Wednesday, June 12, 2019

वोट देने का बुनियादी जनवादी अधिकार और ई.वी.एम. को लेकर कुछ ज़रूरी बातें


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कुछ लोग ‘एडवांस्ड टेक्नोलॉजी फेटिशिज्म’ के इस क़दर शिकार होते हैं कि कि उनके हिसाब से उन्नत टेक्नोलॉजी वाली मशीनों के साथ छेड़छाड़ संभव ही नहीं होती ! जबकि बात ठीक उल्टी होती है I मशीन जितनी अधिक उन्नत होती है, उसे टैम्पर करना उतना ही सुगम होता है ! सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ भी फूलप्रूफ़ नहीं होता, हो ही नहीं सकता ! हर सुरक्षा-उपाय की काट की जा सकती है I और अंतिम सत्य यह है कि मनुष्य निर्मित कोई मशीन ऐसी हो ही नहीं सकती जिसके साथ मनुष्य छेड़छाड़ नहीं कर सकता हो, या जिसमें मनोवांछित बदलाव नहीं कर सकता हो I यदि हमें यह असंभव लगता है तो यह इस लॉजिक की सीमा नहीं है, बल्कि हमारे तकनीकी ज्ञान की सीमा है I मैं कम्प्युटराइजेशन आधारित स्वचालन और सूचना प्रौद्योगिकी के बारे में कोई गहरी जानकारी नहीं रखती, पर मानव चेतना और मशीन के बारे में आम जानकारी के आधार पर ये बातें कर रही हूँ ! आप समझ ही गए होंगे कि मैं ई.वी.एम. टैम्परिंग की संभावनाओं को लेकर चल रही बहस के सन्दर्भ में ये बातें कर रही हूँ !

स्पष्ट कर दूँ कि मेरा भी यह स्पष्ट मानना है कि मोदी-शाह के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादी फासिस्ट गिरोह की रिकॉर्डतोड़ जीत के पीछे अहम भूमिका उस उन्मादी राष्ट्रवादी नैरेटिव की है जो इस गिरोह ने पुलवामा और बालाकोट के बाद सेट किया और जनमानस में, अपनी सैन्य कार्रवाई की शर्मनाक असफलता के बावजूद, गोदी मीडिया के व्यापक तंत्र की मदद से यह बात कूट-कूटकर बैठा दी कि ‘मोदी घर में घुसकर मारता है !’ वैसे भी अंधराष्ट्रवाद ही फासिस्टों का अंतिम, गारंटीशुदा शरण्य होता है I मोदी का राष्ट्रवाद न सिर्फ़ हिन्दू पहचान पर आधारित था, बल्कि वह पिछड़ी और दलित जातियों की पहचान को भी अपने द्वारा मैन्युफैक्चर्ड हिन्दू पहचान में समाहित करने में तथा इन जातियों के मध्यवर्गीय संस्तरों और निराशा-जनित उन्माद से ग्रस्त युवाओं को अपने वोट बैंक में बदल पाने में सफल रहा I जैसाकि स्वाभाविक था, नरम केसरिया लाइन वाली तथा समय-समय पर खुद ही राष्ट्रवादी लहर उभाड़ने वाली बुर्जुआ पार्टियों, सर्वधर्मसमभाव टाइप धर्मनिरपेक्षता के पुजारी बुर्जुआ लिबरल्स और खुद ही बुर्जुआ राष्ट्रवादी प्रचार के आगे हमेशा से घुटने टेकते आये सोशल डेमोक्रेट्स और संसदमार्गी वामी जड़वामनों के पास फासिस्टों की इस चाल की कोई प्रभावी काट नहीं थी I

