Thursday, April 07, 2011

शब्‍दों की ताकत

लेखक महोदय, आपकी डायरियां महापुरुषों और लेखकों की बहुमूल्‍य सूक्‍ित्‍तयों से भरी पड़ी है। आपके अध्‍ययन-कक्ष में ऐसे उद्धरणों के खूबसूरत पोस्‍टर चस्‍पां हैं। लोग इन्‍हें देखकर प्रभावित होते हैं। आप हर मौके के लिए लोगों को कविताओं की पंक्‍ित्‍तयां और उद्धरण सुझा देते हैं। लोग प्रभावित हो जाते हैं।
मगर आप स्‍वयं इन सूक्त्तियों उद्धरणों की निर्जीव बेजान पोथी बनकर रह गये हैं। अपने कमरे से खूबसूरत उद्धरण और कविता पोस्‍टरों को उतार दीजिये। बेहतर होगा, इन्‍हें दिल में उतारिये और थोड़ा संवेदनशील मनुष्‍य बनने की कोशिश कीजिये। हरदम महापुरुषों के या अपने जुमलों से लोगों को प्रभावित करते रहने की कोशिश बहुत हल्‍की बात लगती है।
लेखक लोगों को शब्‍दों की ताक़त का अहसास कराये, इसके पहले उसे स्‍वयं उसका अहसास होना चाहिये।शब्‍दों को हल्‍के से नहीं लेना चाहिये। उन्‍हें खिलंदड़ेपन का औज़ार तो कत्‍तई नहीं बनाना चाहिए। शब्‍दों में दिल की ताक़त होनी चाहिये। दिखावा या पाखंड कत्‍तई नहीं। सस्‍ती ज़ुमलेबाजी से बचा जाना चाहिए। जो धीर-गम्‍भीर होकर विचारों को साधने की कोशिश नहीं करेगा, वह कलम का क्‍लर्क ही बना रह जायेगा। लेखक को शब्‍दों को अपना हृदय देना होता है। 

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