Thursday, June 11, 2020


कल(10जून,2020) Hindi Kavita के पेज पर कवि संजय चतुर्वेदी लाइव थे! मुझे अभी भी याद है, 2016 की 11 जून को दिल्ली में 'अन्वेषा' की ओर से मैंने नरेश सक्सेना, कृष्ण कल्पित और अविनाश मिश्र के साथ संजय जी के कविता-पाठ का आयोजन रखा था। तब मेरी समझ थी कि कुछ अतिरिक्त आवेश और अतिरेक के बावजूद संजय चतुर्वेदी का राजधानी के सुविधाजीवी, छद्म-वामी अभिजन समाज से जो क्षोभ है, वह किसी हद तक जायज़ है और उसके कुछ ठोस वस्तुगत कारण हैं! पर इन चार वर्षों के दौरान मैं उन्हें लगातार पढ़ती रही और फिर उनकी पहले की कविताओं को भी सिलसिलेवार पढ़ा! तब मेरी राय बनी कि छद्म वाम की आड़ लेकर संजय वस्तुतः पूरे वाम को ही निशाना बनाते हैं, या यूँ कहें कि उनके लेखे सारा वाम ही एक छद्म है, एक सत्ताभोगी, सुविधाजीवी फ्रॉड है! वे दिल्ली के सभी वाम बौद्धिकों को फ्रॉड मानते हैं और दिल्ली के विश्वविद्यालयों के सभी वामपंथी युवाओं को 'कुलीन समाज के लफंदर लौंडे' मानते हैं!

बात तब और साफ़ हो जाती है जब आप पाते हैं कि हाल के 6-7 वर्षों के दौरान लगभग उनकी 95 प्रतिशत कविताएँ "वाम" अवसरवाद पर तो (वस्तुतः पूरी वाम धारा पर) चोट करती हैं पर हिन्दुत्ववादी फासिज्म के ऐतिहासिक तांडव पर, मॉब लिंचिंग, दंगों, न्यायालयों की स्थिति, मानवाधिकारकर्मियों के दमन, फर्जी मुठभेड़ों आदि-आदि पर उनकी कविता की दुनिया में एक रहस्यमय हत्यारा सन्नाटा छाया रहता है ! ध्यान से अगर हम संजय के विचारों को देखें तो भारतीय मनीषा, संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के बारे में उनके विचार और धारणाएं पूरीतरह से दक्षिणपंथी हैं। आज की तारीख में वह एक हिन्दुत्ववादी कवि का अवतार ले चुके हैं ! उनके लिए सारी आपदाओं का कारण शायद हिन्दी साहित्य की दुनिया में व्याप्त छद्म-वाम का अवसरवाद है, या प्रकृति और समाज को तबाह करता आधुनिकता का वायरस है । संजय चतुर्वेदी आज की तारीख में विद्यानिवास मिश्र या निर्मल वर्मा जैसों के मुकाबले ज्यादा राजनीतिक मुखरता के साथ दक्षिणपंथ की विचारधारा के साथ खड़े हैं I आश्चर्य है कि कुछ हिन्दी कवियों का वैचारिक-दार्शनिक बोध इतना भोथरा हो चुका है कि वे इस चीज़ को अभी भी नहीं देख पा रहे हैं ! बहरहाल, संजय चतुर्वेदी की कविता की वैचारिक ज़मीन पर और उनके विचारों पर आगे कभी हम विस्तार से लिखेंगे ! कल उनका लाइव सुनाने के बाद साथी Dhirendar Nath ने अपनी वाल पर टिप्पणी की थी,"आज तो कोटि आचार्य लजावनहारे एक हुनरमंद विद्वान ने बोल ही दिया कि हिन्दी कवियों के पास न भाषा है न दृष्टि. मने कोई कवि ही नहीं है. खेल खतम ! अब क्या होगा !"

