--कविता कृष्णपल्लवी
चार राज्यों के चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय पूँजीवाद का गहराता ढाँचागत संकट अपने फासीवादी समाधान की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। अभी कुछ ही दिनों पहले इस स्थिति का एक विश्लेषण हमने अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत किया था: 'नमो फासीवाद, रोगी पूँजी का नया राग।'
इन चुनावी नतीज़ों का विश्लेषण मोदी के चमत्कारी व्यक्तित्व या राहुल और कांग्रेसी नेतृत्व के फिसड्डीपन वगैरह-वगैरह के रूप में करना सतही होगा। महज इतना कहना भी काफी नहीं है कि यह कांग्रेसी कुशासन, भ्रष्टाचार और कमरतोड़ मँहगाई का नतीज़ा है। यह सतह की बात है। मोदी बुर्ज़ुआ राजनीति के रंगमंच पर संघ परिवार द्वारा प्रक्षेपित प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में वही भूमिका निभा रहा है जो शासक वर्ग की ज़रूरत है। बुनियादी बात यह है कि नवउदारवाद की नीतियों को डण्डे के ज़ोर से लागू करने में ही पूँजीपति वर्ग को अपने लिए कुछ 'ब्रीदिंग स्पेस' मिलता दीख रहा है। 2014 के आम चुनावों में यदि भाजपा गठबंधन की जगह कांग्रेस गठबंधन या उसके द्वारा समर्थित कोई तीसरा गठबंधन भी सत्ता में आयेगा तो उसे भी नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए ज्यादा दमनकारी रुख अपनाना ही पड़ेगा, भले ही सीमित अर्थों में उसे हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के मुक़ाबले कुछ बेहतर विकल्प माना जाये। व्यवस्था के असाध्य ढाँचागत संकट के चलते पूँजीवादी जनवाद का स्पेस ही संकुचित होता जा रहा है।
संसदीय वाम को प्राय: विभ्रमग्रस्त प्रगतिशील बुद्धिजीवी एक प्रभावी विकल्प न दे पाने के लिए कोसते रहते हैं, वे इस बात को नहीं समझ पाते किे संशोधनवादी पार्टियाँ यह कर ही नहीं सकती। आज उनका मॉडल भी ''बाज़ार समाजवाद'' है। एक ज़्यादा ''कल्याणकारी'' राज्य और थोड़ा ज़्यादा ''मानवीय चेहरे' के साथ नवउदारवाद -- इससे आगे एक क्रान्तिकारी विकल्प के बारे में वे सोच ही नहीं सकते। इसीलिए उन्हें अमत्र्य सेन प्रगतिशील लगते हैं। ब्राजील की लूला की पार्टी और सरकार की नीतियाँ भी उन्हें प्रगतिशील लगती थीं, अब ब्राजील के संकट और जनविस्फोट से यह बात साफ हो चुकी है कि सामाजिक जनवाद का आज के भूमण्डलीय पूँजीवादी परिवेश में ज़्यादा स्कोप नहीं रह गया है। यूरोप में सामाजिक जनवाद की सीमाएँ पहले ही उजागर हो गयीं थीं। व्यवस्था की दूसरी सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय जड़वामन वाम की भूमिका बनी रहेगी, पर विशेष परिस्थितियों में अन्य कुछ पार्टियों के साथ मिलकर कुछ समय के लिए स्टेपनी की भूमिका निभाने से ज़्यादा ये कुछ नहीं कर सकते।
जहाँ तक आप पार्टी परिघटना का सवाल है, यह मँहगाई-बेरोजगारी से परेशान आम मध्यवर्ग के आदर्शवादी यूटोपिया और साफ-सुथरे पूँजीवाद तथा तेज विकास करके पश्चिम से टक्कर लेते भारत की कामना करने वाले कुलीन मध्यवर्ग के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का मिलाजुला परिणाम है। यह मध्यवर्ती काल की एक अस्थायी परिघटना है। यह दीर्घजीवी नहीं हो सकती। कुछ लोकरंजक नारों के अतिरिक्त इसके पास कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम है ही नहीं। भ्रष्टाचार, मँहगाई हटा देने या कम कर देने के वायदों के अतिरिक्त निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का इसके पास कोई विकल्प नहीं। वस्तुत: पूर्व एन.