Wednesday, February 19, 2020


.गृह मंत्रालय ने बयान जारी किया है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी NRC लाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। लेकिन सरकार का यह पीछे हटना महज एक कुटिल चाल है I देशव्यापी जन-उभार से घबराई सरकार ने दरअसल एक छल किया है ! उसने NRC को वापस नहीं लिया है, सिर्फ़ फिलहाल के लिए टाला है I आन्दोलन शांत होते ही वह फिर इसे लेकर आ जायेगी ! इसलिए आन्दोलन तबतक जारी रहना चाहिए जबतक सरकार NRC और CAA को पूरीतरह से रद्द नहीं कर देती !

दूसरी बात, सबसे ख़तरनाक साज़िश यह है कि 1 अप्रैल से जनगणना के साथ-साथ NPR यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने का भी काम शुरू हो जाएगा ! यह NPR और कुछ नहीं है, पिछले दरवाज़े से NRC लागू करने की ही एक कोशिश है ! NPR के आँकड़ों का इस्तेमाल NRC तैयार करने के लिए किया जाएगा, सभी विधि विशेषज्ञों की यही राय है ! यानी किसी भी झाँसे में आने की ज़रूरत नहीं है ! गंगाधर ही शक्तिमान है !

इस फ्रॉड के बारे में लोगों को बताना बेहद ज़रूरी है ! इस बात का पूरे देश में प्रचार किया जाना चाहिए कि आप जनगणना का फॉर्म तो भरें, लेकिन उसके साथ ही दिया जाने वाला दूसरा फॉर्म, यानी NPR का फॉर्म कत्तई न भरें, न ही उस फॉर्म के लिए माँगा जाने वाला कोई काग़ज़ ही दिखाएँ ! एक बार आप NPR का फॉर्म भर देंगे तो NRC की प्रक्रिया में स्वतः शामिल हो जायेंगे ! यानी, सावधानी हटी, दुर्घटना घटी !

सरकार यह सारी कवायद इसलिए कर रही है कि देश भर में शाहीन बाग़ जैसे जो धरने चल रहे हैं, वे किसीतरह से ख़तम हो जाएँ ! इसलिए ज़रूरी है कि ऐसे धरने न सिर्फ़ जारी रहें बल्कि उनका शहर-शहर कसबे-कसबे गाँव-गाँव और अधिक फैलाया जाए ! सरकार इन आन्दोलनों में विध्वंसक तत्व घुसाने, तोड़फोड़ करने, जनता को थकाने और मौक़ा पाते ही दमन-चक्र चलाने की रणनीतियों पर काम करेगी ! इन कुचक्रों को क्रांतिकारी जन-चौकसी और फौलादी एकजुटता के बूते ही नाक़ाम किया जा सकता है !

स्वतःस्फूर्त ढंग से उठ खड़ा हुआ यह जन-उभार समय बीतने के साथ ही ठंडा पड़ जाने और बिखर जाने की नियति का शिकार न हो जाए, इसके लिए ज़रूरी है कि इस आन्दोलन के दहन-पात्र में एक नये क्रांतिकारी नेतृत्व के ढलने की प्रक्रिया शुरू हो, जन-समुदाय स्वयं संगठित होकर लड़ने का प्रशिक्षण ले और संघर्ष के नेतृत्वकारी दस्ते प्रशिक्षित हों !

