Tuesday, May 26, 2020


सोचने वाले लोग आज छोटे-छोटे अल्पसंख्यक समूहों में संघटित या विघटित हैं I वे मक्कार, सुविधाभोगियों, यथास्थितिवादियों, धंधेबाजों, लेक्चरबाजों, नसीहतबाजों से न केवल घिरे हुए हैं बल्कि ऐसे कुछ तत्व उनके बीच भी घुसपैठ कर गए हैं, ! जो भी संधान करते हुए सकर्मक चिंतन कर रहा है, वह लोकापवादों का शिकार है और दुनियादार, घाघ, "चतुर-सुजान" "सद्गृहस्थ" उसके ऊपर भूखे भेड़ियों की तरह हमले करने को सन्नद्ध रहते हैं ! एक बर्बर भीड़ फासिस्टों की है तो दूसरी लम्पट भीड़ तमाम बौद्धिक मुखौटा पहने मूर्खों की है, दारूकुट्टे लम्पटों की है, मुत्तन पाण्डे-पद्दन तिवारी-छुट्टन अग्गरवाल-गधेंदर सिरीवास्तव टाइप छद्म-वामी बौनों की और मुफ्तखोर कूपमंडूक पोरफेसरों की है जो दार्शनिकों और महान लेखकों के कोट और बूट पहनकर अकड़ते हुए राजधानी के सांस्कृतिक राजपथों पर घूम रहे हैं !

(25मई, 2020)

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