फिर भी यह बात गले के नीचे एकदम नहीं उतरती कि मोदी को यह प्रचंड बहुमत सिर्फ़ अंधराष्ट्रवादी उन्माद की लहर के सहारे मिला है ! ऐसा नहीं है कि नोटबंदी, जी.एस.टी., खेती की तबाही, बेरोज़गारी, मँहगाई और भ्रष्टाचार जैसे सारे मसले अंधराष्ट्रवादी उन्माद की बाढ़ में एकदम किनारे लग गए थे I कई चुनाव-क्षेत्रों में, जहाँ भाजपा नेताओं की सभा में आगे से पीछे तक खाली कुर्सियाँ पड़ी रहती थीं, कई क्षेत्रों में जहाँ गाँवों में लोगों ने प्रचार करने गए भाजपाइयों को डंडे लेकर दौड़ा लिया, कई क्षेत्रों में जहाँ भाजपा प्रत्याशी खुद ही अपनी पराजय सुनिश्चित जानकर निहायत बेमन से प्रचार कर रहे थे, वहाँ भी भाजपा ने वोटों की बम्पर फसल काटी ! यह बात मैं उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों के अपने अनुभव तथा महाराष्ट्र, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल के ऐसे कई साथियों से हुई बातचीत के आधार पर कह रही हूँ, जिन्होंने ज़मीनी हालात की गहन जाँच-पड़ताल की थी ! आखिर क्या बात है कि यह जीत 2014 की जीत से भी बहुत बड़ी रही, जबकि तमाम नारों के बावजूद इस बार वैसी देशव्यापी मोदी लहर कत्तई नहीं थी ! आखिर बात क्या है कि इतनी प्रचंड जीत के बावजूद भाजपा के दफ्तरों में अबीर-गुलाल-लड्डू को छोड़कर सड़कों पर ज्यादातर सन्नाटा ही छाया रहा !

मेरा अभी भी यह स्पष्ट मानना है कि भाजपा ने इस चुनाव में अत्यंत स्ट्रैटेजिक कुशलता के साथ, और सेलेक्टिव तरीके से, चुनी हुई सीटों पर ई.वी.एम. टेम्परिंग का खेल खेला है I फासिज्म के बारे में जिनकी ऐतिहासिक-सैद्धांतिक जानकारी नहीं है, उन्हें यह बात एक किस्म की ‘कांस्पीरेसी थ्योरी’ जैसी लगेगी I पर जिन्होंने फासिस्टों के सिद्धांत और आचरण का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि फासिस्ट सत्ता तक पहुँचने के लिए धार्मिक-नस्ली-अंधराष्ट्रवादी उन्माद उभाड़ने के साथ ही किसी भी स्तर तक की धांधली और अंधेरगर्दी कर सकते हैं !

सबसे पहले तो हमारे भेजे में यह बात घुसनी चाहिए कि अगर धांधली का कोई कपट-प्रबंध था ही नहीं, तो इतनी बदनामी झेलकर उच्चतम न्यायालय और केन्द्रीय चुनाव आयोग को, उनके सारे डंक तोड़कर जांघिये की जेब में रख लेने की ज़रूरत ही क्या थी ! चुनाव आयोग विपक्षी दलों की सारी आपत्तियों को और अपने ही एक सदस्य अशोक लवासा की आपत्तियों को भी ख़ारिज करता हुआ भाजपा को क्लीन चिट देता रहा और हर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट भी यही रुख अपनाता रहा I( प्रसंगवश, अभी पता चला है कि लवासा अभी-अभी एक कार-दुर्घटना में जस्टिस लोया की तरह ‘सदगति’ प्राप्त करने बाल-बाल बचे हैं !) सोचने की बात है कि जब सात चरणों के चुनाव में एक माह से भी अधिक समय लगा, तो 50 प्रतिशत वी.वी.पैट की पर्चियों से मिलान कराने में अगर नतीजे घोषित करने में कुछ दिन और लग जाते तो भला कौन सा तूफ़ान टूट पड़ता ! फिर मात्र नतीजों में देरी के तर्क के आधार पर विपक्षी दलों की इस माँग को केचुआ और आला अदालत दोनों द्वारा ख़ारिज कर दिए जाने का भला क्या तुक है !