इस टिप्पणी पर मैंने जो कमेंट किया वह यहाँ दे रही हूँ ।

"ये जो सज्जन हैं, छद्म-वाम का विरोध करते-करते पूरी तरह से दक्षिणपंथ की गोद में जा बैठे हैं ! अब ये छद्म नहीं, बल्कि पूरे वाम को ही निशाने पर ले रहे हैं ! इनकी वैचारिकता का असली रंग इसी बात से चल जाता है कि 2014 से लेकर आजतक इनकी व्यंग्यात्मक कविताओं का निशाना कभी भी फासिस्ट सत्ता और उसके काले कारनामे नहीं रहे ! यहाँ तक कि जब देश भर में CAA-CRC-NPA विरोधी जनांदोलन चल रहे थे, उससमय यह व्यक्ति, यानी संजय चतुर्वेदी को इसमें ज ने वि आदि विश्वविद्यालयों के वाम छात्रों का तमाशा नज़र आ रहा था ! अब व्यक्तिगत कुंठा से शुरू हुई संजय चतुर्वेदी की प्रतिक्रियात्मक पश्च-गति उन्हें एक हिन्दुत्ववादी बना चुकी है ! वैसे भी अगर आप उनके विचारों की पड़ताल करें, तो वे मार्क्सवादी नहीं बल्कि उत्तर-आधुनिकतावादी रहे हैं ! दरअसल, अस्सी के दशक में बहुतेरे युवा कवि अपने जनेऊ को उतारकर नहीं, बल्कि भूलकर वाम धारा के युवा तुर्क के रूप में उभरे थे ! नब्बे के दशक में सोवियत संघ की घटनाओं के बाद, उनकी रूमानी, विचार-रिक्त आस्थाएं तेज़ी से टूटीं-दरकीं ! इसी दौर में छद्म-वाम ने भी विचार और साहित्य की दुनिया में अपना बहुत गंदा, सुविधाभोगी, अवसरवादी रंग दिखाया ! इस परिघटना ने ऐसे खोखले, पेटी-बुर्जुआ रूमानी, आत्मग्रस्त, व्यक्तिवादी कवियों की अंतरात्मा को वाम धारा पर हमले करने का एक 'सेल्फ-जस्टीफिकेशन' वाला तर्क भी मुहैय्या करा दिया ! भूला हुआ जनेऊ फिर से याद आ गया ! उधर उत्तर-आधुनिकतावाद का जो तर्कणा-विरोधी, इतिहास-विरोधी, पुनरुत्थानवादी तर्क था, उसने ऐसे लोगों को एक वैचारिक आधार देने का काम किया!अलग-अलग ढंग से यह बात संजय चतुर्वेदी पर भी लागू होती है और उदय प्रकाश पर भी ! बड़ी विडम्बना की बात यह है कि वाम कवियों की दिल्ली बिरादरी से रुष्ट-क्षुब्ध कुछ लोग विचारधारात्मक अवस्थिति को ताक पर रखकर संजय चतुर्वेदी की कविता में हाल के वर्षों में आये ' नेकेड रिएक्शनरी टर्न' की उपेक्षा करके उनकी प्रशंसा करने लगते हैं और अम्बर पाण्डे की कविताओं के शिल्प पर लहालोट होते हुए और उनकी घोर व्यक्तिवादी, प्रतिगामी अंतर्वस्तु की पड़ताल किये बगैर उन्हें भी प्रगतिशील घोषित कर देते हैं ! एक किस्म के अवसरवाद का मुकाबला करते हुए अगर आप दूसरी कोटि के अवसरवाद की गोद में जा गिरते हैं, तो यह और भी निकृष्ट बात है ! कई बार ऐसा लगता है कि हिन्दी साहित्य में कई विवाद सैद्धांतिक कारणों से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों से होते हैं ! यह बात बेहद गंदी और घटिया प्रतीत होती है।"

संजय की कविताई और भाषा के शऊर पर, या अम्बर पाण्डे की कला पर दिलो-जान से फ़िदा होकर उनके वैचारिक स्टैंड की अनदेखी करने वाले कवियों पर भी साथी Dhirendar Nath की आज की यह टिप्पणी बहुत सटीक बैठती है :"प्रिय साथी,यहाँ कोई यह कहने नहीं आएगा कि देश-काल से विच्छिन्न हुनरमंदी और विलक्षणता बहुत काम की चीज़ नहीं । जिन्हें अपने समय के अनगिनत मनुष्यों की अगणित पीड़ाओं से कुछ लेना देना नहीं, वे आपके रचना सामर्थ्य की क्या फ़िक्र करेंगे । किसी उत्कृष्ट विलक्षणता में आपको पड़े रहने दे कर आगे बढ़ जाएँगे ।"

(11जून, 2020)

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