Tuesday, September 24, 2019


कुछ लोग अक्सर इस किस्म की बातें करते रहते हैं कि 'फेसबुक पर सबकुछ फेक है', 'यहाँ उपस्थिति की कोई उपयोगिता नहीं है', 'हमें ज़मीनी राजनीतिक कामों पर ध्यान देना चाहिए' ... वगैरह-वगैरह ! और मज़े की बात यह है कि वे फेसबुक पर उपस्थिति का प्रलोभन छोड़ भी नहीं पाते, जाते और फिर आते रहते हैं, 'जैसे उड़ि जहाज का पंछी पुनि जहाज पे आवै !' इससे भी दिलचस्प बात यह है कि अपने उपरोक्त विचार वे फेसबुक पर ही प्रकट करते रहते हैं !

भइये ! यह कहता कौन है कि फेसबुक की आभासी दुनिया राजनीतिक कामों की वास्तविक दुनिया का विकल्प है ! इस "फेक" दुनिया से पूरीतरह विदा लेकर राजनीतिक कामों में पिल ही क्यों नहीं पड़ते ! शायद, देर-सबेर कुछ ठोस नतीज़ा हाथ आ ही जाए !

और भइये ! यह 'अ-ब-स' तो सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया एक बुर्जुआ जनवादी स्पेस है और हर बुर्जुआ जनवादी स्पेस की तरह इसकी भी एक स्पष्ट चौहद्दी है ! आप भी जान लो !

(23सितम्‍बर, 2019)


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ज़िन्दगी की ठोकरें खाकर कई बार आप जैसे एक विरेचन (कैथार्सिस) और उदात्तीकरण की प्रक्रिया से गुज़रते हैं (हालाँकि हमेशा और हर व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होता) I आप स्वयं क्षुद्रताओं-तुच्छताओं से जैसे-जैसे मुक्त होते जाते हैं, वैसे-वैसे आप अपने आसपास की क्षुद्रताओं-तुच्छताओं को बेहतर ढंग से देखने-जानने-समझने लगते हैं I और तब आप ओछी, या त्वरित, या आवेशित प्रतिक्रिया नहीं देते, बल्कि असम्पृक्त और वीतरागी भाव से लोगों की टुच्चइयों-चालाकियों-खुदगर्ज़ियों के बारे में सोचने लगते हैं और सिर्फ तभी उनका विरोध करते हैं जब कोई बहुत बड़ा उसूली मामला हो I अन्यथा, अपनी आँखों के सामने जारी क्षुद्रता-तुच्छता के सिनेमा को बस अन्यमनस्क दर्शक की तरह देखते रहते हैं I उस दर्शक की तरह, जिसे उसके साथ वाले कोई सी-ग्रेड सोशल ड्रामा देखने के लिए ज़बरदस्ती सिनेमा-हॉल में घसीट लाये हों I

(23सितम्‍बर, 2019)


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मुखौटों का स्थान कला की दुनिया में होता है I ज़िंदगी में वे वितृष्णा और विरक्ति पैदा करते हैं I

आप एक निहायत स्वार्थी, मतलबी, आत्मकेंद्रित और घमंडी इंसान हैं तो कोई बात नहीं ! ऐसे लोग तो आज समाज में बहुतायत में पाए जाते हैं I समस्या तब होती है जब आप एक परोपकारी, सरोकारी, सहृदय और विनम्र होने का मुखौटा लगा लेते हैं और हमें पता होता है कि इस मुखौटे के पीछे चेहरा तो वही पहले ही वाला है !


उदात्त मानवीय गुणों को रोजमर्रा के व्यवहार में 'डिप्लोमेसी' या 'टैक्टिस' बना देना घटिया ही नहीं, अमानवीय लगता है I ऐसा व्यक्ति डरावना लगने लगता है !

(25सितम्‍बर, 2019)



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