चुनावों के दौरान ई.वी.एम. मशीनों की गड़बड़ी की और मतदान के बाद स्ट्रांगरूम्स में ई.वी.एम. मशीनों से भरे संदिग्ध ट्रकों के घुसाने या आसपास मंडराने की जितनी भी खबरें आईं, वे सभी की सभी अफवाह नहीं थीं I उनमें से कई आपने भी देखी होंगी I पर मैं यहाँ उनकी चर्चा नहीं कर रही हूँ I मैं कुछ और सनसनीखेज खुलासों की और आपका ध्यान खींचना चाहती हूँ !

(1) गौहर रज़ा एक कवि और फिल्मकार होने के साथ ही पेशे से एक वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं जो सी.एस.आई.आर. में कार्यरत हैं I उन्होंने अपने फेसबुक वाल पर एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है, जिसके अनुसार, एक आर.टी.आई. एक्टिविस्ट वेंकटेश नायक ने खुलासा किया है कि नीदरलैंड्स स्थित एक बहु-अरब डॉलर कंपनी से आयातित माइक्रो-कंट्रोलर को वर्त्तमान चुनावों में इस्तेमाल किये गए ई.वी.एम. मशीनों के लिए मंगवाया गया था I कंपनी का नाम NXP सेमी-कंडक्टर है और उत्पाद की पहचान MK61FX512VMD12 है ! पोस्ट में उन्होंने कंपनी का पता, ट्रेड रजिस्टर नंबर और वैट नंबर भी दिया है I

(2) गौहर रज़ा ने भाजपा प्रत्याशी अर्जुन मुंडा के क्षेत्र में ई.वी.एम. से गिनती में घपले का एक वीडियो कल शेयर किया है ! उसे भी देखकर ज़रूरी नतीजे निकाले जा सकते हैं I

(3) अब tahalka.net की एक सूचना पर भी निगाह डालते चलिए ! फर्रुखाबाद में कुल वोट पड़े 867891 और ई.वी.एम. ने गिनती की, 995387 ! तो ये 127496 वोट फाजिल कहाँ से आ गए ?

(4) जापान जो हमें ई.वी.एम. बेचता है, उसके वहाँ खुद ही ई.वी.एम. पर प्रतिबन्ध है I दुनिया के अधिकांश उन्नत देश ई.वी.एम. का प्रयोग करने के बाद बैलट पेपर से मतदान पर वापस जा चुके हैं ! आज दुनिया के 120 देशों में ई.वी.एम. प्रतिबंधित है I फिर भारत में ही इसके प्रयोग को लेकर चुनाव आयोग अंगद का पाँव क्यों गाड़े हुए है ?आखिर इस हद तक जिद क्यों कि इतना शक पैदा होने के बावजूद, वी.वी.पैट से शत प्रतिशत तो दूर, 50 प्रतिशत पर्चियों के मिलान के लिए भी केचुआ और आला अदालत के महामहिम लोग तैयार नहीं हैं ? अगर फिर भी किसी के लिए यह सोचने और संदेह करने की बात नहीं है, तो उसने ज़रूर अपने तर्क और विवेक को गिरवी रख दिया है, या फिर, वह डर गया है कि कहीं सवाल उठाने पर उसका लोया-पांड्या न हो जाए !

