Thursday, February 24, 2011

हमदर्दीखोरी की बीमारी

मेरी एक मित्र हुआ करती थी छात्र जीवन में। उसके पिता हमेशा बीमार ही रहा करते थे। बीमारी स्‍पष्‍ट पता नहीं चलती थी। कभी धड़कन बढ़ जाती थी तो कभी बेहोश हो जाया करते थे। बाद में पता चला, व्‍यापार में वे सारी पूंजी डुबो चुके थे और अब पत्‍नी कुछ काम करके घर चलाती थीं। वे जीवन में एक हारे हुए व्‍यक्ति थे। आत्‍मविश्‍वास और इच्‍छा‍शक्ति खो चुके थे। अब लोगों की हमदर्दी ही उनके लिए बचाव का साधन और जीने का हथियार थी।
एक और दोस्‍त का भाई था। बस लंबे-चौड़े मंसूबे बांधा करता था। जीवन में सफल और उद्यमी लोगों से कुढ़ता रहता था, उन्‍हें किस्‍मत वाला या तिकड़मी बताता था। ख़ुद जब भी उसका मंसूबा ध्‍वस्‍त होता दीखता था, तो उसे या तो माइग्रेन हो जाता था या बेहोशी के दौरे पड़ने लगते थे। उसे भी हमदर्दीखोरी की बीमारी थी।
विफल या इच्‍छा‍शक्तिविहीन आदमी अक्‍सर इस ख़तरनाक बीमारी का शिकार हो जाता है। यह बीमारी उसकी संवेदना, इच्‍छाशक्ति और स्‍वाभिमान को दीमक के समान खा जाती है। एक सज्‍जन थे। अपनी पत्‍नी-बच्‍चों को लगातार पीटते रहते थे। कोई यदि उनसे हाल-चाल पूछता तो अपनी बीमारियों का पिटारा लेकर बैठ जाते थे। यदि कोई धीरज और ध्‍यान से नहीं सुनता था तो उससे एकदम फिरंट हो जाते थे।
हमदर्दीखोरी एक सामाजिक-मनोवैज्ञानिक रुग्‍णता है। अलगाव और आत्‍मकेन्‍द्रण हमें कमज़ोर और इच्‍छा‍शक्तिविहीन बनाते हैं और हमें जब कुछ नहीं सूझता तो हम स्‍वयं को दूसरों की दया का पात्र बनाकर अपनी विफलताओं और मानवद्रोही हरकतों से लोगों का ध्‍यान भटका देना चाहते हैं।
इंसान को समाज और दोस्‍तों-परिजनों के सामने जवाबदेह होना चाहिए और तुच्‍छता-क्षुद्रता छोड़कर हठी स्‍वाभिमानी इंसान बनने की कोशिश कभी नहीं छोड़नी चाहिए।

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