Friday, June 12, 2020


कवि के पास जब भाषा का हुनर आ जाता है तो अक्सर उसकी भाषा का जादू जाता रहता है I अक्सर ! हमेशा नहीं !

कवि जब बहुत अनुभवी हो जाता है तो कई बार वह अपनी क्षुद्रताओं, ईर्ष्याओं, विश्वासघातों और आत्मा की मलिनताओं को भी बिम्बों और फंतासियों में लपेटकर उस सागर-तट पर रख देता है, जहाँ रात को कविता मछली का रूप धरकर आती है और उसे चारा समझकर खा जाती है !

फिर एक दिन आता है जब वह मछली समुद्र के वक्षस्थल पर निर्जीव पड़ी सागर के थपेड़े झेलती नज़र आती है, और फिर धीरे-धीरे नज़रों से ओझल हो जाती है I
और फिर एक दिन आता है जब समुद्र से एक घोड़मुँहा दैत्याकार मछली बाहर आती है जो कवि की ही अपनी ज़िंदगी होती है I वह मछली मुँह खोलती है और उस अमरत्व के निकट पहुँच रहे कवि पर अनपची-अधपची तुच्छताओं और पश्चातापों की बौछार कर देती है !

कवि फिर विस्मृति का शिकार हो जाता है ! अनिद्रा उसे स्वप्न भी नहीं देखने देती ! वह बहुत धीरे-धीरे मृत्यु की ओर घिसटता है I

मनुष्यता से विश्वासघात करने वाले कवि और न्याय-समर से भागे हुए योद्धा तमाम लोगों और सुविधाओं और प्रशस्तियों से घिरे हुए बहुत यंत्रणादायी अकेलेपन की मौत मरते हैं !

उनकी आत्मा में इतना अँधेरा, इतना सघन अँधेरा भर जाता है कि वे साँस तक नहीं ले पाते I वे मनुष्य नहीं रह जाते I इसतरह वे मर जाते हैं !

(डायरी के पन्नों से)

(11जून, 2020)

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