Sunday, June 14, 2020

कुत्सा-प्रचार के ज़हर-मवाद-गंद भरे नाले के किनारे बैठे 'समझदारों का गीत'


लिखने का मन तो नहीं था, पर फिर सोचा कि बता ही दूँ I पंडा के 'मार्क्सिस्ट स्टडी सर्किल' के पाँचो वीडियोज की समालोचना प्रस्तुत करने के बाद से लेकर अबतक मेरे पास सौ से भी अधिक मित्रों के फोन आ चुके हैं जिन्होंने बताया कि पंडा उन्हें फोन करके किस स्तर का कुत्सा-प्रचार करता रहा और मुझे और कुछ अन्य साथियों को अनफ्रेंड करने और ब्लाक तक करने के लिए कन्विंस करता रहा I अभी वह लगातार अपनी वाल पर चरित्र-हनन और कुत्सा-प्रचार करते हुए "सत्यकथा" और "मनोहर कहानियाँ" लिखता चला जा रहा है I यह काम तो वह बीस वर्षों से कर रहा है, पर हर बार की कुत्सा-प्रचार मुहिम में वह अपने चरित्र में आयी गिरावट के अनुपात में ही रसातल की ओर थोड़ा और लुढ़क जाता रहा है I 25 वर्षों पहले एक संघर्ष से पेंट गीली करते हुए भागने वाला जो व्यक्ति घोटा मारकर 'इंडियन रेवेन्यू सर्विस' की परीक्षा पास करके आज 'सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ इनडायरेक्ट टैक्सेज एंड कस्टम्स' में उच्चपदस्थ अधिकारी है, वह न सिर्फ़ साहित्य का मठाधीश और लेखक बनने का आकांक्षी है, न सिर्फ़ मार्क्सवाद का स्वयंभू शिक्षक बन बैठा है, बल्कि क्रांतिकारी वाम आन्दोलन पर भी गंद उछालकर अपने भगोड़ेपन के इतिहास से जन्मी कुंठाओं का शमन रहा है I वस्तुतः अपनी वाल पर वह मवाद और मैले में घोलकर निरंतर ज़हर उगल रहा है I बहरहाल, सूअर की पिटाई के लिए हम खुद तो गंद में नहीं उतर सकते, लेकिन दूर खड़े होकर विचारधारा और राजनीति के डंडे से इसकी पिटाई करते रहेंगे ! यह हमारा विवशतापूर्ण कर्तव्य है क्योंकि बुर्जुआ राज्यसत्ता का यह दो कौड़ी का चाकर अहम्मन्य, आत्मग्रस्त, कैरियरवादी मूढ़ अगर मार्क्सवाद के शिक्षक का लबादा ओढ़कर सैकड़ों युवाओं को दिग्भ्रमित करता रहेगा तो इसके फैलाए कचड़े की सफाई हमें करनी ही पड़ेगी I

पंडा की समालोचना करते हुए जब तर्कों से सिद्ध करने के बाद हम उसे "मूर्ख, झूठा, आत्मग्रस्त" आदि-आदि कहते हैं तो राजधानी के "शिष्ट" "विनम्र" वाम विद्वानों के दिल-जिगर चाक-चाक हो जाते हैं, लेकिन पांडे हमारे एक भी सवाल का जवाब दिए बगैर जब व्यक्तिगत और सांगठनिक कुत्सा-प्रचारों की झड़ी लगाता है, तो ये लोग शुतुर्मुर्गासन करने में तल्लीन हो जाते हैं I बात सिर्फ़ "दरियागंज का दल्ला" कहलाने वाले उस कवि की ही नहीं है, बहुतेरे संजीदा माने जाने वाले महानुभावों की भी है I बहरहाल, हम स्वयं को एक सच्चा वाम क्रांतिकारी मानने के नाते अपने स्तर से नीचे कभी नहीं उतरेंगे और इस गलीज कुत्सा प्रचारक (जो मार्क्सवादियों के बीच राज्यसत्ता का 'प्लांटेड' व्यक्ति भी हो सकता है) के एक भी आरोप का, एक भी कुत्सा-प्रचार का कोई जवाब नहीं देंगे ! हम केवल और केवल राजनीतिक मुद्दों पर केन्द्रित करेंगे I

