Monday, October 14, 2019


“मेरी आकांक्षाएँ कुछ नहीं है। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खानेभर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे अभिलाषा नहीं। हाँ, यह ज़रूर चाहता हूँ कि दो चार उच्चकोटि की पुस्तकें लिखूँ, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही है। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूँ कि वे ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला भर घी और मामूली कपड़े सुलभ होते रहें।”
-- प्रेमचंद का एक पत्र बनारसी दास चतुर्वेदी के नाम, 3 जुलाई,1930.

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“जो व्यक्ति धन-सम्पदा में विभोर और मगन हो, उसके महान् पुरुष होने की मै कल्पना भी नहीं कर सकता। जैसे ही मैं किसी आदमी को धनी पाता हूँ, वैसे ही मुझपर उसकी कला और बुद्धिमत्ता की बातों का प्रभाव काफूर हो जाता है। मुझे जान पड़ता है कि इस शख्स ने मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को – उस सामाजिक व्यवस्था को, जो अमीरों द्वारा गरीबों के दोहन पर अवलम्बित है – स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार किसी भी बड़े आदमी का नाम, जो लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो, मुझे आकर्षित नहीं करता।
बहुत मुमकिन है कि मेरे मन के इन भावों का कारण जीवन में मेरी निजी असफलता ही हो। बैंक में अपने नाम में मोटी रकम जमा देखकर शायद मैं भी वैसा ही होता, जैसे दूसरे हैं – मैं भी प्रलोभन का सामना न कर सकता, लेकिन मुझे प्रसन्नता है कि स्वभाव और किस्मत ने मेरी मदद की है और मेरा भाग्य दरिद्रों के साथ सम्बद्ध है। इससे मुझे आध्यात्मिक सान्त्वना मिलती है।”
-- प्रेमचंद का एक और पत्र बनारसी दास चतुर्वेदी के नाम, 1 दिसंबर,1935.

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प्रेमचंद के इन पत्रों की रोशनी में हम आज के साहित्यकारों के जीवन और कृतित्व के बीच के रिश्ते की पड़ताल कर सकते हैं ! स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद जो नया भारतीय समाज निर्मित हुआ है, उसमें एक खुशहाल मध्यवर्ग की परत का तेज़ी से फैलाव हुआ है Iसाहित्यकारों सहित भारत के बौद्धिकों का एक बड़ा हिस्सा इसी सुरक्षित और सुविधा-संपन्न जीवन वाले मध्य वर्ग से आता है I राष्ट्रीय मुक्ति का काम पूरा हो जाने के बाद इस मध्य वर्ग की आम मेहनतकश जनता के हितों-आकांक्षाओं के साथ साझेदारी ख़त्म हो चुकी है ! यह खंडित सपनों और असह्य जीवन वाले दबे-कुचले लोगों के साथ "ऐतिहासिक विश्वासघात" कर चुका है ! यह अगर सत्ता और अन्याय का विरोध भी करता है तो वहीं तक, जहाँतक कोई जोखिम न हो और सुविधाओं पर कोई आँच न आये ! जन-संघर्षों में आम लोगों के साथ लेखकों-कवियों के लाठी-गोली खाने और जेल जाने के दिन बीत चुके हैं ! बस इतना ही काफी होता है कि प्रेमचंद, नेरूदा, नाजिम हिकमत आदि के नाम लेते रहो, कुछ प्रतीकात्मक धरना-प्रदर्शनों और हस्ताक्षर अभियानों में हिस्सा लेते रहो, अकादमियों के चक्कर लगाते रहो, विदेश यात्रा के कुलाबे भिड़ाते रहो और तमाम प्रशस्ति-पत्रों के बीच प्रगतिशीलता का भी तमगा लटकाए रखो ! जानती हूँ, ये बातें ज़हर जैसी कड़वी हैं, पर जो बात सच लगे वह कह ही देनी चाहिए ! जनता के पक्ष में खड़े महान लेखकों के कृतित्व से वही सीख सकता है जो उनके जीवन से भी सीखे !
अपने जीवन और कृतित्व के बारे में आलोचनात्मक होना बेहद कठिन होता है, पर बेहद ज़रूरी होता है !

(10अक्‍टूबर, 2019)

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