जी.ओ. पंथियों-समाजवादियो-सुधारवादियों का यह जमावड़ा नवउदारवाद का विरोधी है ही नहीं। ऐसी स्थिति में, ज़्यादा संभावना यह है कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर कभी भी एक विकल्प नहीं बन सकती और कालांतर में या तो एक दक्षिणपंथी दल के समान संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी या विघटित हो जायेगी। इसके विघटित होने की स्थिति में इसका जो सामाजिक समर्थन-आधार है, उसका बड़ा भाग हिन्दुत्ववादी फासीवाद के साथ जुड़ जायेगा। रामदेव आज खुले तौर पर भाजपा के साथ हैं और ''गैरराजनीतिक'' अन्ना आंदोलन की जो पूरी वैचारिकी है, वह भी फासीवाद की राजनीति को ही प्रकारान्तर से मज़बूत करने का काम करती है। आप पार्टी की राजनीति के पीछे जो सुधारवादी और प्रतिक्रियावादी यूटोपिेया है उनका तार्किक विकास समाज में फासीवाद के समर्थन-आधार को विस्तारित करने की ओर ही जाता है। मान लें कि 2014 नहीं तो 2019 तक आप पार्टी का बुलबुला न फूटे और वह एक राष्ट्रीय विकल्प बन जाये(जिसकी सम्भावना न्यूनातिन्यून है) और वह सत्ता में भी आ जाये तो वह स्वयं नवउदारवादी नीतियों को निरंकुश नौकरशाही और 'पुलिस स्टेट' के सहारे सर्वसत्तावादी स्वेच्छाचारिता के साथ लागू करेगी, क्योंकि मुनाफे की गिरती दर के जिस पूँजीवादी चिरंतन संकट ने आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले मंदी व दुष्चक्रीय निराशा के दौरों की जगह विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट को जन्म दिया है वह नवउदारवाद की नीतियों और सर्वसत्तावाद की ओर क्रमश: अग्रसर छीजते-सिकुड़ते बुर्ज़ुआ जनवाद के अतिरिक्त अन्य किसी विकल्प की ओर ले ही नहीं जा सकता। विकसित पश्चिम के देश हों या पिछड़े पूरब के, सामाजिक-आर्थिक संरचना और राजनीतिक अधिरचना की यही गतिकी आज अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग संवेग के साथ सर्वत्र काम कर रही है। यूरोप में, ग्रीस और उक्रेन से लेकर अन्य देशों तक में नवनात्सीउभार के पीछे वही कारक तत्व सक्रिय हैं, जो वहाँ की सत्ताओं के बढ़ते दमनकारी चरित्र और सामाजिक ताने-बाने में मौजूद बुर्ज़ुआ जनवादी मूल्यों के क्षरण-विघटन के लिए जिम्मेदार हैं। वही कारक तत्व भारत में यहाँ की राज्यसत्ता को भी ज्यादा निरंकुश दमनकारी बना रहे हैं और दूसरी ओर समाज की ज़मीन को फासीवादी प्रवृत्तियों के फलने-फूलने के लिए ज्यादा उर्वर बना रहे हैं, जिसका लाभ जाहिरा तौर पर संघ परिवार और भाजपा ही राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर ज्यादा उठायेंगे, क्योंकिे एक संगठित धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में वे ही हैं जो काफी पहले से मौजूद रहे हैं।
हम यदि पूँजीवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बुनियाद पर (आर्थिक नियतत्ववाद या अपचयनवाद के सहारे नहीं और साथ ही सतह की परिघटनाओं के प्रेक्षण मात्र या अधिरचनावादी तरीके से भी नहीं) राजनीतिक परिदृश्य के घटनाक्रम विकास को समझने की कोशिश करें तो उसकी ज्यादा तर्कसंगत व्याख्या के साथ ही भविष्य की संभावित दिशा का भी ज्यादा सही आकलन कर सकते हैं। जो ऐसा नहीं कर पाते वही कठिन और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ या पस्तहिम्मत हो जाते हैं या फिर 'आप