एक बहुत मोटी-सी बात तमाम 'फेन्ससिटर्स' की मोटी बुद्धि में क्यों नहीं घुस रही है कि जब हम पंडा की इतिहास, दर्शन और मार्क्सवाद की अत्यंत भोंडी और गलत समझदारी को तथ्यों और तर्कों सहित प्रमाणित करते हुए सवाल उठा रहे हैं तो वह आखिरकार उनमें से एक का भी जवाब क्यों नहीं दे रहा है और इसकी जगह हमारे ऊपर लांछनों की ढेरी क्यों लगा रहा है ? चलिए, मान लिया कि कोई पतित किस्म का व्यक्ति ही मार्क्सवाद की आपकी समझदारी को खुलेआम, विस्तार से सोशल मीडिया पर गलत बता रहा है, तो क्या विचारधारा की हिफाज़त के लिए और लोगों को गुमराह होने से बचाने के लिए आपका यह कर्त्तव्य नहीं बनता कि आप उठाये गए सवालों का जवाब दें ? हमने पंडा की पांचो वीडियो की समालोचना करते हुए उसकी पचासों गंभीर गलतियों और झूठों और डींगें हांकने के प्रमाण प्रस्तुत किये ! हमने पंडा को इन प्रश्नों पर बार-बार खुली बहस का आमंत्रण दिया ! आखिर वह हमारे एक भी सवाल का उत्तर क्यों नहीं दे रहा है ? हमने पंडा के जिन गलतियों-मूर्खताओं और झूठों की चर्चा की, उनमें से मात्र कुछ को ही ले लें :

i) पंडा को श्रम और श्रम-शक्ति का फर्क नहीं पता है जो मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियाद है I
ii) पंडा ने ऐतिहासिक भौतिकवाद को वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत में रिड्यूस कर दिया है जबकि वह उसका मात्र एक अंग है I
iii) पंडा ने भाववाद को ईश्वरवाद और नियतत्ववाद में रिड्यूस कर दिया है जबकि भाववाद अनिवार्यतः यही रूप नहीं लेता; subjective idealism इसका प्रमुख उदाहरण है I
iv) काम छोटे या बड़े अधिक या कम वेतन की वजह से नहीं माने जाते -- इस प्रश्न पर पण्डे का फंडा एकदम क्लियर नहीं है I
v) पण्डे की फुद्दू समझ देखिये -- चार्वाक और बुद्ध के युग को वह सामंतवाद का युग बताता है I
vi) पण्डे ने प्राचीन जनपदों के उदय को पहली सदी ईसवी में पहुँचा दिया है I
vii) घटनाओं और दर्शनों का काल बताने में कई जगह गंभीर गलतियाँ की हैं पण्डे ने I यही नहीं, किताबों के नाम भी वह गलत-सलत बताता रहा है जैसे दामोदरन की पुस्तक 'भारतीय चिंतन परम्परा' को 'भारतीय दर्शन-परम्परा' बताना, क्रिस हरमन की पुस्तक 'अ पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ दि वर्ल्ड' को हॉवर्ड जिन की पुस्तक बताना (हॉवर्ड जिन की पुस्तक का नाम 'अ पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ यू एस ए' है)I
viii) आत्म-महिमा-मंडन के लिए पण्डे ने कई झूठ बोले, जैसे कि उसने बी ए में पढ़ते समय 'पूँजी' के तीनों खंड सात दिन में पढ़ डाले थे, उसके पास रोज़ा लक्जेमबर्ग की अंग्रेज़ी में सम्पूर्ण रचनाएँ हैं जो उसने पढ़ डाली हैं (अभी अंग्रेज़ी में रोज़ा की सम्पूर्ण रचनाएँ छपी ही नहीं ) ... आदि-आदि !
ix) पण्डे के अनुसार प्राचीन जनपदों के काल में वैश्यों के कारखानों में शूद्र "कम मज़दूरी" पर काम करते थे -- यह है पंडा महाराज की इतिहास की समझ !!
x) पण्डे के अनुसार पितृसत्ता की "रचना" की गई !!
xi) पण्डे के अनुसार ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था का "किस्सा गढ़ा" !!
xii) पण्डे के अनुसार, शूद्र बौद्धिक रूप से कमजोर होने के कारण शूद्र बने ! इसतरह पण्डे का जनेऊ बाहर निकल आया है !!

