लिए वापस लौट गये। यहाँ मैं अपने भूतपूर्व ईमानदार और अच्छे साथियों की बात कर रही हूँ, उन गद्दार-भगोड़े पतित तत्वों की नहीं जो बसेरों में लौटने के बाद किसी एन.जी.ओ., किसी मीडिया प्रतिष्ठान या कॉलेज-विश्वविद्यालय में धंधा-पानी में लगे हुए हैं और अपने भगोड़ेपन को उचित ठहराने के लिए न केवल अपने भूतपूर्व साथियों पर ही तोहमतों, कुत्सा-प्रचारों और गालियों की बौछार कर रहे हैं, बल्कि दुर्योधनी अहं की चपेट में कम्युनिज़्म और कम्युनिस्ट आन्दोलन को भी कलंकित-लांछित कर रहे हैं!
1905-07 की रूसी क्रान्ति के कुचल दिये जाने के बाद, वहाँ भी माहौल ऐसा हो गया था कि बहुतेरे कम्युनिस्ट पतित हो गये थे, कुछ निष्क्रिय हो गये थे, कुछ अवसादग्रस्त और अल्कोहलिक हो गये थे। आज जैसा विश्वव्यापी विपर्यय, गतिरोध और बिखराव का दौर है, उसमें हमारे देश में भी यदि ऐसा ही परिदृश्य है, तो यह ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है।
लेकिन मैं अपने सच्चे और ईमानदार लौटे हुए साथियों से और 'फेंससिटर' साथियों से ज़रूर पूछना चाहती हूँ, आज जैसे बर्बर समय में, बुर्ज़ुआ नागरिक जीवन में लौटकर क्या आप वाक़ई खुश हैं? क्या जनसमुदाय से एकता से हासिल ऊर्जा, विचारधारा की ताक़त और राजनीतिक लाइन से प्राप्त संवेग के बल पर फिर एक नयी शुरुआत सम्भव नहीं है? देखिये, हम समाप्त नहीं हुए हैं, न ही हमारे पैर उखड़े। धारा के विरुद्ध तैरते हुए, तमाम असफलताओं से कुंछ सफलताएँ निचोड़ते हुए हम आज भी यात्रारत हैं, नये-नये सहयात्रियों के साथ, एक नये मुकाम की ओर, शैतानों के तमाम शापों और संशयवादियों की तमाम शंकाओं को झुठलाते हुए। यात्रा अभी लम्बी है, पर हज़ारों मील लम्बे सफर की दूरियाँ भी लगातार चलकर ही घटाई जा सकती हैं। क्या आपको नहीं लगता कि पूँजीवाद की इस बढ़ती बर्बरता के माहौल में एक स्वाभिमानी, सच्चा, इंसाफपसंद इंसान लड़-जूझकर ही ज़िन्दा रह सकता है? क्या आपको नहीं लगता कि बुर्ज़ुआ जनवाद के इस सिकुड़ते स्पेस और हिन्दुत्ववादी फासीवाद के गहराते ख़तरे के माहौल में निष्क्रिय बने रहना ऐतिहासिक गुनाह होगा और आपको भी आने वाले अँधेरे समय के विरुद्ध तैयारियों का मोर्चा कहीं न कहीं सम्हालना ही होगा? क्या पास्टर निमोलर, ब्रेष्ट और ओतो रेने कास्तिलो की वे कविताएँ आप भुला चुके हैं, जो कभी हम साथ-साथ, बार-बार पढ़ा करते थे? क्या यह सच नहीं है कि कभी-भी, कहीं से भी नयी शुरुआत की जा सकती है?
अंत में हम उन साथियों से भी मुख़ातिब होना चाहते हैं जो समझदार और पढ़े-लिखे हैं, अपनी दिनचर्या और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से समय निकालकर राजनीतिक कामों में भागीदारी करते हैं, क़ुर्बानी करते हैं, पर अपने युवा बेटे-बेटियों को हर तरह से कम्युनिज़्म की आँच से दूर रखना चाहते हैं, उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर या कुछ ऐसा ही बनाना चाहते हैं। यह तो साथी, बुरा मत मानियेगा, मध्यवर्गीय चालाकी और दोहरापन है। ऐसा करके आप क्या अपनी ही (और अपने बच्चों की भी) नज़रों में नीचे नहीं गिरते? आपकी अन्तरात्मा कोसती नहीं? क्या भगतसिंह हमेशा पड़ोस में पैदा होगा, अपने घर में नहीं?
यह सोचने का समय है। निर्णायक होने का समय है।
--कविता कृष्णपल्लवी
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