Friday, September 13, 2019


आप बर्बरों और अपराधियों के धुमगज्जर और उत्पात के लिए ज़मीन तैयार करते हैं और फिर बर्बर आपको सत्ता से धकियाकर लतियाते हैं तो आपसे भला किसी की हमदर्दी क्यों होनी चाहिए ?

हिन्दुत्ववादी फासिस्ट आज जो भी कुछ कर रहे हैं, क्या उसकी ज़मीन कांग्रेस ने ही नहीं तैयार की है ? नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को 1991 में यही कांग्रेस लेकर आयी थी, जिन्हें आज मोदी उनकी तार्किक निष्पत्तियों तक पहुँचा रहा है ! इन नीतियों को लागू करने वाले यही मनमोहन सिंह थे जो उससमय नरसिंह राव की सरकार में वित्त मंत्री हुआ करते थे ! आज अगर कांग्रेस सत्ता में होती, तो भी कम या ज्यादा स्पीड से, देर या सबेर इन नीतियों के ऐसे ही विनाशकारी नतीजे सामने आने थे I

क्या यह सच नहीं है कि कांग्रेस नेहरू ब्रांड अधकचरे-अधूरे सेकुलरिज्म से भी कभी का पल्ला झाड़ चुकी थी और नरम केसरिया लाइन अपनाकर ही वह हिन्दुत्ववादियों से चुनावी जंग जीतने की कोशिश करती रही है ? रामजन्मभूमि का ताला खुलवाना, नरसिंह राव के दबे-ढंके समर्थन की बाबरी मस्जिद ध्वंस में भूमिका से लेकर राहुल के मंदिर-मंदिर घूमने और जनेऊ दिखाने की घटिया राजनीति को किस रूप में देखा जाना चाहिए ?

क्या कांग्रेस में आज़ादी के पहले से ही एक धुर-दक्षिणपंथी धड़ा सक्रिय नहीं रहा है जिसकी अंदरूनी सहानुभूति हिंदुत्व की राजनीति से रही है ?

जिस ई.वी.एम्. को लेकर कांग्रेस के नेता भी आज विरोध के सुर उठा रहे हैं, उसे लाने वाली कांग्रेस ही है ! अब जब उसका बेजा इस्तेमाल भाजपा वाले कर रहे हैं तो इन्हें मिर्ची काहे को लग रही है ?

कश्मीर पर भी एक शब्द बोलने का अधिकार कांग्रेस को नहीं है ! कश्मीरियों को अलगाव में डालने और उनके साथ किये गए वायदों के साथ विश्वासघात की शुरुआत तो उसीसमय हो चुकी थी जब नेहरू ने 1953 में शेख अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार को निहायत असंवैधानिक ढंग से बर्खास्त करके उन्हें जेल में डाल दिया था ! जनमत-संग्रह की माँग को नकारने और धारा-370 को व्यवहारतः निष्प्रभावी बनाते जाने का काम कांग्रेस ने ही किया था ! कश्मीर को फौजी बूटों के हवाले करने और बर्बर दमन की शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जिसकी अति-प्रतिक्रिया के चलते कश्मीरी अवाम में भी धार्मिक कट्टरपंथ की राजनीति की ज़मीन तैयार हुई, सेकुलरिज्म की पुरानी ज़मीन कमजोर हुई और इस स्थिति का भरपूर लाभ पाकिस्तान-परस्त ताक़तों और आतंकवाद की राजनीति ने उठाया I कश्मीरी अवाम के साथ किये गए ऐतिहासिक अपराध में अपनी भूमिका से कांग्रेस मुँह नहीं चुरा सकती !

असम में एन.आर.सी. को लेकर भी कांग्रेसी भला किस मुँह से बोल रहे हैं ! भाजपा असम में 40 लाख अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों के होने के दावे कर रही थी ! अब पता चला कि अवैध आप्रवासियों की संख्या मात्र 19 लाख से कुछ अधिक है और उनमें से भी 13 लाख हिन्दू हैं ! लेकिन कांग्रेसी सरकार के गृहमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो जुलाई,2004 में लोकसभा को लिखित बयान में बताया था कि 31 दिसंबर 2001 को भारत में 1 करोड़ 20 लाख बांग्लादेशी थे जिसमें से 50 लाख असम में थे I 2005 में एन.आर.सी. के दबे हुए मुद्दे को फिर से उठाने का काम मनमोहनसिंह की सरकार ने ही किया था !

