Friday, June 12, 2020


हमारे समाज के सामाजिक ताने-बाने में ही जनवाद नहीं है ! जनवाद नहीं, तो पारदर्शिता नहीं ! स्वस्थ बहस नहीं ! साहित्यिक जगत में भी स्वस्थ मतभेद, उग्र बहसें, वैचारिक विवाद संभव नहीं हो पाते ! आप जैसे ही मतभेद दर्ज़ कराते हैं, या अपनी कोई स्वतंत्र राय रखते हैं, जनवाद और बराबरी का झीना-रेशमी आवरण उतर जाता है I "ऊँचे लोग" आपकी हिमाक़त पर रुष्ट हो जाते हैं ! वे दिल से आपको आपकी औकात दिखा देने के बारे में सोचने लगते हैं ! आप अगर किसी से वैचारिक बहस में निहायत ईमानदारी से उलझ पड़ते हैं तो इसतरह के कयास लगाए जाने लगते हैं कि शायद आप उस व्यक्ति के विरोधी अलां या फलां गुट से जुड़ गए हों ! अगर आप किसी नीच-बेईमान तत्व के विरुद्ध कोई वैचारिक संघर्ष करते हैं तो वह नीच व्यक्ति किसी गुरु या आचार्य के लबादे पीछे जाकर छिप जाता है, जिसे चिकनी-चुपड़ी बातों से उसने पहले से ही पटा रखा होता है ! हिन्दी साहित्य की दुनिया में सज्जन-शालीन लोग भी कटुभाषी स्पष्टवक्ता की जगह चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले और गणेश-परिक्रमा करने वाले घुटे हुए बदमाशों को पसंद करते हैं ! जिस बौद्धिक-साहित्यिक समाज में चापलूसी से काम निकलता हो, वह समाज जनवादी नहीं और जो समाज जनवादी नहीं, वहाँ स्वस्थ बौद्धिक बहस संभव नहीं ! फिर भी हम युवा पीढी और भविष्य के बारे में आशावादी मत रखते हुए सैद्धांतिक बहसें तो चलाते ही रहेंगे और तमाम मदारियों और बेईमानों-बदमाशों को नंगा करते ही रहेंगे !

(12जून, 2020)

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