ये तो पण्डे की "अगाध विद्वत्ता" के सागर से चुने हुए महज कुछ मोती हैं ! हमारा एक बार फिर आग्रह है कि पण्डे की पांचो वीडियोज की हमने जो समालोचनाएँ किश्तवार लिखी हैं, उन्हें आप खुद गंभीरता से पढ़कर देख सकते हैं कि हमने उसके लिये जिन विशेषणों का इस्तेमाल किया है, क्या उनमें रत्ती भर भी अत्युक्ति है ?

हमारा बस इतना कहना है कि पंडा चाहे हमें जितनी गालियाँ दे ले, जितने घिनौने झूठ गढ़ ले, वह हमारी पचासों आलोचनाओं में से चन्द-एक का ही जवाब देकर और हमें गलत साबित करके अपने शिष्यों-मुरीदों और राजधानी के "शिष्ट जनों" के सामने यह सिद्ध तो करे कि वह एक झूठा, आत्म-दम्भी, आत्म-मुग्ध, कैरियरवादी जंतु नहीं है !
रहा सवाल कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन का, तो उसके बारे में ज़माने पहले सुकरात ने या शायद किसी अन्य ग्रीक दार्शनिक ने (इसपर विवाद है कि यह किसका उद्धरण है) बिलकुल सटीक कहा था कि "जब वाद-विवाद में पराजय हो जाती है तो फिर पराजित व्यक्ति कुत्सा-प्रचार को अपना हथियार बना लेता है I"

एक पुरानी डैनिश कहावत है:"कुत्सा-प्रचारक के डँसे हुए का कोई इलाज नहीं है I" मोलिएर भी कहते हैं कि 'कुत्सा-प्रचार से कोई बचाव नहीं होता !' लेकिन एक कम्युनिस्ट ऐसा नहीं मानता ! वह चाहे तो दो मिनट में कुत्सा-प्रचारक का वैसा ही इलाज कर दे जो गली के कुत्ते का किया जाता है I पर वह ऐसा करने की जगह, प्रायः, एक लम्बे समय तक दूसरा विकल्प चुनना बेहतर समझता है I वह कुत्सा-प्रचारक के एक भी झूठ का जवाब देने की जगह राजनीतिक प्रश्नों पर केन्द्रित करता है क्योंकि जो लोग राजनीति की जगह कुत्सा-प्रचार से प्रभावित होते हैं वे सामान्य नागरिक स्तर से भी काफी गिरे हुए लोग होते हैं और क्रांतिकारियों के लिए किसी काम के नहीं होते !

एक गंदा आदमी, जैसे कोई दुश्चरित्र और लम्पट, बुर्जुआ सत्ता का कोई चाकर, आपके ख़िलाफ़ कुत्सा-प्रचार करता है तो यह आपके ख़िलाफ़ अच्छी बात है ! हेनरी फ़ील्डिंग के अनुसार,"कुछ लोगों द्वारा किया गया कुत्सा-प्रचार उतनी ही शानदार अनुशंसा होती है जितनी दूसरों द्वारा की गयी प्रशंसा I"

अलेक्सांद्र ड्यूमा के अनुसार,"कुत्सा-प्रचार को रोकने का सही तरीका उससे नफ़रत करना है; उससे आगे निकालने और खंडन करने की कोशिश करेंगे, तो यह आपको पीछे छोड़ देगा I"

वोल्तेयर के शब्दों में,"इतिहास के कई कर्त्तव्य होते हैं ... ... पहला है कुत्सा प्रचार नहीं करना; दूसरा है बोर नहीं करना I"

सैमुअल जॉनसन ने कुत्सा-प्रचारकों के बारे में जो बात कही है वह पण्डे के बारे में एकदम सटीक लागू होती है,"कुत्सा-प्रचार कायर का प्रतिशोध होता है और अपने विचारों को छिपाना उसका बचाव होता है I"

बस फिलहाल इतना ही ! एक पुराना फ़िल्मी गीत है,"समझने वाले समझ गए, ना समझे वो अनाडी है !" इतनी बातों और तर्कों और पण्डे के तमाम कुकर्मों के बावजूद पण्डे को जो नहीं समझते, वे अनाडी या मूर्ख नहीं हैं, बल्कि खुद ही घाघ हैं, या उसी खेल के खिलाड़ी हैं ! जो सब समझकर भी नहीं समझते, उन्हें कोई नहीं समझा सकता ! गोरख पाण्डेय की एक कविता है,"समझदारों का गीत !" जिसने भी न पढ़ी हो उसे खोजकर पढ़ लेना चाहिए !

(14जून, 2020)

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