Saturday, January 18, 2014

एक अंधकार युग में ''महान'' ऐतिहासिक दायित्‍व निभाते बुद्धिजीवियों के बारे में कुछ बातें


 

--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

जब क्रान्तियों की धारा बिखराव-ठहराव और पराजय के दौर से गुजरती है, जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी होती है, जब क्रान्तियाँ रुककर सिंहावलोकन, आत्‍ममंथन और आत्‍मालोचन कर रही होती हैं, उस समय ज्‍़यादातर बुद्धिजीवी क्‍या कर रहे होते हैं? यह जानना दिलचस्‍प होगा।

(1) जो पहले से ही मज़दूर क्रान्ति के प्रति संशयालु होते हैं, या अन्‍दर ही अन्‍दर उसके विरोधी होते हैं, वे सिंह के घायल होने पर उसकी मृत्‍यु की प्रतीक्षा करते हुए जश्‍न मनाने वाले सियारों जैसा व्‍यवहार करते हैं।
(2) जो भावुक क्रान्तिवादी बुद्धिजीवी क्रान्तिकारी उठान के दिनों के बैण्‍ड पार्टी बनाकर जोशीले मार्च के मुद्रा में होते हैं, वे फौरन अपने ड्रम, झाँझ-मजीरे और तुरही पटककर काले कपड़े पहन लेते हैं और रुदालियों की भूमिका में आ जाते हैं।
(3) कुछ बुद्धिजीवी खुर्दबीन, दूरबीन, कुतुबनुमा, पुस्‍तकें, धूप का चश्‍मा, चटाई आदि लेकर सागर किनारे तूफानी 'लहरों की सवारी करने की कला' का अध्‍ययन करने चले जाते हैं। अफसोस जब तूफानी लहरों का पहला ही रेला आता है तो वे अपनी किताबें, कुतुबनुमा, खुर्दबीन आदि छोड़कर धुरियाझार घरों की ओर भागते हैं।
(4) कुछ बुद्धिजीवी एकांत साधक बनकर उन पहाड़ों की ओर चले जाते हैं, जहाँ हजरत मूसा को ईश्‍वर के 'टेन कमाण्‍डमेंट्स' मिले थे या फिर उस पीपल के नीचे जा बैठते हैं, जहाँ गौतम को बोधि‍ज्ञान प्राप्‍त हुआ था। फिर वे आम जनों के लिए कभी 'इतिहास के अंत' तो कभी 'प्रबोधन के महाख्‍यान के विसर्जन' का उत्‍तरआधुनिक ज्ञान लेकर आते हैं, नीत्‍शे की सिद्धगुटिका चुराकर बौद्धिक 'निर्मल बाबा का दरबार' सजा लेते हैं या मार्क्‍स और लेनिन को संशोधित करके नववामपंथ की कोई नयी विचार सरणि गढ़ते हुए 'इक्‍कीसवीं सदी के समाजवाद' का कोई नया मॉडल गढ़ने लगते हैं।
(5) कुछ भावुक क्रान्तिवादी और कुछ मौक़ापरस्‍त घाघ बुद्धिजीवी तरह-तरह से ''गैर पार्टी क्रान्तिवाद'' के सिद्धान्‍त देने लगते हैं, पत्रिका निकालकर या फेसबुक-ब्‍लॉग पर क्रान्तिकारी वाम संगठनों के लिए 'कंसल्‍टेण्‍टेंसी फ़र्म' चलाने लगते हैं।
(6) कुछ बुद्धिजीवी सुबह उठ‍कर नित्‍यक्रिया से निवृत्‍त होकर पहले क्रान्तिकारियों को उनकी ग़लतियों के लिए, उनकी विफलता और पराजय के लिए पानी पी-पीकर झगड़ालू बूढ़ी औरतों की तरह कोसते-सरापते हैं। फिर घरेलू और दफ्तरी कामों में, अपनी गाड़ी व मकान की किश्‍तें भरने, बीमा शेयर आदि के बारे में सोचने, बेटे-बेटी को विदेश भेजने के लिए पासपोर्ट-वीसा आदि की तैयारियों में लग जाते हैं। इन अनिवार्य, तुच्‍छ, अवैचारिक दैनन्दिन कामों से फ़ारिग होकर वे फिर अपनी व्‍यासगद्दी पर जा बैठते हैं और क्रान्तिकारी 'क्‍या करें-क्‍या न करें' -- इस बारे में प्रवचन देने लगते हैं। कभी वे यह काम कम्‍प्‍यूटर के सामने बैठ कर करते हैं, कभी अपनी व्‍यास गद्दी लिये-दिये किसी सेमिनार हॉल में जा पहॅुंचते हैं। भक्‍त मारवाड़ी स्त्रियाँ जैसे ठाकुर जी का मंदिर साथ लिये चलती हैं, वैसे ही ये बुद्धिजीवी अपनी व्‍यास गद्दी साथ लिये देश-देशांतर घूमा करते हैं।
(7) कुछ बुद्धिजीवी पीछे लौटकर सबकुछ 'फिर से शुरु करने की' बात करते हैं, कुछ शून्‍य से 'एक नयी शुरुआत' करने की बात करते हैं। कुछ रहस्‍यमय उक्तियाँ बोलकर चुप्‍पी साधकर सस्‍पेंस पैदा किये रखते हैं, कुछ लगातार इतनी मौलिक प्रस्‍थापनाएँ दे डालते हैं कि दिग-दिगंत विचारों से भर जाता है, बस वे महान विचार अभिशप्‍त कर्मशील जनों के भेजे में नहीं घुस पाते।

ऐसे तमाम बुद्धिजीवी विभ्रम को दूर करने के नाम पर और विभ्रम पैदा कर देते हैं। जनता को विचारशील बनाने के प्रति चिन्‍ता प्रकट करते हुए जनता में विचारों के प्रति ही वितृष्‍णा पैदा कर देते हैं। समस्‍या को हल करने के नाम पर नयी समस्‍याएँ पैदा कर देते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी अपने आप में ही एक समस्‍या होते हैं।

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