हमें भूलना नहीं चाहिए कि छत्तीसगढ में अर्द्धसैनिक बलों के बर्बर दमन और 'सलवा जुडूम' की शुरुआत कांग्रेसियों ने ही की थी ! दामोदर घाटी से लेकर टिहरी, नर्मदा आदि बांधों और परियोजनाओं के लिए लाखों को दरबदर करने का काम कांग्रेस ने ही किया था ! पूँजीपतियों को कौड़ियों के मोल जल-जंगल-ज़मीन बेचने के लिए लोगों को बन्दूक की नोक पर उजाड़ने में कांग्रेसी भाजपाइयों से पीछे नहीं रहे हैं !

धन्य हैं इस देश के लिबडल और चोचल धेलोक्रेट जो कांग्रेस से सेकुलरिज्म और जनवाद की लड़ाई में नेतृत्व देने की उम्मीद इन सबके बावजूद पाले रहते हैं और दांत चियारे उसकी दर पर बार-बार हाजिरी बजाते रहते हैं ! यही वह पार्टी है जिसने दशकों तक भारतीय पूँजीपति वर्ग की मुख्य प्रतिनिधि पार्टी की भूमिका निभाई है ! अब अर्थ-व्यवस्था ने वह भौतिक आधार तैयार किया है कि पूँजीपतियों ने अपने हितों की चौकीदारी और प्रबंधन का काम फासिस्टों को सौंप दिया है ! इन फासिस्टों को न तो चुनाव के द्वारा परास्त किया जा सकता है, न ही बड़े पूँजीपतियों की पुरानी पार्टी कांग्रेस, क्षेत्रीय पूँजीपतियों और कुलकों-फार्मरों की क्षेत्रीय पार्टियों और सामाजिक जनवादियों का कोई मोर्चा बनाकर इनसे पार पाया जा सकता है I फासिज्म को सडकों के आर-पार के संघर्ष में, संगठित मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम ही शिकस्त दे सकता है I इतिहास के इस सबक को कत्तई भूला नहीं जाना चाहिए !

(2सितम्‍बर, 2019)


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कुख्यात नात्सी नेता विल्हेल्म स्टैपल ने एकबार बहुत साफगोई से कहा था : ''…नेशनल सोशलिज्म (नात्सीवाद)...का विरोध तर्कों से नहीं किया जा सकता। तर्क से विरोध तो तब कारगर हो सकता था जब यह आंदोलन तर्कों के सहारे आगे बढ़ा होता।''

यह बात हमारे सूफियाना मिजाज़ के बौद्धिकों, मोमबत्ती जुलूस वाले लिबडलों और संसदीय विभ्रमों वाले चोचल ढेलोक्रैट्स को न जाने कब समझ आयेगी ! अरे जब फासिस्ट खुद ही कह रहा है, तब तो मान लो !

फासिस्ट उन्माद, जिंगोइज्म और धार्मिक-नस्ली कट्टरता की लहर बहाकर, चुनावी घपले-घोटाले करके सत्ता में आते हैं ! वे न तर्क करते हैं, न उनका ह्रदय-परिवर्तन हो सकता है ! जैसा कि राहुल सांकृत्यायन ने भी कहा था, फासिस्टों के खूनी मंसूबों को जनशक्ति के बूते ही चकनाचूर किया जा सकता है ! फासिस्ट चुनाव से सत्ता में भले आयें, पर उनकी सत्ता को धूल में तभी मिलाया जा सकता है, जब आम मेहनतक़श आबादी उनसे फैसलाकुन टकराव के लिए सड़कों पर लामबंद हो !


हरदम हाथ पर हाथ धरे इसी बात पर रोते-बिसूरते रहने का कोई मतलब नहीं कि अभी तो यह संभव नहीं लगता! चीज़ें करने से संभव होती हैं, और न करने से असंभव!

(6सितम्‍बर, 2019)


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