पार्टी' जैसी किसी सामयिक परिघटना से (आगे चलकर और अधिक मायूस हो जाने के लिए) अधिक उम्मीदें लगा बैठते हैं। फिर मोहभंग के बाद ऐसे बहुतेरे अपेक्षतया सुलझे हुए या जनवादी किस्म के मध्यवर्गीय लोग भी फासीवाद के पाले में लुढ़क जाते रहे हैं। जर्मनी और इटली में पूँजीवादी जनवाद के दायरे में सोचने वाली मध्यवर्गीय आबादी भी सामाजिक जनवाद से मोहभंग के बाद फासीवादियों के लोकलुभावन नारों और उग्र अंधराष्ट्रवाद के नारों की ओर तेज़ी से आकृष्ट हुई थी। शेष एक ऐसी आबादी थी, जो घरों में दुबक गयी। सिर्फ मज़दूर वर्ग ने एकदम हवा के विरुद्ध जाकर फासीवादियों से मोर्चा लिया और अपनी कुर्बानियों और शहादतों से कीमत चुकाकर कम्युनिस्टों ने मेहनतक़शों की अगुवाई की।
यह पक्की बात है कि पूँजीवाद अपने संकटों से स्वत: ध्वस्त नहीं होगा, जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्ता संगठित नहीं होगा। पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फासीवाद के रूप में सामने आयेगा। आज की परिस्थितियों में भारत जैसे देशों में यह फासीवाद, हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद की तरह नहीं होगा, पर जनता के विरुद्ध पूँजीपति वर्ग जंज़ीर में बँधे कुत्ते के समान इसका इस्तेमाल करने का विकल्प हमेशा अपने हाथ में रखेगा। 2014 में यदि भाजपा सत्ता में न भी आये, तो एक ताक़तवर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में फासीवाद यहाँ के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर उपस्थित बना रहेगा। इसका प्रभावी तोड़ केवल एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन ही प्रस्तुत कर सकता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि खण्ड-खण्ड में बिखरा हुआ, गतिरुद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन आज विकल्प प्रस्तुत कर पाने की स्थिति में कत्तई नहीं है। इसके भीतर, एक छोर पर यदि ''वामपंथी'' दुस्साहसवाद का भटकाव है, तो दूसरे छोर पर तरह-तरह के रूपों में दक्षिणवादी विचलन है। दोनों के ही मूल में है विचारधारात्मक कमज़ोरी और कठमुल्लावाद। आज की दुनिया और भारत में पूँजीवादी संक्रमण की गतिकी को नहीं समझ पाने के चलते ये अधिकांश संगठन आज भी नयी सच्चाइयों को बीसवीं शताब्दी की लोकजनवादी क्रान्तियों के साँचे-खाँचे में फिट करने की निष्फल कोशिश करते रहे हैं। इस गतिरोध से उबरने के लिए पुरानी निरंतरता को तोड़कर एक नयी साहसिक शुरुआत की ज़रूरत है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की गम्भीर समझ से लैस, एक बोल्शेविक साँचे-खाँचे में ढली पार्टी के निर्माण के लिए संकल्पबद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी ही इस काम को अंजाम दे सकती है। कोई कह सकता है कि यह तो बहुत लम्बा रास्ता है। हमारा कहना यह है कि कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। इसलिए यदि एकमात्र विकल्प यह लम्बा रास्ता है, तो हमें वही चुनना पड़ेगा। और फिर रास्ते की लम्बाई कोई निरपेक्ष अटल सत्य नहीं है। कोशिशें रास्ते की लम्बाई को कम कर देती हैं। हालात इसके लिए ज्यादा से ज्यादा दुर्निवार दबाव बना रहे हैं। मार्क्स का यह कथन काफी सारगर्भित है कि कभी-कभी प्रतिक्रान्ति का कोड़ा क्रान्ति को आगे गतिमान करने में अहम भूमिका निभाता है।
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