tag:blogger.com,1999:blog-1865507084516255580.post1490554822817570228..comments2023-11-11T10:14:37.451+05:30Comments on देर रात के राग: धन्य! धन्य!!Kavita Krishnapallavihttp://www.blogger.com/profile/05805175872892962733noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-1865507084516255580.post-59831552099384608642016-08-10T11:50:26.015+05:302016-08-10T11:50:26.015+05:30आपकी इस टिप्पणी को पढ़कर मुक्तिबोध याद आए जिनकी एक ...आपकी इस टिप्पणी को पढ़कर मुक्तिबोध याद आए जिनकी एक काव्यपंक्ति है :'दुनिया को हाट समझ/जन जन के जीवन का मांस काट/रक्त-मांस विक्रय के प्रदर्शन की प्रतिभा का नया ठाठ/शब्दों का अर्थ जब नोच खसोट लूट पाट.'<br />जाहिर है कि साहित्य के पाठकों की संख्या लगातार सिमटती जा रही है और विभिन्न संस्थानों से बतौर मोटी रक़म दिए जाने वाले पुरस्कारों की संख्या और अपने कैरियर को चमकाने के लिए पत्रिका निकालने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.साहित्य के पाठक एवं अध्यापक के रूप में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि छात्रों को यदि छोड़ दें तो पूरे भारत में हिन्दी कविता-कहानी-आलोचना पढ़नेवालों की संख्या अधिक से अधिक पांच सौ से ज्यादा नहीं होगी. <br />भारतीय अंग्रेज़ी के लेखको की नक़ल पर हिन्दी में भी 'वाइन एंड डाइन कल्चर'का जोर बढ़ा है. 'इण्डिया इंटरनेशनल' की गप्प गोष्ठी की तर्ज़ पर हाल में वार्सा में संपन्न एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में दक्षिण एशिया से जो कला-साहित्य-संस्कृति-समाजविज्ञान के तथाकथित विद्वान आए थे उनमें ज्यादातर विद्वानों की विदेश यात्रा का पूरा खर्च भारतीय केन्द्रीय विश्वविद्यालयों ने उठाया है.मुझे यह देखकर हँसी आ रही थी कि समानांतर चलने वाले ज्यादातर सत्रों में पंद्रह -बीस से से ज्यादा श्रोता नहीं थे.<br />यदि हमारे ये विद्वान वाकई में बड़े विचारक हैं तो इन्हें आयोजक अपने खर्च पर क्यों नहीं बुलाते.<br />क्या संस्था द्वारा इस मद में खर्च किए जाने वाली रकम से कुछ जरूरतमंद विद्यार्थियों की मदद नहीं की जा सकती.<br />भारत के गरीब लोगों के साथ ही कर अदा करनेवाले लोगों से साथ कला-साहित्य-संस्कृति-समाजविज्ञान के नाम पर बहुत बड़ा धोखा हो रहा है.प्रो.रवि रंजनhttps://www.blogger.com/profile/05759095381764437121noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1865507084516255580.post-9600340580971187552016-08-10T11:50:13.767+05:302016-08-10T11:50:13.767+05:30आपकी इस टिप्पणी को पढ़कर मुक्तिबोध याद आए जिनकी एक ...आपकी इस टिप्पणी को पढ़कर मुक्तिबोध याद आए जिनकी एक काव्यपंक्ति है :'दुनिया को हाट समझ/जन जन के जीवन का मांस काट/रक्त-मांस विक्रय के प्रदर्शन की प्रतिभा का नया ठाठ/शब्दों का अर्थ जब नोच खसोट लूट पाट.'<br />जाहिर है कि साहित्य के पाठकों की संख्या लगातार सिमटती जा रही है और विभिन्न संस्थानों से बतौर मोटी रक़म दिए जाने वाले पुरस्कारों की संख्या और अपने कैरियर को चमकाने के लिए पत्रिका निकालने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.साहित्य के पाठक एवं अध्यापक के रूप में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि छात्रों को यदि छोड़ दें तो पूरे भारत में हिन्दी कविता-कहानी-आलोचना पढ़नेवालों की संख्या अधिक से अधिक पांच सौ से ज्यादा नहीं होगी. <br />भारतीय अंग्रेज़ी के लेखको की नक़ल पर हिन्दी में भी 'वाइन एंड डाइन कल्चर'का जोर बढ़ा है. 'इण्डिया इंटरनेशनल' की गप्प गोष्ठी की तर्ज़ पर हाल में वार्सा में संपन्न एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में दक्षिण एशिया से जो कला-साहित्य-संस्कृति-समाजविज्ञान के तथाकथित विद्वान आए थे उनमें ज्यादातर विद्वानों की विदेश यात्रा का पूरा खर्च भारतीय केन्द्रीय विश्वविद्यालयों ने उठाया है.मुझे यह देखकर हँसी आ रही थी कि समानांतर चलने वाले ज्यादातर सत्रों में पंद्रह -बीस से से ज्यादा श्रोता नहीं थे.<br />यदि हमारे ये विद्वान वाकई में बड़े विचारक हैं तो इन्हें आयोजक अपने खर्च पर क्यों नहीं बुलाते.<br />क्या संस्था द्वारा इस मद में खर्च किए जाने वाली रकम से कुछ जरूरतमंद विद्यार्थियों की मदद नहीं की जा सकती.<br />भारत के गरीब लोगों के साथ ही कर अदा करनेवाले लोगों से साथ कला-साहित्य-संस्कृति-समाजविज्ञान के नाम पर बहुत बड़ा धोखा हो रहा है.प्रो.रवि रंजनhttps://www.blogger.com/profile/05759095381764437121noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1865507084516255580.post-19033370371201637242014-12-16T11:52:41.748+05:302014-12-16T11:52:41.748+05:30कमाई के नए तरीके तो निश्चित ही बढ़ गए हैं उनके लिए ...कमाई के नए तरीके तो निश्चित ही बढ़ गए हैं उनके लिए Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/07366651080256369766noreply@blogger.com