भूलना नहीं होगा कि उसके बाद दिल्ली में और पूरे देश में गिरोह-बलात्कार की कई घटनाएँ
चर्चा में आयीं। और फिर मुजफ्फरनगर को कैसे भूला जा सकता है, जहाँ अभी-अभी गिरोह बलात्कार
की कई जघन्य घटनाएँ घटीं हैं। उनपर कहीं भी उसतरह से उद्वेलन नहीं पैदा हुआ। क्यों? आखिर क्यों?
फिर 'गुजरात-2002' को कैसे भूला जा सकता
है जहाँ सैकड़ों स्त्रियों के साथ फासिस्ट पशुओं ने गिरोह-बलात्कार किया और उसके
बाद कइयों को ज़िन्दा दफ़्न कर दिया या ज़िन्दा जला दिया। गर्भवती स्त्रियों के
पेट फाड़कर गर्भस्थ शिशुओं को त्रिशूल की नोक पर उठाकर घुमाया गया। हिन्दुत्वादी
फासिस्टों की बर्बरता जर्मन नात्सियों से किसी भी मायने में कम नहीं।
पूँजीवादी असाध्य ढाँचागत संकट की अनिवार्य परिणति के तौर पर जो आत्मिक-सांस्कृतिक रुग्णता-रिक्तता और बर्बरता
सामाजिक ताने-बाने में और राजनीतिक
ढाँचे भर चुकी है, उसकी परिणति समाज के सभी दबे-कुचले वर्गों और तबकों को भुगतना ही पड़ेगा। सहस्त्राब्दियों
से उत्पीडि़त स्त्रियाँ और मासूम बच्चे पूँजी की रुग्ण पागल संतानों के सबसे आसान शिकार हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत इस समस्या के गम्भीर और विकृत होते जाने
की गति को रोक पाना मुमकिन नहीं। सख़्त क़ानून, चाक-चौबन्द पुलिस व्यवस्था, जेण्डर-संवेदनशील न्यायपालिका
-- इन सबसे आम स्त्रियों
को सुरक्षा की कोई गारण्टी हासिल होने वाली नहीं। बलात्कार, यौन आक्रमण और यौन
दुर्व्यवहार सड़कों पर ही नहीं घरों में भी होते हैं, थानों में भी, मीडिया संस्थानों
के दफ्तरों और आयोजनों में भी, जजों और वकीलों के चैम्बरों में भी, कारख़ानों से लेकर लकदक ऑफिसों तक में भी और जाति
पंचायतों-खाप पंचायतों के हुक्म
पर गाँव की सड़कों पर, चौपालों में भी।
स्त्री-विरोधी हिंसा के विरुद्ध यदि एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन
संगठित करने का चुनौतीपूर्ण काम हाथ में नहीं लिया जायेगा, तबतक कुछ मोमबत्तियाँ
जलाने और कुछ विरोध प्रदर्शनों मात्र से कुछ बुनियादी बदलाव नहीं होने का। यह केवल
पिछड़ेपन से भी जुड़ा सवाल नहीं है। याद रखना होगा कि दुनिया में सबसे अधिक बलात्कार
और यौन-अपराध सभ्य-सुसंस्कृत-समृद्ध देश स्वीडन
में होते हैं।
कोई पूछ सकता है कि पूँजीवाद विरोधी संघर्ष और पुरुषवर्चस्ववाद-विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन
का रास्ता तो दीर्घकालिक उपाय है, तत्काल क्या-क्या किया जा सकता
है! काफी कुछ किया जा सकता
है। हमें बस्तियों-मुहल्लों में स्त्रियों के और नौजवानों के चौकसी दस्ते बनाने होंगें, जो नशे और नशेड़ियों
के अड्डों, लम्पटों के जमावड़े
के अड्डों पर हमले करें, ऐसे अपराधियों को जन अदालत लगाकर दण्डित किया जाये। सिर्फ ''क़ानून के रखवालों'' के भरोसे रहने से काम
नहीं चलेगा। छात्राओं को, काम करने वाली स्त्रियों और स्त्री सामाजिक कार्यकर्ताओं को शारीरिक शिक्षा
अवश्य लेनी चाहिए और अपने पास 'पेपर स्प्रे गन' और स्विच वाला चाकू ज़रूर रखना चाहिए। मौक़ा आने पर बिना हिचके हमलावार या
हमलावरों पर अधिकतम ख़तरनाक चोट कीजिए। आत्मरक्षा में कुछ भी किया जा सकता है -- क़ानून भी यही कहता
है। व्यक्तिगत तौर पर, हर स्त्री को किसी भी यौन हमले का जान लड़ाकर प्रतिकार करना चाहिए। ऐसा
करने के दौरान यदि आप मारी भी गयीं तो आपकी शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी। हज़ारों और
लाखों स्त्रियों को ललकारने वाले वज्रघोष का काम करेगी। हमलोग भी यदि सामाजिक काम करने
सड़कों पर उतरे हैं तो यह सोचकर, संकल्प बाँधकर उतरे हैं।
--कविता कृष्णपल्लवी
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