Monday, June 07, 2021

समाज को बदलते हुए ही आप ख़ुद को भी बदल सकते हैं!


समाज को बदलते हुए ही आप ख़ुद को भी बदल सकते हैं!

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माओ त्से-तुंग ने चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) के दौरान कहा था कि 'चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में ख़ुद को भी बदलना होगा, इसी तरह समाजवादी समाज में नया मानव पैदा होगा।' 

उन्होंने समाजवादी प्रयोगों की सफलताओं-असफलताओं के अध्ययन और प्रयोगों के अनुभव से यह नतीजा निकाला कि सर्वहारा वर्ग द्वारा अपनी पार्टी के नेतृत्व में बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके अपनी राज्यसत्ता की स्थापना और सुदृढ़ीकरण के बाद, उत्पादन-संबंधों में क्रान्तिकारी बदलाव के साथ ही आचार-विचार-संस्कार, मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं, कला-साहित्य-संस्कृति और शिक्षा की दुनिया में सतत् सांस्कृतिक क्रांति जारी रखनी होगी। तभी, और केवल तभी,  समाजवाद कम्युनिज्म की दिशा में आगे डग भर सकता है और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को रोका जा सकता है।

 इसतरह माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के सिद्धांत और व्यवहार द्वारा, वैज्ञानिक समाजवाद की भोंड़ी भौतिकवादी और अर्थवादी समझ के विरुद्ध मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन द्वारा छेड़े गए संघर्ष को ही आगे बढ़ाया तथा आर्थिक मूलाधार और अधिरचना के बीच के द्वंद्वात्मक अंतर्संबंधों की और अधिक सटीक एवं स्पष्ट समझदारी प्रस्तुत की।  

माओ के इस युगांतरकारी सैद्धांतिक अवदान को समझना बेहद ज़रूरी है।

 संसदीय जड़वामन, नकली कम्युनिस्ट और तमाम किस्म के रंग-बिरंगे सोशल डेमोक्रेट इस बात को या तो समझते ही नहीं या जानबूझकर इसकी चर्चा नहीं करते क्योंकि क्रान्ति और समाजवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं होता और वे वास्तव में बुर्जुआ व्यवस्था की ही दूसरी सुरक्षा-पंक्ति होते हैं !

7 Jun 2021

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