यह याद रहे कि मौजूदा संघर्ष फासिज़्म के ख़िलाफ़ लम्बे संघर्ष की एक कड़ी है और एक चक्र है ! फासिज़्म ग्रासरूट स्तर से खड़ा किया गया एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है ! इसका मुकाबला तभी किया जा सकता है और शिकस्त तभी दी जा सकती है जब तृणमूल स्तर से आम मेहनतकश जनता का एक रेडिकल प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन संगठित किया जाए ! किसी मुद्दा-विशेष पर उठ खड़े हुए जन-उभारों से निरंतरता में चलने वाले सामाजिक आन्दोलन स्वतः नहीं पैदा हो जाते ! इसके लिए वैकल्पिक जन-संस्थाओं का निर्माण ज़रूरी होता है ! कईबार जाग्रत जन-पहलकदमी के चलते ऐसा स्वतः भी होने लगता है, पर यह प्रक्रिया टिकाऊ और विकासमान तभी हो सकती है जब इसके पीछे सचेतन प्रयास हों ! यह एक बहुत रचनात्मक प्रयोग है कि कई जगहों पर धरना-स्थलों पर पुस्तकालय चल रहे हैं, बच्चों को पढ़ाया जा रहा है, अस्थायी क्लीनिक चल रहे हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम नियमित चल रहे हैं और कार्यशालाएँ चल रही हैं ! बेहतर होगा कि रात्रि-पाठशालाएँ भी चलाई जाएँ और लोगों को उनके क़ानूनी और संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताया जाए तथा इतिहास के हवालों से आंदोलनात्मक कार्रवाइयों की शिक्षा दी जाए ! इन सभी कामों को संगठित करने के लिए नागरिकों की कमेटियाँ गठित की जानी चाहिए और सभी ऐसी कमेटियों में तालमेल के लिए तालमेल कमेटियाँ भी बनाई जानी चाहिए ! भोजन आदि की व्यवस्था को और अधिक सुचारू बनाने के लिए भंडारा कमेटियाँ भी बनाई जानी चाहिए ! अभी कोई समस्या भले न आ रही हो लेकिन धरना-सत्याग्रह जैसे कार्यक्रमों के लंबा खींचने पर रोज़ कुआँ खोदकर रोज़ पानी पीने वाली आबादी के सामने आर्थिक समस्याएँ भी आने लगती हैं ! इसके अलावा आन्दोलन में भी वित्तीय संसाधनों की कमी से अड़चन आने लगती है ! इसके लिए ज़रूरी होता है कि आन्दोलन के व्यापक समर्थन-आधार से वित्त जुटाने और वित्तीय प्रबंधन के लिए विविध स्तरों पर वित्तीय कमेटियाँ और उप-कमेटियाँ बनाई जाएँ जो पूरी पारदर्शिता के साथ लोगों की आम सभा में आमदनी और खर्च के ब्योरे नियमित तौर पर प्रस्तुत करती रहें ! स्वयंसेवकों की टीमों के भी प्रभारी और उनकी नेतृत्व-कमेटियाँ ज़रूर बनाई जानी चाहिए !

यह काम जटिल और झंझटों-दिक्कतों से भरा हुआ तो ज़रूर होगा, लेकिन इसे अगर धीरज और सूझबूझ के साथ चलाया जाए तो इस प्रक्रिया में न सिर्फ़ बुर्जुआ राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाले निहित स्वार्थी तत्वों की और ख़ानाबदोश आन्दोलनपंथियों की छँटाई हो सकती है और एक खरा, ईमानदार, जुझारू, मेहनती नेतृत्व तप-निखरकर और परीक्षित होकर सामने आ सकता है, बल्कि बस्तियों, मुहल्लों और गाँवों के तृणमूल स्तर से लोक-पंचायतों जैसी वैकल्पिक जन-संस्थाएँ भी अस्तित्व में आ सकती हैं ! ऐसी संस्थाओं के इस्पाती स्तंभों पर खड़े किसी जन-प्रतिरोध को कोई फासिस्ट या बुर्जुआ सत्ता दमन और आतंक के हथकंडों से कुछ समय के लिए पीछे भले धकेल दे, लेकिन कुचल कदापि नहीं सकती ! राज्यसत्ता की शस्त्र-शक्ति विकट शक्तिशाली तभीतक लगती है जबतक कि लोकशक्ति संगठित नहीं होती !

मौजूदा देशव्यापी जन-उभार एक ही साथ प्राइमरी स्कूल से लेकर एक 'ओपन यूनिवर्सिटी' तक सबकुछ है, जिसमें हमें लगन के साथ काम करते हुए जनता से सीखना है ! यह वह प्रयोगशाला है जिसमें संघर्षों के नए-नए जन-सृजित रूप अपरिष्कृत रूप में हमारे सामने आयेंगे जिनका परिष्कार करके और प्रभावी बनाकर हमें जनता को सौंपना होगा ! जो यह कर सकेगा वही जनता का सच्चा हरावल होगा !

हो सकता है कि मौजूदा जन-उभार में भागीदारी-संबंधी एप्रोच और आम दिशा की ये बातें कुछ 'मंसूबावादी' और दूर की कौड़ी लगें ! लेकिन याद रखिये, किसी भी स्वतःस्फूर्त संघर्ष में क्रांतिकारी शक्तियाँ अगर सही सोच और दिशा के साथ भागीदारी करती हैं तो भविष्य के लिए बहुमूल्य अनुभवों और परिपक्वता से समृद्ध होकर आगे आती हैं ! व्यवस्था-परिवर्तन का संघर्ष सीधी रेखा में नहीं, बल्कि ज्वार और भाटे की तरह, कई चक्रों से होकर, आगे बढ़ता है और कब कौन सा चक्र निर्णायक हो जाएगा, यह कोई भी नहीं बता सकता !

(4फरवरी, 2020)

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