सवाल यह भी आपके दिमाग में आ सकता है कि सारे विपक्षी दल भुनभुना-कुनमुना तो रहे हैं, लेकिन ई.वी.एम. के सवाल को जोर-शोर से क्यों नहीं उठा रहे हैं ? बात साफ़ है ! इतिहास में जैसा पहले भी हुआ है, फासिस्ट आतंक के सामने घुटने टेककर सभी बुर्जुआ दल बुर्जुआ जनवाद का खेल फासिस्टों द्वारा निर्धारित नियमों के हिसाब से खेलने को लगभग तैयार दीख रहे हैं ! दूसरी बात, ये सभी बुर्जुआ दल जानते हैं कि फिलहाल भारतीय बुर्जुआ वर्ग फासिस्टों की सरकार के ही पक्ष में है और इसलिए वे ज्यादा कुछ कर नहीं सकते ! तीसरी बात, फासिस्ट बुर्जुआ पार्टियों के नेताओं से कुछ मुक़दमे हटाकर और कुछ जाँच कार्रवाइयों को आगे बढ़ाकर यह सन्देश दे रहे हैं कि अगर नाज़ुक प्रश्नों को छुए बिना वे पक्ष-विपक्ष का गेम खेलते रहेंगे तो सलामत रहेंगे, अन्यथा लालू और चौटाला से भी अधिक दुर्गति को प्राप्त हो सकते हैं ! और चौथी बात ! ये सभी बुर्जुआ पार्टियाँ बसों में लादकर और भोजन के पैकेट देकर रैलियों में भीड़ तो ला सकती हैं, पर ’50, ’60 और कुछ हद तक ’70 के दशकों की तरह, इनमें से किसी के पास सड़कों पर आन्दोलन करने वाले कैडर हैं ही नहीं ! कैडर सिर्फ़ फासिस्टों के पास हैं और कुछ हद तक छोटे-छोटे क्रांतिकारी वाम संगठनों के पास हैं I संसदमार्गी वामपंथी पार्टियाँ भी अपना कैडर-आधार 90-95 प्रतिशत तक खो चुकी हैं !

अगला सवाल कोई पूछ सकता है कि क्रांतिकारी वाम के स्टैंड-पॉइंट से हर बुर्जुआ जनवाद अगर बुर्जुआ अधिनायकत्व है और संसद सुअरबाड़ा है, तो फिर हम इस बात को लेकर चिंतित क्यों हैं कि संसदीय चुनावों में घपला हो रहा है ? सही है कि बुर्जुआ जनवाद बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व होता है, पर हर किस्म का बुर्जुआ जनवाद फासिज्म या बोनापार्टिस्ट स्टेट से भिन्न होता है ! उसमें अवाम को कम या ज़्यादा बुर्जुआ जनवादी अधिकार मिले होते हैं और ऐसे जनवादी स्पेस, प्लेटफॉर्म और संस्थाएँ मौजूद रहती हैं कि जनता अपने जनवादी अधिकारों के लिए लड़ सके I मेहनतकश अपने जनवादी अधिकारों के लिए लड़ते हुए ही बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं की शिनाख्त करते हैं और फिर समाजवाद के लिए लड़ने की दिशा में आगे बढ़ते हैं ! जबतक क्रांतिकारी संकट की घड़ी न आये तबतक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट बुर्जुआ संसदीय चुनावों में टैक्टिकल भागीदारी करते हैं और जन –समुदाय के बीच क्रांतिकारी शिक्षा और प्रचार के लिए इस मंच का इस्तेमाल करते हैं ! सार्विक वयस्क मताधिकार आम जनता का एक महत्वपूर्ण नागरिक एवं जनवादी अधिकार है ! अगर किसी भी रूप में इस अधिकार का हनन होता है और चुनाव की पारदर्शिता या जनवादी प्रक्रिया के साथ कोई छलपूर्ण छेड़छाड़ की जाती है तो कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों का यह बुनियादी कर्तव्य बनता है कि वे इसके विरुद्ध आम जनता को जागृत और संगठित करें और व्यापक, ज़मीनी, जुझारू आन्दोलन की तैयारी के लिए, हर तरह की संकीर्णता छोड़कर एकजुट हो जाएँ !

आज यह बेहद ज़रूरी है कि हम ई.वी.एम. पर अविलम्ब प्रतिबन्ध लगाने और बैलट पेपर से चुनाव कराने की माँग को लेकर व्यापक जन-गोलबंदी की कोशिश करें ! यह जनता के एक बुनियादी जनवादी अधिकार की हिफ़ाज़त का सवाल है !

(27मई, 2019)

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