Monday, October 14, 2019


कवि की प्रतिभा सूक्ष्मग्राही थी I तलस्पर्शी और तत्वदर्शी भी ! वह जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंतरविरोधों को पहचान लेती थी, तमाम गौण प्रश्नों को विमर्श के केन्द्र में ला देती थी, हाशिये के मुद्दों को मुख्य धारा में स्थापित कर देती थी, दैनंदिन तुच्छता से उदात्तता के महाख्यान रच डालती थी !

लेकिन कवि कभी समाज के बुनियादी अंतरविरोधों की, या मुख्य अंतरविरोध की चर्चा तक नहीं करता था I जलते प्रश्न-चिह्नों की ओर पीठ करके खड़ा होता था I केन्द्र में आये मुद्दों से कतराकर पतली गली से निकल लेता था I इसतरह लगातार वह कुछ तरल, कुछ वाष्पीय, कुछ लोकोत्तर, कुछ उदात्त, कुछ ऐतिहासिक और अमरत्व की संभावनाओं से युक्त रचता चला जा रहा था I

आखिरकार एक दिन मैंने उसे एक भव्य कला अकादमी के पिछवाड़े की पतली गली में घेर ही लिया और फिर यह घिसा-पिटा सवाल पूछ ही डाला,"पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?" कवि ने नाक-भौं सिकोड़े और बोला,"ये जो तुम्हारे जैसे लोग हैं न ! ये लोग जीवन और कविता के सूक्ष्म-अमूर्त प्रश्नों को बेहद भोंड़े-भद्दे ढंग से 'पोलिटिसाइज़' कर देते हैं !"

मैंने फिर प्लेखानोव को उद्धृत किया,"ज़िन्दा लोग ज़िन्दा सवालों पर सोचते हैं !"

कवि ने तर्जनी उठाकर मुझे रोका और फिर क्षितिज की और ताकते हुए बोला,"मेरी कविता मृत्यु में जीवन का संधान करती है ! यह ज़िन्दगी की अकाव्यात्मक समस्याओं से टकराने में खुद को ख़र्च नहीं करती I यह क्रूरता के समय में काव्यात्मक ढंग से और कुरूपता के समय में सौन्दर्यात्मक ढंग से जीना सिखाती है ! यह मृत्यु की घाटी से उठती वह आवाज़ है जो जीवित सुनेंगे कुछ शताब्दी बाद !"

फिर वह मुड़कर यूँ चलने को हुआ ज्यों उसका अगला कदम सीधे बाईसवीं सदी की छाती पर धम्म से पड़ने वाला हो !

(12अक्‍टूबर, 2019)

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